24 Apr 2015

Khoja Jamat Elections - Where do we stand?

खोजा शिया इस्ना अशरी जमात के इलेक्शंस में हम कहाँ ठहरते है?


मुंबई में खोजा शिया हज़रात आज कल अपने आपको एक नए माहोल में महसूस कर रहे होंगे। एक तरफ इलेक्शन कम्पैगन्स और दूसरी तरफ सोशल मीडिया / व्हाट्स ऑप पर लंबे लंबे डिबेट्स। देख कर लग रहा है मानो जो भी प्रेसिडेंट बनेगा, ज़रूर खोजा हज़रात के लिए "अच्छे दिन" ले कर आएगा। दोनों पार्टियाँ लोगो को अपने तरफ लुभाने में जुटी हुई हैं। कही मीटिंग्स है, कही खाने, कही होटल्स में तो कही मस्जिद इमामबाड़ों में। ऐसे में आम जनता को अच्छा खाना ज़रूर मिल रहा है।

इन सब  साथ ऐसा पहली बार दिख रहा है की इलेक्शंस में यूथ्स इतना इन्वॉल्व हो रहे है, शायद ये सोशल मीडिया की देन है। वरना अपने इलाक़े में कैंपेन मीटिंग हो तब पता चलता था की इलेक्शंस आ गए है। इनफार्मेशन के इस दौर में कैंडिडेट्स भी यूथ्स को लुभाने की खासी कोशिशे कर रहे है। विज़न डाक्यूमेंट्स से उन्नति प्रोग्राम पॉइंट्स तक, जितनी राग अलापी जा सकती है सभी का बखूबी इस्तेमाल हो रहा हैं। जो की एक अच्छी पहल है। क़ौम को कॉन्फिडेंस में ले कर ट्रांसपेरेंट तौर पर काम करना  पहल है।

लेकिन इन सब के बीच एक दूसरे पर काफी कीचड़ भी उछाला जा रहा है। मौजूदा प्रेजिडेंट और नए कैंडिडेट्स के बीच ही नहीं, बल्कि उनके सपोर्टर्स के बीच भी घमासान है। उम्मीद है, यह इलेक्शन क़ौम में ना-इत्तेफ़ाक़ी और दरार पैदा ना करे। यहाँ क़ौम को समझना पड़ेगा की इलेक्शंस सही कैंडिडेट को कुर्सी पर इसलिए लाने के लिए हो रहे है ताकि वो अच्छा और फायदेमंद काम कर सके। ना की ऐसे कैंडिडेट को लाने के लिए जो मेरा रिश्तेदार है या मुझे पर कोई फेवर किया हुआ है।

इन इलेक्शंस को समझने के लिए पहले देखना होगा की जमात है क्या चीज़? क्या जमात सिर्फ एक सामाजिक (सोशल) बॉडी है, जिसका मज़हब से कोई लेना देना नहीं है? या फिर ये मज़हब को अच्छी तरह से इम्प्लीमेंट करने का एक ज़रिया है? अगर जमात मज़हबी रुख रखती है तो फिर इस पुरे खेल में मज़हब के जानने वाले उलेमा क्यों नज़र नहीं आते? ये एक जायज़ सवाल है जो हर जमात के मेंबर को अपने कैंडिडेट से पूछना चाहिए और इलेक्शंस के बाद कोशिश करनी चाहिए की उलेमा जमात के लेनदेन और इलेक्शन प्रोसेस में शामिल हो।

इसके साथ ही प्रेसिडेंट / वाईस प्रेसिडेंट की पोस्ट जमात के बड़े लोगो को दुसरो के सामने पेश करती है। ऐसे में उन लोगो का मज़हबी बातो को उनकी ज़िन्दगी में लाना बहोत ज़रूरी हैं। मसलन चेहरे पर दाढ़ी रखना। बाते अच्छे लहजे में करना वगैरह। हम यहाँ किसी पोलिटिकल इलेक्शंस की बाते नहीं कर रहे जहा कोई भी कैसे भी किरदार आदमी खड़ा हो सकता है।

ऐसे सूरत में खुद कैंडिडेट्स की कुछ ज़िम्मेदारियाँ है और हम वोटर्स के कुछ हक़ है जो हम अपने कैंडिडेट्स से तलब कर सकते है।

कैंडिडेट्स की ज़िम्मेदारियाँ:

- इलेक्शंस को ईगो पर न ले
- दीन का काम समझकर सबको साथ ले कर चले
- कम से कम जो चीज़ें दिखने पर वाजिब है, जैसे नमाज़ पढ़ना, दाढ़ी रखना, वगैरह इसका ख्याल रखे। नहीं तो दूसरी क़ौमे हम पर तने कसेगी और क़ौम की बदनामी के लिए कैंडिडेट्स ज़िम्मेदार होगे
- अपनी ज़ात से ऊपर उठ कर, पूरी जमात के भले के लिए प्लानिंग करना जिसमे इकनोमिक मज़बूती, मेडिकल, एजुकेशनल, पोलिटिकल, रिलीजियस, डिपार्टमेंट्स शामिल रखे
- जवानो को अपनी टीम में ले कर उन्हें आगे बढ़ने का मौका दे
- क़ौम में ट्रस्ट बिल्ड करने की तरफ ज़्यादा ध्यान दे ना की तफ़रक़ा कर के इलेक्शंस जितने के लिए काम करे
- छोटे छोटे मसाइल को नज़रअंदाज़ करे और लॉन्ग टर्म प्लानिंग से काम करे
- दीन और मज़हब पर खास ध्यान दे, उसे नज़रअंदाज़ करना अस्ल चीज़ को छोड़ने जैसा है
- याद रहे, ये जमात, ये इलेक्शंस, ये वोटर्स सबकुछ मज़हब की वजह से है और कैंडिडेट इस्लाम की खिदमत के लिए खड़ा हो रहा है।

वोटर्स के हुक़ूक़:
- वोटर्स कैंडिडेट्स से पर्सनल फेवर नहीं मांगे, मसलन घर मिल जाए, या क़र्ज़ माफ़ हो जाए, वगैरह
- वोटर्स भी मज़हब और दीन को सामने रख कर फैसला करे की कौन सा कैंडिडेट मज़हब के ज़्यादा काम आएगा
- वोटर्स खास ध्यान दे की जो वादे किये जा रहे है वो इलेक्शंस के बाद इम्प्लीमेंट हो रहे है या नहीं
- कहीं अपना काम करने के बहाने कैंडिडेट / वोटर मज़हब की बॉर्डर क्रॉस तो नहीं कर रहे हैं?
- जमात के काम काज में उलेमा को अहम किरदार निभाने का मौक़ा दिलाने पर ज़ोर दे
- जमात का कंस्टीटूशन जो काफी पुराना हो चूका है, उसे आज की तारीख के हिसाब से बदलने की मांग करे
- जमात के मेंबर्स के लिए नए स्कीम्स जैसे इन्शुरन्स, मेडिक्लेम, जॉब्स, एजुकेशन, वैगरह पर ज़्यादा ज़ोर दे

याद रहे, अगर वोटर्स आवाज़ नहीं उठाएगे तो कैंडिडेट्स को पता नहीं चलेगा की क्या करना चाहिए। वोटर्स और कैंडिडेट्स साथ मिल कर जमात को एक नई ऊंचाई तक पंहुचा सकते है।  इलेक्शंस के बाद जब काम करने मौका आए तब सारे कैंडिडेट्स और वोटर्स नए चुने गई टीम के साथ मिलकर काम करे। अगर अपोसिशन देना है तो पॉजिटिव अपोसिशन दे और काम को आगे बढ़ाए। इंशाल्लाह अगर क़ौम में इत्तेफ़ाक़ी रही और भरोसा रहा तो क़ौम आगे बढ़ेगी और खुदा नदजीक क़ुरबत के मर्तबे पर पहुंचेगी।

आइये हम (कैंडिडेट्स और वोटर्स) अहद करे की  हम यह इलेक्शंस खुद के लिए नहीं बल्कि खुदा के लिए लड़े और दीन ओ मज़हब के फायदे के लिए काम करे।

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खोजा शिया इस्ना अशरी जमात के इलेक्शंस में हम कहाँ ठहरते है?


मुंबई में खोजा शिया हज़रात आज कल अपने आपको एक नए माहोल में महसूस कर रहे होंगे। एक तरफ इलेक्शन कम्पैगन्स और दूसरी तरफ सोशल मीडिया / व्हाट्स ऑप पर लंबे लंबे डिबेट्स। देख कर लग रहा है मानो जो भी प्रेसिडेंट बनेगा, ज़रूर खोजा हज़रात के लिए "अच्छे दिन" ले कर आएगा। दोनों पार्टियाँ लोगो को अपने तरफ लुभाने में जुटी हुई हैं। कही मीटिंग्स है, कही खाने, कही होटल्स में तो कही मस्जिद इमामबाड़ों में। ऐसे में आम जनता को अच्छा खाना ज़रूर मिल रहा है।

इन सब  साथ ऐसा पहली बार दिख रहा है की इलेक्शंस में यूथ्स इतना इन्वॉल्व हो रहे है, शायद ये सोशल मीडिया की देन है। वरना अपने इलाक़े में कैंपेन मीटिंग हो तब पता चलता था की इलेक्शंस आ गए है। इनफार्मेशन के इस दौर में कैंडिडेट्स भी यूथ्स को लुभाने की खासी कोशिशे कर रहे है। विज़न डाक्यूमेंट्स से उन्नति प्रोग्राम पॉइंट्स तक, जितनी राग अलापी जा सकती है सभी का बखूबी इस्तेमाल हो रहा हैं। जो की एक अच्छी पहल है। क़ौम को कॉन्फिडेंस में ले कर ट्रांसपेरेंट तौर पर काम करना  पहल है।

लेकिन इन सब के बीच एक दूसरे पर काफी कीचड़ भी उछाला जा रहा है। मौजूदा प्रेजिडेंट और नए कैंडिडेट्स के बीच ही नहीं, बल्कि उनके सपोर्टर्स के बीच भी घमासान है। उम्मीद है, यह इलेक्शन क़ौम में ना-इत्तेफ़ाक़ी और दरार पैदा ना करे। यहाँ क़ौम को समझना पड़ेगा की इलेक्शंस सही कैंडिडेट को कुर्सी पर इसलिए लाने के लिए हो रहे है ताकि वो अच्छा और फायदेमंद काम कर सके। ना की ऐसे कैंडिडेट को लाने के लिए जो मेरा रिश्तेदार है या मुझे पर कोई फेवर किया हुआ है।

इन इलेक्शंस को समझने के लिए पहले देखना होगा की जमात है क्या चीज़? क्या जमात सिर्फ एक सामाजिक (सोशल) बॉडी है, जिसका मज़हब से कोई लेना देना नहीं है? या फिर ये मज़हब को अच्छी तरह से इम्प्लीमेंट करने का एक ज़रिया है? अगर जमात मज़हबी रुख रखती है तो फिर इस पुरे खेल में मज़हब के जानने वाले उलेमा क्यों नज़र नहीं आते? ये एक जायज़ सवाल है जो हर जमात के मेंबर को अपने कैंडिडेट से पूछना चाहिए और इलेक्शंस के बाद कोशिश करनी चाहिए की उलेमा जमात के लेनदेन और इलेक्शन प्रोसेस में शामिल हो।

इसके साथ ही प्रेसिडेंट / वाईस प्रेसिडेंट की पोस्ट जमात के बड़े लोगो को दुसरो के सामने पेश करती है। ऐसे में उन लोगो का मज़हबी बातो को उनकी ज़िन्दगी में लाना बहोत ज़रूरी हैं। मसलन चेहरे पर दाढ़ी रखना। बाते अच्छे लहजे में करना वगैरह। हम यहाँ किसी पोलिटिकल इलेक्शंस की बाते नहीं कर रहे जहा कोई भी कैसे भी किरदार आदमी खड़ा हो सकता है।

ऐसे सूरत में खुद कैंडिडेट्स की कुछ ज़िम्मेदारियाँ है और हम वोटर्स के कुछ हक़ है जो हम अपने कैंडिडेट्स से तलब कर सकते है।

कैंडिडेट्स की ज़िम्मेदारियाँ:

- इलेक्शंस को ईगो पर न ले
- दीन का काम समझकर सबको साथ ले कर चले
- कम से कम जो चीज़ें दिखने पर वाजिब है, जैसे नमाज़ पढ़ना, दाढ़ी रखना, वगैरह इसका ख्याल रखे। नहीं तो दूसरी क़ौमे हम पर तने कसेगी और क़ौम की बदनामी के लिए कैंडिडेट्स ज़िम्मेदार होगे
- अपनी ज़ात से ऊपर उठ कर, पूरी जमात के भले के लिए प्लानिंग करना जिसमे इकनोमिक मज़बूती, मेडिकल, एजुकेशनल, पोलिटिकल, रिलीजियस, डिपार्टमेंट्स शामिल रखे
- जवानो को अपनी टीम में ले कर उन्हें आगे बढ़ने का मौका दे
- क़ौम में ट्रस्ट बिल्ड करने की तरफ ज़्यादा ध्यान दे ना की तफ़रक़ा कर के इलेक्शंस जितने के लिए काम करे
- छोटे छोटे मसाइल को नज़रअंदाज़ करे और लॉन्ग टर्म प्लानिंग से काम करे
- दीन और मज़हब पर खास ध्यान दे, उसे नज़रअंदाज़ करना अस्ल चीज़ को छोड़ने जैसा है
- याद रहे, ये जमात, ये इलेक्शंस, ये वोटर्स सबकुछ मज़हब की वजह से है और कैंडिडेट इस्लाम की खिदमत के लिए खड़ा हो रहा है।

वोटर्स के हुक़ूक़:
- वोटर्स कैंडिडेट्स से पर्सनल फेवर नहीं मांगे, मसलन घर मिल जाए, या क़र्ज़ माफ़ हो जाए, वगैरह
- वोटर्स भी मज़हब और दीन को सामने रख कर फैसला करे की कौन सा कैंडिडेट मज़हब के ज़्यादा काम आएगा
- वोटर्स खास ध्यान दे की जो वादे किये जा रहे है वो इलेक्शंस के बाद इम्प्लीमेंट हो रहे है या नहीं
- कहीं अपना काम करने के बहाने कैंडिडेट / वोटर मज़हब की बॉर्डर क्रॉस तो नहीं कर रहे हैं?
- जमात के काम काज में उलेमा को अहम किरदार निभाने का मौक़ा दिलाने पर ज़ोर दे
- जमात का कंस्टीटूशन जो काफी पुराना हो चूका है, उसे आज की तारीख के हिसाब से बदलने की मांग करे
- जमात के मेंबर्स के लिए नए स्कीम्स जैसे इन्शुरन्स, मेडिक्लेम, जॉब्स, एजुकेशन, वैगरह पर ज़्यादा ज़ोर दे

याद रहे, अगर वोटर्स आवाज़ नहीं उठाएगे तो कैंडिडेट्स को पता नहीं चलेगा की क्या करना चाहिए। वोटर्स और कैंडिडेट्स साथ मिल कर जमात को एक नई ऊंचाई तक पंहुचा सकते है।  इलेक्शंस के बाद जब काम करने मौका आए तब सारे कैंडिडेट्स और वोटर्स नए चुने गई टीम के साथ मिलकर काम करे। अगर अपोसिशन देना है तो पॉजिटिव अपोसिशन दे और काम को आगे बढ़ाए। इंशाल्लाह अगर क़ौम में इत्तेफ़ाक़ी रही और भरोसा रहा तो क़ौम आगे बढ़ेगी और खुदा नदजीक क़ुरबत के मर्तबे पर पहुंचेगी।

आइये हम (कैंडिडेट्स और वोटर्स) अहद करे की  हम यह इलेक्शंस खुद के लिए नहीं बल्कि खुदा के लिए लड़े और दीन ओ मज़हब के फायदे के लिए काम करे।

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