13 Dec 2016

कौम की हालत: मीडिया से करीब - ओलेमा से दूर

हर कौम का फ्यूचर इस बात पर डिपेंड करता है कि समाज के लोगो की सोचने की ताक़त कैसी है. 

  • क्या लोग सही डायरेक्शन में समझ रहे है? क्या लोग सही चीज़ सोच रहे है? 
  • क्या लोग constructive चीज़े सोचे रहे है या लढाई झगडे में लगे हुए है? 
अगर सोच destructive है तो कौम का फ्यूचर डार्क रहेगा और आगे बढ़ने की जगह कौम पीछे की तरफ जाएगी. लेकिन अगर कौम के लोग सही डायरेक्शन में सोच रहे है तो फ्यूचर रोशन रहेगा और आने वाली नस्ल दुनियावी और मानवी तरक्की करेगी.

आइये हम आज हिंदुस्तान में अपने हालात पर ध्यान दे.


हिंदुस्तान एक ऐसी जगह है जहाँ पर हर किस्म की फ़िक्र के लोग रहते है और नौजवान अपनी ज़िन्दगी में तरह तरह के लोगो से मिलते है; हिंमे ज़्यादातर नॉन मुस्लिम रहते है. हिंदुस्तान में मीडिया अपनी पूरी ताक़त लगा कर काम कर रहा है. बेहूदगी और उर्यानियत (Nudity) आज अपने उरूज पर है. जा जानते हुए भी लोगो को ऐसी ऐसी चीज़े सिखाई जा रही है जो हम कभी सीखना नहीं चाहते. ऐसे में नौजवान अपने आप को कैसे संभाले ये एक बड़ा सवाल बन गया है.

एक मज़हबी नौजवान को अपने आप पर काबू रखते हुए सीधे राह पर बाकी रहना कुछ हद तक मुमकिन है; लेकिन अगर कोई नौजवान दीन से दूर है तो उसके लिए गुनाह का मैदान पूरी तरह खुला है.

दीनदार बनने के लिए हमारे पास अहलेबैत (अ) की बताई हुई एक नेमत है जिसे हम मजलिस कहते है; जिसमे हमारे मोहतरम ओलेमा-ए-किराम मिम्बर पर जा कर हमे सही तरीके से ज़िन्दगी जीने का रास्ता बताते है.

कुछ ज़ाकेरिन ने मिम्बरो का सौदा इस चीज़ से कर लिया की लोगो को ज़रूरत की चीज़े ना बता कर उनकी वाह वाही हासिल करे जिसके बदले में उन्हें मुह मांगी रकम मिलती है. लेकिन कुछ ओलेमा ने अपना दीनी फ़रीज़ा समझते हुए कौम तक उसके फ़रीज़ और कामो को पहुचना ज़रूरी समझा और दीन की अस्ल माने में नुसरत की.

लेकिन पिछले दिनों खोजा जमात मुंबई के उस फैसले ने जिसमे जमात ने बीना कुछ सोचे समझे अपने जाती फाएदे के लिए चार (4) अहम् तरीन ओलेमा-ए-हिंदुस्तान पर पाबन्दी लगा दी; इससे कौम और खुससन नौजवानों का बहोत भरी नुकसान हुआ.

याद रहे, यह वही ओलेमा है जो नौजवानों को ज़रूरत के मुताबिक ट्रेनिंग, तरबियत और कंटेंट प्रोवाइड करते थे. ना की जमात के ट्रस्टीज और ओहदे दारों के आगे पीछे घूमते थे.

आज के दौर में जब नौजवान वैसे ही ओलेमाओ से बहोत दूर है इस तरह की पाबंदिया लाना अपने आप में एक अफसोसनाक अमल है. जमात को चाहिए की अपनी आखे खोल कर देखे और नौजवानों के हक को समझते हुए ऐसा माहोल बनाए जिससे नौजवान ओलेमाओ से नजदीक हो; ना की खुद ओलेमा पर ही पाबंदिया लगा दी जाए.

तहरीर: अब्बास हिंदी


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हर कौम का फ्यूचर इस बात पर डिपेंड करता है कि समाज के लोगो की सोचने की ताक़त कैसी है. 

  • क्या लोग सही डायरेक्शन में समझ रहे है? क्या लोग सही चीज़ सोच रहे है? 
  • क्या लोग constructive चीज़े सोचे रहे है या लढाई झगडे में लगे हुए है? 
अगर सोच destructive है तो कौम का फ्यूचर डार्क रहेगा और आगे बढ़ने की जगह कौम पीछे की तरफ जाएगी. लेकिन अगर कौम के लोग सही डायरेक्शन में सोच रहे है तो फ्यूचर रोशन रहेगा और आने वाली नस्ल दुनियावी और मानवी तरक्की करेगी.

आइये हम आज हिंदुस्तान में अपने हालात पर ध्यान दे.


हिंदुस्तान एक ऐसी जगह है जहाँ पर हर किस्म की फ़िक्र के लोग रहते है और नौजवान अपनी ज़िन्दगी में तरह तरह के लोगो से मिलते है; हिंमे ज़्यादातर नॉन मुस्लिम रहते है. हिंदुस्तान में मीडिया अपनी पूरी ताक़त लगा कर काम कर रहा है. बेहूदगी और उर्यानियत (Nudity) आज अपने उरूज पर है. जा जानते हुए भी लोगो को ऐसी ऐसी चीज़े सिखाई जा रही है जो हम कभी सीखना नहीं चाहते. ऐसे में नौजवान अपने आप को कैसे संभाले ये एक बड़ा सवाल बन गया है.

एक मज़हबी नौजवान को अपने आप पर काबू रखते हुए सीधे राह पर बाकी रहना कुछ हद तक मुमकिन है; लेकिन अगर कोई नौजवान दीन से दूर है तो उसके लिए गुनाह का मैदान पूरी तरह खुला है.

दीनदार बनने के लिए हमारे पास अहलेबैत (अ) की बताई हुई एक नेमत है जिसे हम मजलिस कहते है; जिसमे हमारे मोहतरम ओलेमा-ए-किराम मिम्बर पर जा कर हमे सही तरीके से ज़िन्दगी जीने का रास्ता बताते है.

कुछ ज़ाकेरिन ने मिम्बरो का सौदा इस चीज़ से कर लिया की लोगो को ज़रूरत की चीज़े ना बता कर उनकी वाह वाही हासिल करे जिसके बदले में उन्हें मुह मांगी रकम मिलती है. लेकिन कुछ ओलेमा ने अपना दीनी फ़रीज़ा समझते हुए कौम तक उसके फ़रीज़ और कामो को पहुचना ज़रूरी समझा और दीन की अस्ल माने में नुसरत की.

लेकिन पिछले दिनों खोजा जमात मुंबई के उस फैसले ने जिसमे जमात ने बीना कुछ सोचे समझे अपने जाती फाएदे के लिए चार (4) अहम् तरीन ओलेमा-ए-हिंदुस्तान पर पाबन्दी लगा दी; इससे कौम और खुससन नौजवानों का बहोत भरी नुकसान हुआ.

याद रहे, यह वही ओलेमा है जो नौजवानों को ज़रूरत के मुताबिक ट्रेनिंग, तरबियत और कंटेंट प्रोवाइड करते थे. ना की जमात के ट्रस्टीज और ओहदे दारों के आगे पीछे घूमते थे.

आज के दौर में जब नौजवान वैसे ही ओलेमाओ से बहोत दूर है इस तरह की पाबंदिया लाना अपने आप में एक अफसोसनाक अमल है. जमात को चाहिए की अपनी आखे खोल कर देखे और नौजवानों के हक को समझते हुए ऐसा माहोल बनाए जिससे नौजवान ओलेमाओ से नजदीक हो; ना की खुद ओलेमा पर ही पाबंदिया लगा दी जाए.

तहरीर: अब्बास हिंदी


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