माहे रजब और शाबान की आमद हमारे लिए खुशियों का बाईस होते
है जिसमे हम अपने इमामो और अवलिया की विलादत का जश्न मानते और उनसे करीब होने की
कोशिश करते है. इस मकसद को पूरा करने के लिए मोमेनीन अलग अलग किस्म के तरीके
अपनाते है जिससे सवाब भी मिले और मोमेनीन आपस में एक दुसरे के करीब भी आए ताकि
पूरी कौम खुदा के करीब हो सके.
कुछ लोग इमाम सादिक (अ) के नाम पर कुंडे की नज़रों नियाज़ का
एहतेमाम करते है, तो कुछ इन मुबारक महीनो की शबे
जुमा में दुआ का खास प्रोग्राम रखते है; कुछ लोग आइम्मः (अ) से मंसूब जश्न करते है जिनमे आइम्मा (अ) की शान में कसीदे
पढ़े जाते है और कुछ लोग ग़रीबो को खाना खिलाते और खैरात करते है. इन सब का मकसद
आइम्मा (अ) की ज़ात से कुरबत है जो हमें अल्लाह के करीब ले जाती है; और अगर इस कुरबत का एक हिस्सा भी हमें नसीब हो जाए तो हम
अपनी ज़िन्दगी में आइम्मा (अ) की सीरत पर चलने के लिए आमादा हो जाते है, जो हमें इस दुनिया और आखिरत में कमियाबी दिलाने में सबसे
कारगर चीज़ है.
इसी सिलसिले में पिछले दिनों एक महफ़िल, जो आइम्मा (अ) की शान में राखी गई थी, उसमे जाने की सआदत नसीब हुई. चूँकि महफ़िल आइम्मा (अ) के
नामे से रखी गई थी, ज़ेहन में था की आइम्मा (अ) के
सिलसिले में कसीदे और कलाम पेश किये जाएगे. लेकिन जैसे ही शोअरा ने अपने कलाम पेश
किये, वो या तो किसी दुसरे मसलक वालो
पर लानत मलामत कर रहे थे या खुद अपने भाईयों पर, जिनसे किसी क़िस्म का नज़री इख्तिलाफ है, उनपर तंज़ करते दिखाई दिए. अगर कोई शाएर इन तंजिया शेर से हटकर कोई और अशआर पढ़
देता तो इतनी दाद / वाह-वाही नहीं मिलती जितनी तंजिया शेरो पर मिल रही होती.
इस वकेये को बताने का मकसद यह है कि हमें अहसास हो के हमारी
कौम किस रास्ते पर जा रही है? क्या दीन हमें यह सिखाता है कि
हम अपनी मजलिसो महफ़िल में दुसरो की ग़ैर मौजूदगी में उन पर लानतान करे और तंज़ करके
वाहवाही बटोरे? किस आइम्मा (अ) ने इस तरह की
महफ़िल का एहतेमाम किया?
इसके बरखिलाफ हमें आइम्मा (अ) की सीरत से दीन का दूसरा
चेहरा दिखाई देता है; और वो है रहमदिली और भाईचारे
का. आइम्मा (अ) दीगर मज़हब ओ मसलक के लोगो के लिए खुसूसी दर्स रखते थे और उन्हें
मज़हबी और समाजी बातो की चीज़ें बताते थे. कभी किसी आइम्मा (अ) ने किसी दुसरे मज़हब
वालो (इसाई, यहूदी, पारसी, वगैरह) या किसी दुसरे मसलक वालो
(सुन्नी, बोहरी, इस्माइली, वगैरह) को तंज़ या उसकी ग़ैर
मौजूदगी में उसके खिलाफ ऐसे लहजे में बात नहीं की जो अगर वो सामने मौजूद होता तो
उसे बुरी लगती.
अगर हममे दुसरे मज़हबो मसलक के लोगो को शिअत की तरफ लाने की
अस्ल तड़प मौजूद है तो फिर उसके साथ बैठ कर एक दोस्ताना माहोल में बात हो. अगर वो
बहस ओ मुबहेसे के लिए हमें बुलाता है तो फिर हमें उसके लिए भी तैयार रहना चाहिए. न
खैर की हम सीधे लानत मलामत करके अपना दामन झाड ले.
आए दिन व्हाट्स आप पर जॉब्स / नौकरी के लिए भी मेसेज आते है; और हमारे भाई उसमे भी लिखते है की सिर्फ “मोमेनीन” को फॉरवर्ड करे. ये किस किस्म की अहमकाना हरकत है? क्या इस्लाम ने दुसरे मज़हबो मसलक के लोगो के साथ इस तरह
जीने का तरीका सिखाया है? क्या हमने नहीं पढ़ा या मजलिसो
में सुना की एक शामी शख्स इमाम हसन (अ) की खिदमत में हाज़िर
हो कर उन्हें बुरा भला कहने लगा; इमाम (अ) ने उस पर ना ही लानत
मलामत की ना उसके वालेदैन पर तोहमत लगाई; बल्की इमाम (अ) ने उस से अच्छे लहजे में उसकी परेशानिया पूछी और उसके साथ
अच्छा बर्ताव किया; जिसका असर ये हुआ की वो इमाम
(अ) के चाहने वालो में से हो गया.
यहाँ पर हमें देखना होगा की कैसे और कब से हमारी कौम इस
रास्ते पर चल पड़ी हैं? दस साल पहले ऐसे हालात नहीं थे.
और ना ही कौम में इतना फिर्क़रापस्ती थी. जश्न और महाफिलों में आइम्मा (अ) की सना
और तारीफ की जाती थी, ना की दूसरी कौमो को बुरा भला
कहा जाता था.
अगर हमारे बुज़ुर्ग मराजे को देखा जाए तो वो भी दूसरी कौमो
के साथ मिल कर रहने के लिए कहते है और उनके मुक़द्देसात की तौहीन से मना करते है.
अगर मकामी उलेमा से कांटेक्ट करे तो वो भी दूसरी कौमो के साथ मिल-जुल कर रहने को
तरजीह देते है और बुरा भला कहने से मना करते है. बहोत से उलेमा तो अहले सुन्नत
उलेमा के साथ उनकी तंजीमो में प्रेसिडेंट और सेक्रेटरी की हैसियत भी रखते है. फिर
सवाल ये उठता है की कौम क्यों इस लड़ाई झगडे के फितने में पड़ रही है?
करीब से देखने पर पता चलता हैं की कुछ लोग ज़ईफ़ और कमज़ोर
हदीसे ला कर अवाम में आम कर रहे है जो फिरका परस्ती की तरफ जोर देती है. इस किस्म
की हदीसे सोशल मीडिया और घरों में होने वाली क्लास्सेस के ज़रिये
अवाम में फैलाई जा रही है जो की आइम्मा (अ) और हमारे ओलेमा की सीरत के सख्त खिलाफ
है.
इतना ही नहीं, एक फिक्ही सवाल जवाब के सेशन में एक अमामे वाले मौलाना से जब सवाल किया गया की
क्या हम ग़ैर मुस्लिम को ब्लड डोनेट कर सकते हैं या नहीं? उन्होंने जवाब दिया की बिलकुल नहीं कर सकते.
जब अवाम ने एतेराज़ जताया की एक इंसान हमारे सामने मर रहा है तो किस तरह उसे मरने
दे? क्या इस्लाम इसकी इजाज़त देता है? क्या हमारे सामने ऐसे वाकेआत नहीं है जिसमे आइम्मा (अ) ने
मरते हुए लोगो को पानी पिला कर उनकी जान बचाई है? इन सब सवालो के बाद वो मौलाना ने अपना रुख थोडा बदला और कहा की इस नियत से
ब्लड दे की ये किसी मोमिन की जान बचाने के काम में आएगा.
जब ज़ाकेरिन इस तरह की बाते अवाम में कर रहे है और अपनी मजलिसो
को फिरका परस्ती का जरिया बना रहे है जिसमे दुनिया में हो रहे क़त्लो गारत का
ज़िम्मेदार आम सुन्नी को ठहराते है, क्या ये सही है? आखिर सुन्नी के खिलाफ नफरत भरने
में इनका क्या मकसद है? क्या ये नहीं चाहते की हम किसी
मुस्लिम मोहल्ले में रहे या किसी मुस्लिम होटल में जा कर खाना खाए? ऐसा क्यों होता है की यही ज़ाकिर को जब बाहर खाना खाना होता
है तो उसी सुन्नी की होटल की तलाश करता है जिसे थोड़ी देर पहले अपनी मजलिस में बुरा
भला कह रहा था.
आज ये हमारी कौम के ज़िम्मेदार बुजुर्गो और ओलेमाओ का फ़रीज़ा
है की जवानों का ख्याल रखते हुए कुछ ठोस क़दम उठाए ताकि इस तरह की फिरका परस्ती कौम
में आम ना होने पाए. जश्न और महाफिल में आइम्मा (अ) की मोहब्बत पर बात हो ना की
दूसरी कौमो पर लानत मलामत. और हमारी मजलिसे भी ऐसे एबो से पाक ओ पाकीज़ा रहे.
आइम्मा (अ) और बुज़ुर्ग उलेमा की सीरत पाक दामनी और भाई चारे वाली सीरत है, न की फिरका परस्ती की सीरत.
हमारे पांचवे और छ्टे इमामो (अ) के मदरसों में शियों से
ज्यादा अहले सुन्नत और ग़ैर मुस्लिम बैठते थे. सुन्नियो के सबसे बड़े मुजतहिद अबू
हनीफा, इमाम शाफ’ई और इमाम मालिक हमारे इमामो (अ)
के शागिर्द रह चुके है. क्यों हमारे इमामो (अ) ने इन्हें अपने दरसो से बाहर नहीं
किया और इन्हें अपना इल्म लेने दिया? इमाम (अ) चाहते तो इन्हें तंज़ और लानत कर के बाहर कर सकते थे, लेकिन इमाम (अ) ने ऐसा नहीं किया. यही सीरत हमें भी अपनानी
होगी.
हमें चाहिए की आइम्मा (अ) और उलेमा की सीरत पर चलते हुए हक
और अम्न का रास्ता अपनाए न की फिरका परस्ती और फितना वारीयत का. अल्लाह से दुआ
करते है की हमारी कौम के हर एक फर्द को सीरत ए आइम्मा (अ) पर चलने की तौफीक अता
करे और अम्न का माहोल हर तरफ मुहैय्या करे.
इलाही अमीन
तहरीर: अब्बास हिंदी