Showing posts with label इस्लाम. Show all posts
Showing posts with label इस्लाम. Show all posts

4 Oct 2015

ईद-ए-ग़दीर क्या है?


18 ज़िल्हज्ज की तारीख आते ही “ईद-ए-ग़दीर मुबारक” के मेसेज व्हाट्स अप पर आने लगते है; लेकिन इन मेसेज में ईद के बारे में कम और किसी दूसरी कौम / बिरादरी पर तंज़ ज्यादा नज़र आते है. क्या ईद-ए-ग़दीर की यही हकीक़त है की हम दुसरो पर अपने बढ़ावे को साबित करे या दुसरो को जहन्नुमी बता कर उन पर तंज़ कसे. क्या यही ग़दीर की हकीक़त है?

इसी सवाल के जवाब में जब मैंने ग़दीर के रोज़ के रसूले अकरम (स) के खुतबे पर नज़र की तो ऐसा कुछ नहीं मिला जिसमे हुजुर (स) ने दुसरो पर तंज़ कसा हो या किसी कौम का मज़ाक उड़ाया हो. बल्कि इसके उलट रसुलेखुदा (स) के दिल के अन्दर का लोगो का प्यार नज़र आया; जिसकी वजह से वो किसी भी चीज़ की परवाह किये बगैर अल्लाह का पैग़ाम लोगो तक पहुचने में जल्दी करते नज़र आए ताकि पैग़ामे खुदा लोगो तक पहुचे जिससे उन्हें राहे हक मिल जाए.

23 Jul 2015

जन्नतुल बकी की पामाली पर मुज्ताहेदीन के बयानात


अयातुल्लाह खामेनेई का बयान

बड़े अफ़सोस की बात है की आज मुसलमानों और इस्लामी उम्मत के बिच कुछ ऐसी दकियानूसी, अन्धविश्वासी और तकफिरी फ़िक्र रखने वाले मौजूद है जो समझते है की इस्लाम के शुरुवाती दौर के बुज़ुर्ग शक्सियातो का अदब और एहतेराम करना एक बेदीनी हरकत और शिर्क है. यह फ़िक्र अस्ल में एक आफत है. इन्ही लोगो के बाप दादाओ ने जन्नतुल बाकी में आइम्मा (अ) और दीगर बुज़ुर्ग शक्सियातो के मजारो को मिस्मार किया था.

अगर जन्नतुल बाकी में आइम्मा-ए-तहिरिन (अ) की कब्र-ए-मुबारक को पामाल करने वालो की आलमी सतह पर उम्मत-ए-मुस्लिमा की तरफ से मुखालिफत ना हुई होती, तो उन्होंने नबी-ए-अकरम (स) की मुक़द्दस कब्र को भी पूरी तरह बरबाद कर दिया होता. ज़रा गौर करे की इनके दिमाग में कैसे खयालात है और किस तरह की शैतानी फुतुर है. इन लोगो में कितनी बग़ावत है वो देखे. यह लोग इस्लाम के मुक़द्दस शक्सियात की ताज़ीम करने के अवाम के हुकूक को गज़ब करना चाहते है, इस हद तक की वो इसे लोगो पर हरम कह कर मुसल्लत कर रहे है.

ऐसा करने के पीछे वह अपना मंतिक (लॉजिक) बताते है की मुक़द्दस शक्सियात की ताज़ीम करना, उनकी इबादत करने के जैसा है. क्या किसी फर्द की कब्र पर एक रूहानी माहोल में जाना और वह जा कर अल्लाह (सु.व.ता.) से उस फर्द पर रहमत नाजिल करने की दुआ करना और खुद अपने आप के लिए दुआ मांगना शिर्क है?

अस्ल शिर्क तो इंग्लैंड और अमेरीका की इंटेलिजेंस सर्विसेज की घुलमि करना और उनका पिट्टू बनना और मुसलमानों के दिलो को दुखाना है.

यह लोग आज दुनिया के ज़ालिम और जाबिर हुक्मरानों के ऑर्डर्स को मानने, उनकी ताज़ीम करने और उनके सामने झुकने को शिर्क नहीं समझते; लेकिन येही लोग इस्लाम के मुक़द्दस शक्सियात के ताज़ीम करने को शिर्क जानते है. यह सबसे बड़ी आफत है.

आज दुनिया-ए-इस्लाम के लिए बहोत बड़ी आफत येही बातिल और गुस्ताखाना मुहीम है जो दुश्मनों ने अपने रुपयों और रेसौर्सस को इस्तेमाल कर के कड़ी करी है – अफ़सोस के उनके पास रूपये और रेसौर्सस है – और ये एक बहोत बड़ी आफत है.

अयातुल्लाह खामेनेई 05/06/2013
_______________________________________________________________________________________________

 अयातुल्लाह नासिर मकारेम शिराज़ी का बयान

शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा मेहरबान, बड़ा रहम करने वाला है

आज से 88 साल पहले, 8 शव्वाल के रोज़, बेगैरत वहाबियत के नापाक हाथ जन्नतुल बकी के मुक़द्दस कब्रस्तान की जानिब बढे और वहा मौजूद पाक हस्तियों की कब्रे जिनमे अहलेबैत (अ) के साथ साथ रसूल-ए-अकरम (स) के बुज़ुर्ग सहबा और रिश्तेदार शामिल है, को मुन्हदिम कर के सिवाए मिटटी के ढेर के कुछ बाकी नहीं रखा. इस हादसे ने दुनिया भर के मुसलमानों के दिलो को शदीद ठेस पहुचाई, खास कर उन शिया और सुन्नियो को, जो अह्लेबैते रसूल (स) से मुहब्बत करते है.

वहाबियत ने अपने बेबुनियाद ख़यालात की बिना पर न सिर्फ मासूम इमामो की क़ब्रो को मुन्हदिम किया, बल्कि मक्का और मदीना में मौजूद तारीखी चीजों और इमारतों को भी निस्तोनाबूद कर दिया, जो न सिर्फ इस्लामी तहज़ीब की निशानिया थी बलकी दुनिया के तमाम मुसलमानों के तारीखी जौहर भी थे.

एक तरफ जहाँ दुनिया के सभी मुल्क अपनी तारीखी बीसातो की हिफाज़त की तरफ खास ख्याल रखते है, अपने सक़ाफत और अजदाद की निशानी समझते है; साथ ही इसके पीछे खासा खर्च भी करते है. इतना ही नहीं, अगर कोई नादान इस धरोहर को नुकसान पहुचाने की कोशिश करे तो उसे सख्त सजा भी देते है. वही दूसरी तरफ यह बेगैरत वहाबियो ने इस्लामी तारीख की पहचान को निस्तोनाबूद कर दिया और दुनिया को इस अज़ीम इस्लामी सकाफ़त की निशानी और गौहर से फाएदा उठाने से दूर कर दिया; जिसका नुकसान रहती दुनिया तक पूरा कर पाना नामुमकीन है.

वह लोग सोचते है की ये इस्लामी निशानिया उनकी माली जएदाद है और मक्का – मदीना उनकी सरवत है, इसलिए वह लोग जो चाहे कर सकते है! आज उम्मत-ए-मुस्लिमा को चाहिए की अपनी आवाज़ बुलंद करे ताकि ये सऊदी हुकूमत समझ सके की ये तारीखी निशानियाँ उनकी जएदाद नहीं, बल्कि तमाम उम्मत-ए-मुस्लिमा की मिलकियत है. दुनिया के माज़ी में और मुस्तकबिल में किसी को ये हक नहीं की वो इन्हें अपनी जाती मिलकियत समझे; यहाँ तक की सऊदी अरब के वहाबी मुफ्तियों को भी ये हक नहीं है; जिन्हें इस्लाम के बुनियाद की भी बराबर से खबर नहीं है और न कुरान और सुन्नत की खबर है; इन्हें ये हक नहीं बनता के अपने जाली फतवों के ज़रिये उम्मत-ए-मुस्लिमा की अज़ीम निशानियो को हाथ लगाए.

हम मक्का और मदीना में जारी इस्लामी धरोहर की पामाली की शदीद मज़म्मत करते है; खास तौर पर जन्नतुल बाकी में मौजूद कुबुर-ए-आइम्मा (अ) के मुन्हदिम होने की; और ये उम्मीद करते है की एक दिन ज़रूर दुनिया के मुस्लमान जागेगे और अपने जायज़ हुकूक के लिए आवाज़ उठाने के साथ साथ मस्जिद-अल-हरम और मस्जिद-अन-नबी (स) की ज़िम्मेदारी तमाम इस्लामिक मुल्को के सुपुर्द करने के लिए क़दम बढाएँगे ताकि इन मुक़द्दस मकामात को कट्टर वहाबियो के चुंगल से आज़ाद किया जा सके. हम दुनिया के तमाम मुसलमानों को 8 शव्वाल के रोज़ को जन्नतुल बकी की याद में जिंदा रखने के लिए आवाज़ देते है, ताकि उसकी याद हमारे ज़ेहनो में ताज़ी रहे.

हम उम्मीद करते है की जन्नतुल बकी में मौजूद आइम्मा-ए-तहिरिन (अ) की क़ब्रो को जल्द से जल्द फिर से पहले से बेहतर तरीके से तामीर किया जाएगा, जिस तरह से सामर्रह का हरम वहाबियो के मिस्मार करने के पहले से बेहतर तरीके से जेरे तामीर है; ताकि मुसलमानों के ज़ख़्मी दिलो को तस्कीन मिल सके.

28 May 2015

हम दूसरों से इतनी नफरत करना कैसे सिख गए?

माहे रजब और शाबान की आमद हमारे लिए खुशियों का बाईस होते है जिसमे हम अपने इमामो और अवलिया की विलादत का जश्न मानते और उनसे करीब होने की कोशिश करते है. इस मकसद को पूरा करने के लिए मोमेनीन अलग अलग किस्म के तरीके अपनाते है जिससे सवाब भी मिले और मोमेनीन आपस में एक दुसरे के करीब भी आए ताकि पूरी कौम खुदा के करीब हो सके. 

कुछ लोग इमाम सादिक (अ) के नाम पर कुंडे की नज़रों नियाज़ का एहतेमाम करते है, तो कुछ इन मुबारक महीनो की शबे जुमा में दुआ का खास प्रोग्राम रखते है; कुछ लोग आइम्मः (अ) से मंसूब जश्न करते है जिनमे आइम्मा (अ) की शान में कसीदे पढ़े जाते है और कुछ लोग ग़रीबो को खाना खिलाते और खैरात करते है. इन सब का मकसद आइम्मा (अ) की ज़ात से कुरबत है जो हमें अल्लाह के करीब ले जाती है; और अगर इस कुरबत का एक हिस्सा भी हमें नसीब हो जाए तो हम अपनी ज़िन्दगी में आइम्मा (अ) की सीरत पर चलने के लिए आमादा हो जाते है, जो हमें इस दुनिया और आखिरत में कमियाबी दिलाने में सबसे कारगर चीज़ है.

इसी सिलसिले में पिछले दिनों एक महफ़िल, जो आइम्मा (अ) की शान में राखी गई थी, उसमे जाने की सआदत नसीब हुई. चूँकि महफ़िल आइम्मा (अ) के नामे से रखी गई थी, ज़ेहन में था की आइम्मा (अ) के सिलसिले में कसीदे और कलाम पेश किये जाएगे. लेकिन जैसे ही शोअरा ने अपने कलाम पेश किये, वो या तो किसी दुसरे मसलक वालो पर लानत मलामत कर रहे थे या खुद अपने भाईयों पर, जिनसे किसी क़िस्म का नज़री इख्तिलाफ है, उनपर तंज़ करते दिखाई दिए. अगर कोई शाएर इन तंजिया शेर से हटकर कोई और अशआर पढ़ देता तो इतनी दाद / वाह-वाही नहीं मिलती जितनी तंजिया शेरो पर मिल रही होती.

इस वकेये को बताने का मकसद यह है कि हमें अहसास हो के हमारी कौम किस रास्ते पर जा रही है? क्या दीन हमें यह सिखाता है कि हम अपनी मजलिसो महफ़िल में दुसरो की ग़ैर मौजूदगी में उन पर लानतान करे और तंज़ करके वाहवाही बटोरे? किस आइम्मा (अ) ने इस तरह की महफ़िल का एहतेमाम किया?

इसके बरखिलाफ हमें आइम्मा (अ) की सीरत से दीन का दूसरा चेहरा दिखाई देता है; और वो है रहमदिली और भाईचारे का. आइम्मा (अ) दीगर मज़हब ओ मसलक के लोगो के लिए खुसूसी दर्स रखते थे और उन्हें मज़हबी और समाजी बातो की चीज़ें बताते थे. कभी किसी आइम्मा (अ) ने किसी दुसरे मज़हब वालो (इसाई, यहूदी, पारसी, वगैरह) या किसी दुसरे मसलक वालो (सुन्नी, बोहरी, इस्माइली, वगैरह) को तंज़ या उसकी ग़ैर मौजूदगी में उसके खिलाफ ऐसे लहजे में बात नहीं की जो अगर वो सामने मौजूद होता तो उसे बुरी लगती.

अगर हममे दुसरे मज़हबो मसलक के लोगो को शिअत की तरफ लाने की अस्ल तड़प मौजूद है तो फिर उसके साथ बैठ कर एक दोस्ताना माहोल में बात हो. अगर वो बहस ओ मुबहेसे के लिए हमें बुलाता है तो फिर हमें उसके लिए भी तैयार रहना चाहिए. न खैर की हम सीधे लानत मलामत करके अपना दामन झाड ले.

आए दिन व्हाट्स आप पर जॉब्स / नौकरी के लिए भी मेसेज आते है; और हमारे भाई उसमे भी लिखते है की सिर्फ “मोमेनीनको फॉरवर्ड करे. ये किस किस्म की अहमकाना हरकत है? क्या इस्लाम ने दुसरे मज़हबो मसलक के लोगो के साथ इस तरह जीने का तरीका सिखाया है? क्या हमने नहीं पढ़ा या मजलिसो में सुना की एक शामी शख्स इमाम हसन (अ) की खिदमत में हाज़िर हो कर उन्हें बुरा भला कहने लगा; इमाम (अ) ने उस पर ना ही लानत मलामत की ना उसके वालेदैन पर तोहमत लगाई; बल्की इमाम (अ) ने उस से अच्छे लहजे में उसकी परेशानिया पूछी और उसके साथ अच्छा बर्ताव किया; जिसका असर ये हुआ की वो इमाम (अ) के चाहने वालो में से हो गया.

यहाँ पर हमें देखना होगा की कैसे और कब से हमारी कौम इस रास्ते पर चल पड़ी हैं? दस साल पहले ऐसे हालात नहीं थे. और ना ही कौम में इतना फिर्क़रापस्ती थी. जश्न और महाफिलों में आइम्मा (अ) की सना और तारीफ की जाती थी, ना की दूसरी कौमो को बुरा भला कहा जाता था. 

अगर हमारे बुज़ुर्ग मराजे को देखा जाए तो वो भी दूसरी कौमो के साथ मिल कर रहने के लिए कहते है और उनके मुक़द्देसात की तौहीन से मना करते है. अगर मकामी उलेमा से कांटेक्ट करे तो वो भी दूसरी कौमो के साथ मिल-जुल कर रहने को तरजीह देते है और बुरा भला कहने से मना करते है. बहोत से उलेमा तो अहले सुन्नत उलेमा के साथ उनकी तंजीमो में प्रेसिडेंट और सेक्रेटरी की हैसियत भी रखते है. फिर सवाल ये उठता है की कौम क्यों इस लड़ाई झगडे के फितने में पड़ रही है?

करीब से देखने पर पता चलता हैं की कुछ लोग ज़ईफ़ और कमज़ोर हदीसे ला कर अवाम में आम कर रहे है जो फिरका परस्ती की तरफ जोर देती है. इस किस्म की हदीसे सोशल मीडिया और घरों में होने वाली क्लास्सेस के ज़रिये अवाम में फैलाई जा रही है जो की आइम्मा (अ) और हमारे ओलेमा की सीरत के सख्त खिलाफ है.

इतना ही नहीं, एक फिक्ही सवाल जवाब के सेशन में एक अमामे वाले मौलाना से जब सवाल किया गया की क्या हम ग़ैर मुस्लिम को ब्लड डोनेट कर सकते हैं या नहीं? उन्होंने जवाब दिया की बिलकुल नहीं कर सकते. जब अवाम ने एतेराज़ जताया की एक इंसान हमारे सामने मर रहा है तो किस तरह उसे मरने दे? क्या इस्लाम इसकी इजाज़त देता है? क्या हमारे सामने ऐसे वाकेआत नहीं है जिसमे आइम्मा (अ) ने मरते हुए लोगो को पानी पिला कर उनकी जान बचाई है? इन सब सवालो के बाद वो मौलाना ने अपना रुख थोडा बदला और कहा की इस नियत से ब्लड दे की ये किसी मोमिन की जान बचाने के काम में आएगा. 

जब ज़ाकेरिन इस तरह की बाते अवाम में कर रहे है और अपनी मजलिसो को फिरका परस्ती का जरिया बना रहे है जिसमे दुनिया में हो रहे क़त्लो गारत का ज़िम्मेदार आम सुन्नी को ठहराते है, क्या ये सही है? आखिर सुन्नी के खिलाफ नफरत भरने में इनका क्या मकसद है? क्या ये नहीं चाहते की हम किसी मुस्लिम मोहल्ले में रहे या किसी मुस्लिम होटल में जा कर खाना खाए? ऐसा क्यों होता है की यही ज़ाकिर को जब बाहर खाना खाना होता है तो उसी सुन्नी की होटल की तलाश करता है जिसे थोड़ी देर पहले अपनी मजलिस में बुरा भला कह रहा था.

आज ये हमारी कौम के ज़िम्मेदार बुजुर्गो और ओलेमाओ का फ़रीज़ा है की जवानों का ख्याल रखते हुए कुछ ठोस क़दम उठाए ताकि इस तरह की फिरका परस्ती कौम में आम ना होने पाए. जश्न और महाफिल में आइम्मा (अ) की मोहब्बत पर बात हो ना की दूसरी कौमो पर लानत मलामत. और हमारी मजलिसे भी ऐसे एबो से पाक ओ पाकीज़ा रहे. आइम्मा (अ) और बुज़ुर्ग उलेमा की सीरत पाक दामनी और भाई चारे वाली सीरत है, न की फिरका परस्ती की सीरत. 

हमारे पांचवे और छ्टे इमामो (अ) के मदरसों में शियों से ज्यादा अहले सुन्नत और ग़ैर मुस्लिम बैठते थे. सुन्नियो के सबसे बड़े मुजतहिद अबू हनीफा, इमाम शाफ  और इमाम मालिक हमारे इमामो (अ) के शागिर्द रह चुके है. क्यों हमारे इमामो (अ) ने इन्हें अपने दरसो से बाहर नहीं किया और इन्हें अपना इल्म लेने दिया? इमाम (अ) चाहते तो इन्हें तंज़ और लानत कर के बाहर कर सकते थे, लेकिन इमाम (अ) ने ऐसा नहीं किया. यही सीरत हमें भी अपनानी होगी.

हमें चाहिए की आइम्मा (अ) और उलेमा की सीरत पर चलते हुए हक और अम्न का रास्ता अपनाए न की फिरका परस्ती और फितना वारीयत का. अल्लाह से दुआ करते है की हमारी कौम के हर एक फर्द को सीरत ए आइम्मा (अ) पर चलने की तौफीक अता करे और अम्न का माहोल हर तरफ मुहैय्या करे. 

इलाही अमीन

तहरीर: अब्बास हिंदी

11 May 2015

Sayyad ki Ghair Sayyad se Shadi

“नस्ल और नसब की फजीलत सिर्फ तब है जब इंसान मुत्तकी हो, वरना नहीं!”

अल काफी में इमाम जाफ़र सादिक (अ) फरमाते है के जब रसुलेखुदा (स) ने मक्का फतह किया तो आप कोहे सफा पर तशरीफ़ लाए गए और फ़रमाया:

ऐ बनी हाशिम! ऐ बनी अब्दुल मुत्तलिब, मैं तुम्हारी तरफ अल्लाह का रसूल हूँ, और मैं तुम्हारा शफीक़ और दिल्सोज़ हूँ, मुझे तुम से मुहब्बत है – लिहाज़ा यह मत कहो के मुहम्मद (स) हम से हैं – अल्लाह की क़सम तुम (बनी हाशिम) में से और दीगर (काबिल ओ अक्वाम) में से मुत्तक़ीन के सिवा मेरा कोई दोस्त नहीं हैं.

जान लो; मैं तुम्हें रोज़े महशर नहीं पहचानुगा क्यों की तुम ने दुनिया की मुहब्बत को दोष पर स्वर किया होगा जब के दीगर लोगों ने आखिरत को दोष पर उठाया होगा.

याद रखो! मैंने अपने और तुम्हारे दरमियान, और अल्लाह और तुम्हारे दरमियान किसी किस्म का उज्र और बहाना नहीं छोड़ा – मेरे ज़िम्मे मेरा अमल है और तुम्हारे ज़िम्मे तुम्हारा अमल है.
(Al Kafi vol, 8, pg. 182, sifat us shia, hadith
Rijal ul Hadith: Is hadith k tamam Raavi SIQQA hein.

फवाएद अल हदीस:
इस्लाम ही वो वाहिद मज़हब है जो ज़ात पाक की नफी करते हुए तक्वा ओ परहेज़गारी को फजीलत ओ बरतरी की निशानी कहता है. किसी भी नस्ल को किसी नस्ल पर बरतरी हासिल नहीं है, मेयार खून और नस्ल नहीं बल्कि तक्वा और परहेज़गारी है. मोमिन मोमिन का कुफ़ है (हदीस-ए-रसूल (स)). लिहाज़ा कोई भी मोमिन किसी भी मोमिन से शादी कर सकता है, नस्ली बरतरी और ताफखुर की इस्लाम में कोई जगह नहीं!

सादात (सय्यद)का अह्तेराम उम्मती इस लिए करते हैं क्युकी इन को खानदाने इस्लाम से निस्बत है लेकिन सादात को बिला वजह ग़रूर का इज़हार नहीं करना चाहिए और न दीगर नस्लों को पस्त समझना चाहिए, बलकी इस निस्बत की वजह से इन पर बहोत बड़ी ज़िम्मेदारी आएद होती है. सादात को तक्वा और परहेज़गारी में बाकी सब से अफज़ल होना चाहिए, तब जा कर वो अपने आप को फख्रेयाब सादात कह सकते है.

हज़रत मीसमे तम्मार (र.अ), हज़रत सलमान फारसी (र.अ), हज़रत कंबर (र.अ), हजरत हबीब इब्ने मज़ाहिर (र.अ), बहोत सी अज्वाजे आइम्मः (अ), हजरत मुहम्मद बिन अबुबक्र (र.अ) और बे तहाशा मिसाले हमारे सामने है जो के सादात नहीं थे ना ही हाश्मी थे लेकिन तक्वा की उन मनाज़िल पर थे की खुद को सादात कह कर ग़रूर करने वाले उन के क़दमो की धुल तक के बराबर नहीं!

अब आप हजरात से सवालात ये हैं कि:
1.      क्या कुरान की कोई आयत ऐसी है जिस में हुक्म है के सय्यद का ग़ैर सय्यद से निकाह जायज़ नहीं?
2.      हज़रत अब्दुल मुत्तलिब की बेटी हज़रत जैनब (र.अ) हाश्मी हुई तो उन का निकाह रासुलेखुदा (स) ने अपने गुज़िश्ता ग़ुलाम और ग़ैर सय्यद हज़रत ज़ैद (र.अ) से क्यों करवाया?

(अव्वल तो हाश्मी और औलादे बीबी फातिमा (स) पर खुम्सो ज़कात के अहकामात एक है याने शरफ के लिहाज़ से दोनों एक तो यह मिसाल दी लेकिन अगर फिर भी कोई हाश्मी को सय्यद से अलग करे तो फिर मौला अली (अ) ने बीबी जैनब (अ) का अकड हज़रात अब्दुल्लाह (र.अ) जो के हाश्मी थे उन से क्यों किया?)

सुन्नत तो काएम हो गई कोई आंखे फिर बंद रखना चाहे तो कोई क्या करे?

3.      अब्दुल्लाह इब्ने जफ़र सादिक (अ), इस्माइल इब्ने जफ़र सादिक, जफ़र कज्जाब इब्ने इमाम अली नकी, वगैरह इन सब ने झूठा इमामत का दावा किया और जिन से आहादिस में आइम्माए तहिरिन (अ) ने बेजारी का इज़हार किया, तो क्या यह सय्यद होने की वजह से सुर्खरू हो जाएगे? या आइम्मा (अ) की बेजारी की वजह से पकड़ में आएँगे?

4.      “सलमान हमारे अहलेबैत में से है” – यह एक मशहूर हदीस है. ऐसा क्यूँ है की सय्यद ना होते हुए भी तक्वा के बाईस इस मंजिल पर है के अहलेबैत में शामिल कर लिया गया?

कुरान और हदीस की रौशनी में फतवात:
1.      अयातुल्लाह सिस्तानी सय्यद और ग़ैर सय्यद में निकाह को जायज़ करार देते है और इसे इस्लामी हुदूद में समझते है (Risalah, Book of Nikah, issue #221)

2.      अयातुल्लाह खामेनेई सय्यद और ग़ैर सय्यद में निकाह को जायज़ करार देते है और इसे इस्लामी हुदूद में समझते है (इस्तिफ्ता अयातुल्लाह खामेनेई)

3.      अयातुल्लाह खुई (र.अ): एक आज़ाद औरत का एक ग़ुलाम के साथ निकाह – हाश्मी औरत का ग़ैर हाश्मी से निकाह, एक अरब औरत का ग़ैर अरब से निकाह जायज़ है (Minhaj al-Saliheen (By Sayyid Abul Qasim al-Mousavi al-Khoei), vol. II , Kitab al -Nikah.)

इसके अलावा अयातुल्लाह गुल्पएगानी, अयातुल्लाह फजलुल्लाह, इमाम खोमीनी (र.अ),अयातुल्लाह मकारेम शिराज़ी, अल्लामा हिल्ली (र.अ), अल्लामा राज़ी (र.अ), शेख मुफीद (र.अ), शेख सदूक़ (र.अ), ग़रज़ यह की किसी भी आलिम ने सय्यद की ग़ैर सय्यद के साथ शादी से मन नहीं फ़रमाया है. 

मुखालिफिन की तरफ से दो जवाज़:
1.      इमाम मूसा काजिम (अ) की 18 / 20 बेटियां थी. जहाँ ये बात सच है की इमाम काजिम (अ) की बेटियों की शादियाँ नहीं हुई और शेख कुम्मी (र.अ) की किताब से इक्तेबास लिया जाता है की वहां यह बात सरहन बोहतान और झूट पर मबनी है की उन की शादियाँ इस लिए नहीं हुई क्युकी कोई सय्यद नहीं था; उस किताब में ये लिखा है की उनका कोई कुफ़ नहीं था और याद रहे की मोमिन मोमिन का कुफ़ है न की सय्यद सय्यद का और ग़ैर सय्यद ग़ैर सय्यद का! इस तरह की ग़लत बातें इमाम मूसा काजिम (अ) और इमाम रेज़ा (अ) से जोडने से पहले तारिख का बगौर मुतालिया कर लीजिये.

2.      दूसरी यह हदीस पेश की जाती है जो रसुल्लुल्लाह (स) ने इमाम अली (अ) और हज़रात जाफ़रे तैयार (अ) के बच्चो की तरफ देख कर कही:

“हमारी लड़कियां हमारे लड़कों के लिए है और हमारे लडकें हमारी लड़कियों के लिए” (Man La Yad harul Faqeeh, chapter nikkah, pg. 249)

तो अव्वल यह हदीस पूरी नस्ले सदात के लिए कही नहीं गई और सिर्फ इन खानदान के बीच शादियों के लिए सूरते हाल के मुताबिक कही गई मगर फिर भी कोई बज़िद हो तो क्या मौला अली (अ) ने बाद अज जनाबे फातिमा (स) बीबी उम्मुल बनीं से अकद नहीं किया? क्या इमाम हुसैन (अ) और इमाम हसन (अ) और दीगर आइम्मा (अ) ने ग़ैर सय्यद से शादी नहीं की? क्या नौज़ुबिल्लाह हमारे आइम्मा (अ) ने कौले रसूल (स) पर अमल नहीं किया?

लिहाज़ा किसी के लिए सय्यद होना शरफ की बात तब होंगी जब वो मुत्तकी होगा और जब कोई मुतक्की होता है तो खुदा के यहाँ अफज़ल हो जाता है और जातपात का पाबंद नहीं रहता.
बग़ैर अमल के यह निस्बत रोज़े महशर किसी का फाएदा नहीं दे सकती जैसा के ऊपर हदीस में साफ़ वज़ह है. नबी से निस्बत जोड़ने वाले लोगों का नामे आमाल रोज़े महशर खाली हो और हकूक उन नास की रियाअत भी न करते हो तो यकीनन यह लोग बाईस-ए-शर्मिंदगी बनेंगे लिहाज़ा खुदरा रिश्ते तलाश करते हुए तक्वे को मेयार बनाये न की ज़ात को.

“और बेशक अल्लाह की ज़ात को पाने के लिए अपनी ज़ात से निकलना होता है”

इस मौजु को मजीद जानने के लिए ये विडियो क्लिप ज़रूर देखे:

2 May 2015

विलादते इमाम अली (अ) मुबारक

शबे विलादते इमाम अली (अ) में मैं एक फोरार्ड मेसेज; जो की विलादत की मुबारकबाद पेश करने के लिए था.. अपने व्हाट्स ऍप ग्रुप पर पोस्ट किया। ये सोच कर की इससे विलादत के खुशहाली का हक़ अदा हो जाएगा।

उसके बाद जैसे ही रास्ते पर बहार निकला तो एक बुढा इंसान रास्ता क्रॉस करने की कोशिश कर रहा था लेकिन ट्रैफिक की वजह से नहीं कर पा रहा था। मैंने पहले उसे इग्नोर किया; लेकिन जिसकी विलादत का मेसेज फॉरवर्ड किया था उस शख्सियत की याद आ गई और मैंने उस बुढ़े को रास्ता क्रॉस करने में मदद कर दी।

अगर ध्यान से देखे तो आइम्मा (अ) की विलादत और शहादत के मौके इसलिए भी है की हम आइम्मा (अ) की सीरत को हमेशा अपने सामने रखे और उनके दिखाए रास्ते पर ज़िन्दगी गुज़ारे।

मेसेज फॉरवर्ड करना या किसी को मुबारकबाद देना अस्ल मक़सद नहीं रहा है और न कभी रहेगा। इन पाक और मुक़द्दस दिनों का मक़सद इंसान को अंदर से बदलना है।

ज़ुबान पर मुबारकबादी और दिल में कालीक.. यह  कभी दीन ने नहीं सिखाया। चाहा यह जा रहा है की हम हक़ीक़त वाली ज़िन्दगी जिए। दिल अंदर से पाक हो और उस तालीम को, जिसे आइम्मा (अ) ने हमें सिखाया है उसे अपनी ज़िन्दगी में अपनाए।

विलादत ए वली ए अव्वल, वली ए मुत्तक़ीन, वली ए अम्र, आयात ए मज़हर ए इलाही इमाम अली (अ) आप सब को बहोत बहोत मुबारक हो।

खुदा हम सब को असली पैरव ए इमाम अली (अ) बनाए और हमारे दिलो को अंदर से पाक करे। इस दिल में मज़लूमो के लिए दर्द और जालिमो से नफरत दे और खुद अपनी ज़िन्दगी से ज़ुल्म को बहार करने की तौफ़ीक़ दे।

ईद-ए-ग़दीर क्या है? ईद-ए-ग़दीर क्या है?

18 ज़िल्हज्ज की तारीख आते ही “ईद-ए-ग़दीर मुबारक” के मेसेज व्हाट्स अप पर आने लगते है; लेकिन इन मेसेज में ईद के बारे में कम और किसी ...

जन्नतुल बकी की पामाली पर मुज्ताहेदीन के बयानात जन्नतुल बकी की पामाली पर मुज्ताहेदीन के बयानात

अयातुल्लाह खामेनेई का बयान बड़े अफ़सोस की बात है की आज मुसलमानों और इस्लामी उम्मत के बिच कुछ ऐसी दकियानूसी, अन्धविश्वासी और तकफिरी फ़...

हम दूसरों से इतनी नफरत करना कैसे सिख गए? हम दूसरों से इतनी नफरत करना कैसे सिख गए?

माहे रजब और शाबान की आमद हमारे लिए खुशियों का बाईस होते है जिसमे हम अपने इमामो और अवलिया की विलादत का जश्न मानते और उनसे करीब होने की को...

Sayyad ki Ghair Sayyad se Shadi Sayyad ki Ghair Sayyad se Shadi

“नस्ल और नसब की फजीलत सिर्फ तब है जब इंसान मुत्तकी हो, वरना नहीं!” अल काफी में इमाम जाफ़र सादिक (अ) फरमाते है के जब रसुलेखुदा (स) ने ...

विलादते इमाम अली (अ) मुबारक विलादते इमाम अली (अ) मुबारक

शबे विलादते इमाम अली (अ) में मैं एक फोरार्ड मेसेज; जो की विलादत की मुबारकबाद पेश करने के लिए था.. अपने व्हाट्स ऍप ग्रुप पर पोस्ट किया। ये सो...

Contact Form

Name

Email *

Message *

Comments