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24 Apr 2015

Lucknow Shia Ehtijaaj ki Mukhtasar Tarikh

उत्तर प्रदेश, लखनऊ के शियों के एहतेजाज की मुख़्तसर तारीख और उलेमा का इत्तेहाद

आज शिया क़ौम का बहोत बड़ा तब्क़ा चाहता है की शिया उलेमा व ज़केरिन में इत्तेहाद हो। यक़ीनन यह बहोत ही पाक ओ पाकीज़ा ख्याल है जिसकी क़ुबूलयाबी की दुआ हम भी करते रहे हैं।  दुआ करते वक़्त ज़रूरी है की, आज जो समझने के लिए हमें अपने गुज़रे हुए कल को समझना होगा। शिया उलेमा में किसी हद तक इत्तेहाद 1969 और 1974 के शिया - सुन्नी फसादात के कुछ अरसे बाद तक रहा।

1977 में, 21 माहे रमज़ान के जुलूस पर यज़ीदी फ़िरक़े ने हमला किया जिसके बाद हुकूमत ने एक बार फिर शिया जुलूसों पर पाबन्दी लगा दी। शिया लीडरशिप ने, मौलाना कल्बे आबिद साहब से मश्विरा किये बग़ैर, बजाए प्रोटेस्ट करने के, खुद ही आने वाले अशरे की तमाम बड़ी मजलिसें बंद करने का एलान कर दिया। मजलिसे बंद करने का एलान करने के बाद बेश्तर ज़किरीन खुद लखनऊ से दूसरे शहरों और  मुल्कों में मजलिस पढ़ने रवाना हो गए।

मरहूम मौलाना कल्बे आबिद साहब हस्बे मामूल अशरे से एक दिन पहले अलीग़ढ से लखनऊ आए तो इस फैसले से बहोत ज़्यादा अफ़सुर्दा हुए। शिया क़ौम जुलूस और मजलिसें बंद होने से बहोत नाराज़ थी। 5 मुहर्रम, 1977  शियों का एक बड़ा मजमा मौलाना कल्बे आबिद साहब के पास आया और ग़ुफ़्रानमाब में मजलिसे पढ़ने पर इसरार  किया, मौलाना ने उस फैसले की इज़्ज़त रखते हुए अपने घर पर ही 6  मुहर्रम से मजलिस पढ़ना शुरू कर दी।

दूसरे साल, क़ौम के मज़ीद इसरार पर इमाम बड़ा ग़ुफ़रान माब में अशरा फिर से शुरू किया जिसके बाद मदरसा ए नज़्मीयां और शिया कॉलेज में (जो मजलिस पहले इमामबाड़ा नाज़िम साहब में होती थी) मजलिस का सिलसिला शुरू हो गया। मौलाना कल्बे आबिद साहब ने 10 मुहर्रम 1977 से जुलूसों पर पाबन्दी के खिलाफ "कोर्ट अरेस्ट" का सिलसिला शुरू किया। उनका एक मशहूर जुमला जो उन्होंने 1984 में इमामबाड़ा ग़ुफ़रान माब के अशरे की मजलिस में कहा था, "हम गुज़श्ता 7 बरसों से अहतिजाज करते आए हैं। अरे अभी 7 बरस ही हुए हैं। हम कहते हैं की 7 नहीं, 70, बल्कि अगर 700 साल तक भी अज़ादारी के जुलूसों  बहाली के लिए एहतेजाज करना पढ़े तो हम पीछे नहीं हटेंगे।"

अहतिजाज का सिलसिला शुरू हो गया। इस दरमियान सबसे बढ़ा एहतेजाज 1978 में "यौमे फैसला" के नाम से हुआ जिसके रूहे रवां जनाब मौलाना कल्बे जावद साहब, जनाब शकील शम्सी साहब, यासा रिज़वी मरहूम, जुल्किफल रिज़वी व दीगर नौजवान थे। कर्फ्यू तोड़ कर अलम के जुलूस निकाले गए जिसमें लखनऊ का कोई भी मौलाना शरीक नहीं हुआ। शिया क़ौम के नौजवान लखनऊ, सीतापुर, बाराबंकी, फैज़ाबाद और उन्नाओ जेल भेज दिए गए। उन्नाओ जेल में "अली कांग्रेस" क़ायम की गई जिसके सरपरस्त मौलाना कल्बे आबिद साहब और प्रेजिडेंट मौलाना कल्बे जावद साहब मुंतख़िब हुए।

अली कांग्रेस ने मौलाना कल्बे आबिद साहब की सरपरस्ती में अहतिजाजात का एक लम्बा सिलसिला शुरू कर दिया। शियों ने लोक सभा इलेक्शंस बॉयकॉट भी किया जिसके बाद संजय गांधी ने मौलाना कल्बे आबिद साहब के नाम एक खत लिख कर शियों  जुलूस पर से पाबन्दी उठवाने का वादा किया। शियों ने बॉयकॉट वापस लिया और शीला कॉल शिया वोट्स की बिना पर (30,000 वोट्स से) इलेक्शन जीत गई। अफ़सोस की संजय गांधी का वो लेटर क़ौम के एक बड़े लीडर ने अपने पास रख लिया और मौलाना कल्बे आबिद साहब मरहूम से बार बार मांगने के बावजूद वापिस नहीं किया।
जनाब शकील शम्सी और दूसरे नौजवानो के रोज़गार की बिना लखनऊ से चले जाने के बाद प्रोटेस्ट्स का सिलसिला कुछ वक़्त के लिए रुक गया लेकिन यासा मरहूम ने जनाब जावेद मुर्तज़ा साहब को अली कांग्रेस से जोड़ा जिसकी बिना पर एक बार फिर प्रोटेस्ट्स का सिलसिला शुरू हो गया। जावेद साहब को काफी अरसे तक जेल में रहना पढ़ा।  जेल से वापसी के बाद जावेद साहब ने तय किया की क़ानूनी जंग लड़ी जाए।  इस फैसले के बाद अली कांग्रेस ने किसी क़िस्म का प्रोटेस्ट नहीं किया। रफ्ता रफ्ता अली कांग्रेस ने दूसरे इश्यूज पर अपनी तवज्जो मर्कूज़ कर दी जिसकी वजह से क़ौम में काफी इख्तेलाफ़ात पैदा हो गए। धीरे धीरे अली कांग्रेस के ज़्यादातर ओरिजिनल मेंबर्स, बा शमूल; मुअलना कल्बे जावद साहब उससे दूर होते चले गए।

अप्रैल 1997, में 3 शिया नौजवानो ने खुद को आग लगा दी जिसने  अज़ादारी मूवमेंट में एक  बार फिर से नयी रूह फूँक दी। मौलाना कल्बे जावद साहब ने जुलूसों पर  मोहाज़ खोल दिया और मई 1997 में जनाब अब्दुल्लाह बुखारी साहब को लखनऊ बुलाया की वो शिया और सुन्नी के दरमियान सुलह करवाएं। शियों की तमाम लीडरशिप  अब्दुल्लाह बुखारी का बॉयकॉट किया जबकि सुन्नी लीडरशिप ने उनके साथ निहायत बद-तहज़ीबी का मुज़हेरा किया।

3 जून, 1997 को अब्दुल्लाह बुखारी मरहूम, मौलाना क़मर मिनाई मरहूम (सज्जादा नशीन दरगाह शाह मीणा) और मौलाना कल्बे जावद साहब को गिरफ्तार कर लिया गया जिसके बाद पूरी शिया क़ौम सड़कों पर आ गई विधान सभा का अज़ीमुश्शान घेराओ किया गया। फ़ौरन ही सरकार को झुकना पढ़ा और तीनो लीडर्स रिहा कर दिए गए।

9 जून 1997, को मौलाना कल्बे जवाद साहब ने अपने घर पर तमाम अंजुमनों का जलसा किया जिसमे 115 अंजुमनें शरीक हुई। उस जलसे में तय पाया की हुकूमत को अल्टीमेटम दिया जाये की अगर 18 सफर (24 जून) तक पाबन्दी नहीं हठती है तो तमाम शिया, बरोज़ ए चेहलुम (26 जून, 1997) 1 बजे दिन को अपने घरों से निकल कर कर्बला तालकटोरा तक अलम का जुलूस ले जाएंगे। हुकूमत ने बहोत डराया धमकाया लेकिन क़ौम अपने  फैसले पर अटल रही और हुकूमत ने शब ए चेहलुम से कर्फ्यू लगा दिया और पुराने लखनऊ को पुलिस छावनी बना दिया।

एलान के मुताबिक़ चेहलुम के रोज़ मौलाना जावद साहब ठीक 1 बजे अपने घर से पुलिस का घेराओ तोड़ कर निकले। उस वक़्त तक तक़रीबन हर शिया सड़क पर मौजूद था (सिवाए लखनऊ के दूसरे शिया उलेमा और ज़केरिन के जो अपने घरों में घुसे रहे). पुलिस ने ज़बरदस्त लाठी चार्ज किया, आंसू गैस और हवा में गोलियां भी चलाई लेकिन क़ौम को डरा न सके। हज़ारों लोग अलम का जुलूस ले कर कर्बला तालकटोरा पहुंच गए। पुलिस ने हज़ारो मर्दों, औरतों (जिनमे मौलाना कल्बे जवाद साहब के घरवाले भी शामिल थे) को गिरफ्तार करके पुलिस लाइन ले गए। हज़ारों को देर रात छोड़ दिया और कई हज़ार को सीतापुर, उन्नाओ और लखनऊ जेल भेज दिया।

28 जून 1997 की सुबह 4 बजे मौलाना कल्बे जवाद साहब को उनके घर से गिरफ्तार कर लिया गया और उनपर NSA (नेशनल सिक्योरिटी एक्ट) लगा कर ललित पूरी जेल भेज दिया।  मौलाना के गिरफ़्तारी की खबर जंगल में आग की तरह फ़ैल गई और एक बार फिर शिया कर्फ्यू तोड़ कर सड़कों पर आ गए। कई जगह हथगोले और बंदूक की गोलियां भी चलीं। दो दिन बाद मौलाना के भाई और कई अज़ीज़ों को भी गिरफ्तार कर लिया गया और उनको 307 और कई दूसरी सख्त दफा लगाकर TADA के खतरनाक मुजरिमों के साथ लखनऊ जेल में क़ैद कर दिया गया।

अब शिया क़ौम मौलाना को रिहा करवाने  एहतिजाज करने लगे। औरतों ने कमान संभाल ली। उन्होंने हिन्दू औरतों का लिबास पहना और एक अर्थी के साथ गोमती नदी गई और  वहां से बोट पर बैठ कर नदी पार करके DM और CM के घरों के घेराओ कर दिया।

क़ौम की औरतें घरों में बैठे उलेमा  ज़ाकेरिन के घर उनको शर्म दिलाने गई (एक पर तो जूतियां भी फेंकी और चूड़ियाँ पेश की) जिसके बाद एक मौलाना को छोड़ कर सब ने तीसरे दिन अपने को गिरफ़्तारी के लिए पेश किया और लखनऊ जेल में पनाह ली।

दूसरे शहरों और मुल्कों में ज़बरदस्त प्रोटेस्ट्स हुए और एलान हुआ की अगर 7 रबी उल अव्वल तक मौलाना को रिहा नहीं किया तो दूसरे शहर के शिया 8 रबी उल अव्वल को लखनऊ पर धावा बोल देंगे। हुकूमत हार गई और मौलाना कल्बे जवाद साहब व दीगर शिया कैदियों को 8 जुलाई, 1997 को रिहा कर दिया गया।

9 जुलाई, 1997 के तमाम बड़े अखबारात ने हैडलाइन लगाई "हुकूमत ने घुटने टेक दिए, मौलाना कल्बे जवाद रिहा". हुकूमत ने एक हाई लेवल कमिटी नॉमिनेट की और तीन महीने में सोलुशन का वादा किया। हुकूमत ने शिया - सुन्नी लीडर्स से मुज़केरात के बाद एक ट्राई पार्टी एग्रीमेंट साइन करवाया (शिया - सुन्नी - डिस्ट्रिक्ट एडमिनिस्ट्रेशन) जिसके बाद शियों का पहला जुलूस 21 माहे रमज़ान (जनवरी, 1998) के दिन उठा और माशाल्लाह शियो को  9 दिन अपने जुलूस उठाने की इजाज़त मिल गई (1, 7, 8, 9 और 10 मुहर्रम, चेहलुम, 8 रबी उल अव्वल, 19 और 21 माहे रमज़ान).

मौलाना कल्बे जवाद साहब ने अब वक़्फ़ की प्रॉपर्टीज आज़ाद करवाने का बेडा उठाया  बदौलत इमामबाड़ा सिब्तैनाबाद, आलम नगर की 8 बीघा ज़मीन (जहाँ आज शिया कॉलोनी बन गई है और सैकड़ो शिया आबाद है), आसफ़ी मस्जिद के पुश्त की ज़मीन जिस पर LDA ने कब्ज़ा किया था (और जिसकी बिना पर मौलाना पर केस भी दर्ज हुआ था और अभी कुछ दिनों पहले केस वापस लिया गया है)

मौलाना कल्बे जवाद साहब ने दो साल क़ब्ल बहोत से सीनियर उलेमा के साथ मजलिस ए उलेमा ए हिन्द की बुनियाद डाली जो शियों के हुक़ूक़ की बाज़याबी के लिए जद्दो जेहद कर रही है। इस तंज़ीम में भी लखनऊ का कोई भी आलिम ए दीन या ज़ाकिर शामिल नहीं है।

ऊपर लिखे हालात से वाज़ेह हो गया होगा की लखनऊ के तक़रीबन तमाम उलेमा व ज़ाकिरीन हज़रात ने अब तक किसी क़ौमी मसले में न तो मौलाना कल्बे आबिद साहब का साथ दिया, न ही मौलाना कल्बे जवाद साहब का और न ही मजलिस ए उलेमा ए हिन्द का। बल्कि अक्सर ओ बेश्तर तहरीक को कमज़ोर करने की कोशिशें ही करते दिखाई दिए। जबकि मौलाना कल्बे आबिद साहब और मौलाना कल्बे जवाद साहब ने हमेशा उलेमा को साथ आने की दवात दी (मौलाना कल्बे जवाद साहब तो यह भी कहते हैं की  मैं तो छोटा हूँ, सीनियर उलेमा को मुझे खुद हुक्म देना चाहिए और मैं उनके पीछे चलने को तैयार हूँ। )

5 Jan 2015

Taqleed - Ek Aqli Zarurat!

क्या आज के तालीमी दौर में भी तक़लीद एक अक़्ली ज़रूरत है?

इंसान के लिए ये ज़रूरी नहीं की हर वक़्त वह किसी दूसरे आदमी  की पैरवी करे या किसी और के नज़रिये पर हमेशा राज़ी रह कर अपनी ज़िन्दगी बसर करे। इस सिलसिले में हमारे सामने चार क़िस्म के हालात आ सकते है:

१. एक  जाहिल इंसान दूसरे जाहिल इंसान की पैरवी करे
२. एक ज़्यादा पढ़ालिखा इंसान किसी दूसरे काम पढेलिखे इंसान की पैरवी करे
३. एक पढ़ालिखा इंसान किसी जाहिल इंसान की  पैरवी करे
४. एक काम पढ़ालिखा इंसान किसी ज़्यादा पढ़े लिखे इंसान की पैरवी करे

ये बात ज़ाहिर है कि पहले तीन मरहलो को इंसानी अक़्ल पसंद नहीं करती और इनसे हमारा मक़सद हल नहीं होता। जबकि आखरी (4th) पहलु न की सिर्फ अक़्ली लिहाज़ से सही है बल्कि हम अपनी ज़िन्दगी में बहोत सी जगह इस बात को अपनी  ज़िन्दगी में बजा लाते है। जैसे किसी मसले में आलिम से राबता क़ायम करना या फिर किसी डॉक्टर से अपनी सेहत के बारे में मश्विरा लेना, वगैरह।

इसी ज़ैल में अगर किसी इंसान को अपना घर बनाना है तो वह बिल्डर के अपनी ज़रूरत बताता है और फिर बिल्डर के ताबे हो  जाता है। इसी तरह हम डॉक्टर और वकील की भी पैरवी करते है।

ऐसे बहोत सी  मिसाले है जो हम अपनी ज़िन्दगी में किसी दूसरे माहिर की पैरवी करते है। कई बार जानते हुए और बहोत  वक़्त ना जानते हुए। लेकिन कई बार क़ानून हमें यह आदेश देता है की किसी माहिर की सलाह के बग़ैर काम ना करे, मसलन, कोई खतरनाक दवाई लेने के वक़्त किसी माहिर डॉक्टर की सलाह और उसकी पर्ची होना ज़रूरी है।

इसके साथ ही अगर दो इंसानो में या  गिरोह में लड़ाई हो जाए और फैसला नहीं हो रहा हो तो कोर्ट में जज के सामने उसके फैसले की पैरवी करते है।

दिनी मसाइल में तक़लीद भी इसी तरह है: एक इंसान जो दिनी मसाइल में माहिर नहीं है, किसी ऐसे शख्स की ओर रुजू करे / पैरवी करे जो दिनी मसाइल में माहिर है, जिसे मुजतहिद कहते है। और इस सिम्त में ये वाजिब है है की हर वो शख्स जो मुजतहिद नहीं है, उसे किसी मुजतहिद के फतवो के हिसाब से ज़िन्दगी गुज़ारना ज़रूरी है।

यहाँ एक  बात बताना ज़रूरी है कि तक़लीद सिर्फ शरीअत के मसाइल में जायज़ है और हर  इंसान के लिए ज़रूरी है की वो अपने अक़ाएद में खुद अपनी रिसर्च करे और इसे कामिल बनाए। क़ुरआन ने ऐसे लोगो को फटकार लगाई है जो अक़ाएद के मामले में दुसरो की पैरवी:

" और जब उन लोगो से कहा जाता है कि उस चीज़ की ओर आओ जो अल्लाह ने नाज़िल  की है और रसूल की ओर, तो वे कहते है, "हमारे लिए तो वही काफी है, जिस पर हमने अपने बाप दादा को पाया है." क्या यद्यपि उनके बाप दादा कुछ भी न जानते रहे हो और न सीधे राह पर रहे हो?" (५: १०४)

इसका ये मतलब नहीं की इंसान  हमेशा अपने   बाप दादाओ के खिलाफ ही काम करे या अक़ीदा रखे। जबकि क़ुरआन कह रहा है की उनकी आँखे बंद कर के पैरवी न की जाए। इस्लाम सिखाता है कि अक़ाएद की दुनिया में दुसरो के नज़रियात को जांच परख कर सिर्फ उन्ही  बातो को मानना चाहिए जो अक़्ली है।

"ऐ मुहम्मद (स), बशारत दे दो मेरे उन बन्दों को जो सुनते सब की है और बेहतरीन पर अमल करते है।" (३९: १७)

बातो को समेटते हुए ये कहना सही होगा कि अगर इस्लाम की सही मानो में मानना है तो अपने अक़ाएद को खुद अपनी  तरफ से रिसर्च कर के मुहकम करे।  इसके साथ ही दिनी शरीअत पर अपना यक़ीन पक्का करे और इस पर अमल करने के लिए किसी मुजतहिद की तक़लीद करे या फिर इस हद तक दिनी इल्म हासिल करे और तक़वा परहेज़गारी बजा लाए की खुद मुजतहिद बन जाए।

4 Dec 2014

Taqleed - Ummat ki Aham Zimmedari

तक़लीद - उम्मत की अहम ज़िम्मेदारी


हुज्जतुल इस्लाम मौलाना अहमद अली आबेदी साहब के मुंबई खोजा जामा मस्जिद के तारीखी ख़ुत्बे  के बाद उम्मत ए तशय्यो में एक ज़िम्मेदाराना बदलाव देखने में आ रहा है. लोग कई बातो पर इल्मी बहस करते दिखाई दिए और सोशल नेटवर्क साइट्स पर भी एक ज़िम्मेदाराना गुफ्तगू का आग़ाज़ हुआ है।

ज़्यादातर लोग क़ुम के ओलमा की अंजुमन “जामे मुदर्रिसीन” के बारे में इल्म हासिल करने की कोशिश करते दिखे वही पर लोग ओलमा की तरफ से शाया दीनी मरजा की फेहरिस्त पर भी गुफ्तगू करते दिखाई दिए।

अल्लाह के फ़ज़लो करम से मौलाना के ख़ुत्बे ने तक़लीद और मरजईयत को हिंदुस्तान में, ख़ुसूसन मुंबई में, एक नया जोश और रास्ता दिया है।

अभी तक लोग इस बात से ग़ाफ़िल थे कि  हमारे ओलमा इस तरह का इज्तेमाई फैसला भी लेते है और ऐसी कोई ओलमा की अंजुमन भी है जो अवाम के बारे में इतना सोचती है और उसके मुताबिक़ फैसले भी लेती है।

अल्हम्दुलीलाह मौलाना ने अपने ख़ुत्बे  में इस बात को वाज़ेह तौर पर ज़ाहिर कर के लोगो को सोचने और इस सिम्त में आगे बढ़ने का एक नया रास्ता दिया है। इस चीज़ से ख़ुसूसन क़ौम के नौजवान काफी जोश और जज़्बे के साथ इल्मी गुफ्तगू में आगे दिखाई दे रहे है।

एक तरफ जहाँ क़ौम को मरजईयत से दूर ले जाने की कोशिश की जा  रही है और साथ में कई सारे शक  और शुबे नौजवानो के ज़हन में डाले जा रहे है, मसलन:

  • एक मुजतहिद जिसे जामे मुदर्रिसीन ने मरजा का दर्जा दिया है, उसे मुजतहिद न समझना
  • दूसरे मुजतहिद जिन्हे जामे मुदर्रिसीन ने मरजा की फेहरिस्त में शामिल नहीं किया है उनकी तक़लीद करना
  • अगर किसी आम इंसान को समझ नहीं आ रहा है कि आलम कौन है, तो  वह इंसान किसी भी मुजतहिद की तक़लीद करे
  • और बहोत से सवलात

लेकिन अल्लाह के फज़ल से, मौलाना आबेदी ने अपने जुमे के ख़ुत्बे में इन सब बातो को एक बुनियादी बात से रद्द कर दिया कि मरजा कोई भी मुजतहिद नहीं बन सकता, जब तक जामे मुदर्रिसीन उस मुजतहिद को मरजा की फेहरिस्त में शामिल नहीं कर लेती।

अब सवाल ये उठता है कि लोग अपनी मनघडत बातो को दीन का हिस्सा कैसे बना लेते है? और इन गलत फ़हमियों को कैसे दूर किया जाए?

जिस तरह से मौलाना अहमद अली आबेदी साहब ने आगे बढ़ कर क़ौम के दर्द और ज़रूरत को समझा और एक अहम मसला लोगो के सामने पेश किया, ओलमा को चाहिए कि वो भी इसी तरह अवामुन्नास के ज़रूरी मसाइल को समझ कर खुलके बात करे।

हालांके मौलाना आबेदी साहब ने अपने ख़ुत्बे के आखरी हिस्से में चंद  दीगर मुजतहिद के नाम भी लिए थे, जो की क़ाबिले एहतेराम मुजतहिद और ओलमा है, लेकिन जामे मुदर्रिसीन ने उन्हें मरजा की फेहरिस्त में शामिल नहीं किया है।

ये आज अहम चीज़ है की हम इस मसले की अहमियत को समझे और बारीकी से इसका मुतालेआ करे कि क्या किसी ग़ैर मुजतहिद को ये हक़ बनता है कि वो मरजा का अपने मन से ऐलान करे? क्या किसी राह चलते आम आदमी को ये इख्तियार है कि वो जिसे चाहे अपना मरजा मान ले और दुसरो को भी उसे मानने को कहे?

ऐसी कई चीज़े है जो क़ौम को आगे बढ़कर सीखनी होगी और आगे आने वाली नस्लों तक तक़लीद की अज़ीम नेमत पहुचानी  होगी।

एक और मसला आजकल कुछ लोग आम कर रहे है वो ये है कि ऐसे मुजतहिद की तक़लीद करो जिसके मसले मेरे मन से ज़्यादा मिलते है। मसलन अगर मै चाहता हु कि बैंक का सुद (interest) इस्तेमाल करू और फ़र्ज़ करे की आलम उसे हराम जानता है, तो मै किसी ऐसे मुजतहिद को तलाश करू जो उसे जायज़ जाने और फिर मै उसकी तक़लीद करू। ये हरकत बिलकुल गलत है और असलन फिकरे मरजईयत के खिलाफ है।

अस्ल में हमें चाहिए कि आलम को तलाश करे और उसके मसाइल के हिसाब से अपनी ज़िन्दगी बसर करे।

अल्लाह का करम और अहसान है की उसने हमें ज़िम्मेदार और बबसीरत ओलमा से नवाज़ा है जो क़ौम की ज़रूरत समझ कर मसाइल को पेश करते है।

अल्लाह हमें अपने  ओलमा की पैरवी करने की तौफ़ीक़ अता करे और हमारे मुज्तहेदीन ओ ओलमा की हमेशा हिफाज़त करे।

इलाही आमीन

3 Dec 2014

Marja-e-Taqleed aur Zaruri Malumaat



मरजा ए तक़लीद और ज़रूरी मालूमात 


जैसा के हम सब जानते है के आज कल हिंदुस्तान के शिओ में तक़लीद को  ले कर काफी सारी फ़िक्रे उभर रही है, इस को हल करने की कोशिश आली जनाब हुज्जतुल इस्लाम मौलाना सय्यद अहमद अली आबेदी साहब ने अपने पिछले हफ्ते (28/11/2014)  खोजा मस्जिद, डोंगरी, मुंबई के जुमे के ख़ुत्बे में की. 

मौलाना आबेदी ने अपने ख़िताब का आग़ाज़ में लोगो को ईरान के शहर, क़ुम में मौजूद बुज़ुर्ग ओलमा की अंजुमन, “जामा ए मुदर्रिसीन”, से आश्ना कराया और इस बात पर ज़ोर दिया की ये रस्ते पर चलने वाले लोगो की नहीं बल्कि हक़ीक़तन बुज़ुर्ग ओलमा की जमाअत है. 
मौलाना आबेदी साहब के बक़ौल, जामे मुदर्रिसीन क़ुम में मौजूद बुज़ुर्ग ओलमा जिसमे आयतुल्लाह मकरेम शिराज़ी, आयतुल्लाह सफी गुलपैगानी, आयतुल्लाह नूरी हमदानी, आयतुल्लाह ख़ामेनई और  दीगर  मुज्तहेदीन की जमात है. इस जमात का एक अहम काम है कि सारी दुनिया के लिए “आलम” का इन्तेखाब है.


आलमकौन होता है? और क्या हमें उसे जान कर मानना ज़रूरी है?

फ़िक्रे मरजईयत के मुताबिक़ हर शिया के लिए दीनी कामियाबी के तीन राहे हल है:

  1. खुद इज्तिहाद करे और मुजतहिद बने (दिनी पढाई कर के)
  2. एहतियात पर अमल करे (ये काफी मुश्किल अमल है जिसमे हमे सारे बुज़ुर्ग मुजतहिद के फतवो को सामने  रखते हुए सबसे मुश्किल फतवे पर अमल करना होता है)
  3. ऐसे शख्स की तरफ रुजू करे (तक़लीद करे) जो दिनी लिहाज़ से सबसे ज़्यादा  इल्म रखता हो

यहाँ पर हमे इस बात की तरफ ध्यान देने की ज़रूरत है की अवाम कैसे जान सकती  कि सबसे ज़्यादा  इल्म किस आलिम के पास है?

इस सवाल को हल करने के लिए जामे मुदर्रिसीन काम करती है. क़ौम के बुज़ुर्ग ओलमा एक साथ जमा हो कर फैसला करते है कि कौन कौन  मुजतहिद मरजा बनने के दर्जे पर फ़ाइज़ होते है.  फिर इन ओलमा के नामो का  अवाम में ऐलान किया जाता है.

जामे मुदर्रिसीन ने जो फेहरिस्त आज अवाम को दी है उनमे इन मुज्तहेदीन के नाम है:

  1. आयतुल्लाह सीस्तानी (द अ)
  2. आयतुल्लाह ख़ामेनई (द अ)
  3. आयतुल्लाह मकारेम शिराज़ी (द अ)
  4. आयतुल्लाह नूरी हमदानी (द अ)
  5. आयतुल्लाह ज़न्जानी (द अ)
  6. आयतुल्लाह साफी गुलपैगानी (द अ)
  7. आयतुल्लाह वहीद खोरासानी (द अ)

इस फेहरिस्त को तैयार करते वक़्त बहोत सारे मुज्तहेदीन के नामो पर गौरोफिक्र की जाती  है और काफी बहसों तज़्कीरे के बाद फैसला लिया जाता है; ताकि शिया क़ौम अपने “आलम” को पहचान कर सही शख्स की तक़लीद कर सके.

यहाँ एक और सवाल उठता है, क्या हम इस फेहरिस्त से हट कर किसी और की तक़लीद कर सकते है?

ये सवाल करने से पहले हमे सोचना चाहिए कि जिस शख्स को हम तक़लीद के लायक समझते है उनका नाम भी जामे मुदर्रिसीन के पास गया होगा जिस पर बहसों तज़्कीरे के बाद उसे रद्द किया गया हो. जामे मुदर्रिसीन किसी अहल को उस मक़ाम पर पहुचने से नहीं रोकती इसलिए हमें चाहिए कि  हम इस ओलमा की जमात  (जामे मुदर्रिसीन) पर अपना भरोसा क़ायम रखे और इनके दिए हुए मराजेइन की फेहरिस्त में से किसी मरजा की तक़लीद करे.

अगर हमारे पास किसी और मुजतहिद की जानकारी और हम समझते है की वो मरजा होने के लायक है तो ये हमारा फ़रीज़ा है कि इसकी इत्तेला हम जामे मुदर्रिसीन को दे और ये साबित करे कि उस मुजतहिद का इल्मी  मेयार काफी बुलंद है; जो जामे की नज़रो से छुपा रह गया; जिसके बाद जामे  मुदर्रिसीन उस नाम पर फिर से गौरोफिक्र कर सकती है. अपने मन से किसी  मुजतहिद का इंतेखाब करके जामे ओलमा की दी हुई फेहरिस्त को नज़रअंदाज़ करना गलत काम होगा.

इसके साथ ही मौलाना आबेदी ने एक अहम पहलु की तरफ भी हमे आगाह कराया की अगर  किसी मसले में हमारा मरजा कोई फतवा  सादिर नहीं करता है, तो इस जगह हम किसी भी मुजतहिद  की बात नहीं मान सकते; बल्कि जिन मुज्तहेदीन की फेहरिस्त जामे मुदर्रिसीन ने दी उन्ही में से किसी / दूसरे दर्जे के मुजतहिद की बात पर अमल करना ज़रूरी होगा।

अल्लाह हम सब को इन ज़रूरी बातो पर अमल करने की तौफ़ीक़ अता करे ताकि हमारा ज़रूरी अमल  “तक़लीद” अच्छी तरह से मुकम्मल हो सके.

अल्लाह पूरी शिया क़ौम को अपने बुज़ुर्ग ओलमा ए दीन पर मुकम्मल भरोसा   करने की और उनके दीनी फरमान पर अमल करने की तौफ़ीक़ अता फर्माए.

अल्लाह हमें एक बनकर उसके दीन पर मुकम्मल तौर पर अमल पैरा होने की ताक़त और क़ूवत दे ताकि हम अपने ज़माने की इमाम के  जल्द ज़हूर के लिए काम कर सके.

इन सब का सिला अल्लाह हमें अपने वली-ए-हुज्जत वली-ए-अम्र इमाम महदी (अ) के ज़हूर की शक्ल में अता फर्माए.

Lucknow Shia Ehtijaaj ki Mukhtasar Tarikh Lucknow Shia Ehtijaaj ki Mukhtasar Tarikh

उत्तर प्रदेश, लखनऊ के शियों के एहतेजाज की मुख़्तसर तारीख और उलेमा का इत्तेहाद आज शिया क़ौम का बहोत बड़ा तब्क़ा चाहता है की शिया उलेमा व ज़केरिन ...

Taqleed - Ek Aqli Zarurat! Taqleed - Ek Aqli Zarurat!

क्या आज के तालीमी दौर में भी तक़लीद एक अक़्ली ज़रूरत है? इंसान के लिए ये ज़रूरी नहीं की हर वक़्त वह किसी दूसरे आदमी  की पैरवी करे या किसी और क...

Taqleed - Ummat ki Aham Zimmedari Taqleed - Ummat ki Aham Zimmedari

तक़लीद - उम्मत की अहम ज़िम्मेदारी हुज्जतुल इस्लाम मौलाना अहमद अली आबेदी साहब के मुंबई खोजा जामा मस्जिद के तारीखी ख़ुत्बे  के बाद उम्मत...

Marja-e-Taqleed aur Zaruri Malumaat Marja-e-Taqleed aur Zaruri Malumaat

मरजा ए तक़लीद और ज़रूरी मालूमात   जैसा के हम सब जानते है के आज कल हिंदुस्तान के शिओ में तक़लीद को  ले कर काफी सारी फ़िक्रे उभर रही ...

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