5 Jan 2015

Taqleed - Ek Aqli Zarurat!

क्या आज के तालीमी दौर में भी तक़लीद एक अक़्ली ज़रूरत है?

इंसान के लिए ये ज़रूरी नहीं की हर वक़्त वह किसी दूसरे आदमी  की पैरवी करे या किसी और के नज़रिये पर हमेशा राज़ी रह कर अपनी ज़िन्दगी बसर करे। इस सिलसिले में हमारे सामने चार क़िस्म के हालात आ सकते है:

१. एक  जाहिल इंसान दूसरे जाहिल इंसान की पैरवी करे
२. एक ज़्यादा पढ़ालिखा इंसान किसी दूसरे काम पढेलिखे इंसान की पैरवी करे
३. एक पढ़ालिखा इंसान किसी जाहिल इंसान की  पैरवी करे
४. एक काम पढ़ालिखा इंसान किसी ज़्यादा पढ़े लिखे इंसान की पैरवी करे

ये बात ज़ाहिर है कि पहले तीन मरहलो को इंसानी अक़्ल पसंद नहीं करती और इनसे हमारा मक़सद हल नहीं होता। जबकि आखरी (4th) पहलु न की सिर्फ अक़्ली लिहाज़ से सही है बल्कि हम अपनी ज़िन्दगी में बहोत सी जगह इस बात को अपनी  ज़िन्दगी में बजा लाते है। जैसे किसी मसले में आलिम से राबता क़ायम करना या फिर किसी डॉक्टर से अपनी सेहत के बारे में मश्विरा लेना, वगैरह।

इसी ज़ैल में अगर किसी इंसान को अपना घर बनाना है तो वह बिल्डर के अपनी ज़रूरत बताता है और फिर बिल्डर के ताबे हो  जाता है। इसी तरह हम डॉक्टर और वकील की भी पैरवी करते है।

ऐसे बहोत सी  मिसाले है जो हम अपनी ज़िन्दगी में किसी दूसरे माहिर की पैरवी करते है। कई बार जानते हुए और बहोत  वक़्त ना जानते हुए। लेकिन कई बार क़ानून हमें यह आदेश देता है की किसी माहिर की सलाह के बग़ैर काम ना करे, मसलन, कोई खतरनाक दवाई लेने के वक़्त किसी माहिर डॉक्टर की सलाह और उसकी पर्ची होना ज़रूरी है।

इसके साथ ही अगर दो इंसानो में या  गिरोह में लड़ाई हो जाए और फैसला नहीं हो रहा हो तो कोर्ट में जज के सामने उसके फैसले की पैरवी करते है।

दिनी मसाइल में तक़लीद भी इसी तरह है: एक इंसान जो दिनी मसाइल में माहिर नहीं है, किसी ऐसे शख्स की ओर रुजू करे / पैरवी करे जो दिनी मसाइल में माहिर है, जिसे मुजतहिद कहते है। और इस सिम्त में ये वाजिब है है की हर वो शख्स जो मुजतहिद नहीं है, उसे किसी मुजतहिद के फतवो के हिसाब से ज़िन्दगी गुज़ारना ज़रूरी है।

यहाँ एक  बात बताना ज़रूरी है कि तक़लीद सिर्फ शरीअत के मसाइल में जायज़ है और हर  इंसान के लिए ज़रूरी है की वो अपने अक़ाएद में खुद अपनी रिसर्च करे और इसे कामिल बनाए। क़ुरआन ने ऐसे लोगो को फटकार लगाई है जो अक़ाएद के मामले में दुसरो की पैरवी:

" और जब उन लोगो से कहा जाता है कि उस चीज़ की ओर आओ जो अल्लाह ने नाज़िल  की है और रसूल की ओर, तो वे कहते है, "हमारे लिए तो वही काफी है, जिस पर हमने अपने बाप दादा को पाया है." क्या यद्यपि उनके बाप दादा कुछ भी न जानते रहे हो और न सीधे राह पर रहे हो?" (५: १०४)

इसका ये मतलब नहीं की इंसान  हमेशा अपने   बाप दादाओ के खिलाफ ही काम करे या अक़ीदा रखे। जबकि क़ुरआन कह रहा है की उनकी आँखे बंद कर के पैरवी न की जाए। इस्लाम सिखाता है कि अक़ाएद की दुनिया में दुसरो के नज़रियात को जांच परख कर सिर्फ उन्ही  बातो को मानना चाहिए जो अक़्ली है।

"ऐ मुहम्मद (स), बशारत दे दो मेरे उन बन्दों को जो सुनते सब की है और बेहतरीन पर अमल करते है।" (३९: १७)

बातो को समेटते हुए ये कहना सही होगा कि अगर इस्लाम की सही मानो में मानना है तो अपने अक़ाएद को खुद अपनी  तरफ से रिसर्च कर के मुहकम करे।  इसके साथ ही दिनी शरीअत पर अपना यक़ीन पक्का करे और इस पर अमल करने के लिए किसी मुजतहिद की तक़लीद करे या फिर इस हद तक दिनी इल्म हासिल करे और तक़वा परहेज़गारी बजा लाए की खुद मुजतहिद बन जाए।

0 comments:

Post a Comment

क्या आज के तालीमी दौर में भी तक़लीद एक अक़्ली ज़रूरत है?

इंसान के लिए ये ज़रूरी नहीं की हर वक़्त वह किसी दूसरे आदमी  की पैरवी करे या किसी और के नज़रिये पर हमेशा राज़ी रह कर अपनी ज़िन्दगी बसर करे। इस सिलसिले में हमारे सामने चार क़िस्म के हालात आ सकते है:

१. एक  जाहिल इंसान दूसरे जाहिल इंसान की पैरवी करे
२. एक ज़्यादा पढ़ालिखा इंसान किसी दूसरे काम पढेलिखे इंसान की पैरवी करे
३. एक पढ़ालिखा इंसान किसी जाहिल इंसान की  पैरवी करे
४. एक काम पढ़ालिखा इंसान किसी ज़्यादा पढ़े लिखे इंसान की पैरवी करे

ये बात ज़ाहिर है कि पहले तीन मरहलो को इंसानी अक़्ल पसंद नहीं करती और इनसे हमारा मक़सद हल नहीं होता। जबकि आखरी (4th) पहलु न की सिर्फ अक़्ली लिहाज़ से सही है बल्कि हम अपनी ज़िन्दगी में बहोत सी जगह इस बात को अपनी  ज़िन्दगी में बजा लाते है। जैसे किसी मसले में आलिम से राबता क़ायम करना या फिर किसी डॉक्टर से अपनी सेहत के बारे में मश्विरा लेना, वगैरह।

इसी ज़ैल में अगर किसी इंसान को अपना घर बनाना है तो वह बिल्डर के अपनी ज़रूरत बताता है और फिर बिल्डर के ताबे हो  जाता है। इसी तरह हम डॉक्टर और वकील की भी पैरवी करते है।

ऐसे बहोत सी  मिसाले है जो हम अपनी ज़िन्दगी में किसी दूसरे माहिर की पैरवी करते है। कई बार जानते हुए और बहोत  वक़्त ना जानते हुए। लेकिन कई बार क़ानून हमें यह आदेश देता है की किसी माहिर की सलाह के बग़ैर काम ना करे, मसलन, कोई खतरनाक दवाई लेने के वक़्त किसी माहिर डॉक्टर की सलाह और उसकी पर्ची होना ज़रूरी है।

इसके साथ ही अगर दो इंसानो में या  गिरोह में लड़ाई हो जाए और फैसला नहीं हो रहा हो तो कोर्ट में जज के सामने उसके फैसले की पैरवी करते है।

दिनी मसाइल में तक़लीद भी इसी तरह है: एक इंसान जो दिनी मसाइल में माहिर नहीं है, किसी ऐसे शख्स की ओर रुजू करे / पैरवी करे जो दिनी मसाइल में माहिर है, जिसे मुजतहिद कहते है। और इस सिम्त में ये वाजिब है है की हर वो शख्स जो मुजतहिद नहीं है, उसे किसी मुजतहिद के फतवो के हिसाब से ज़िन्दगी गुज़ारना ज़रूरी है।

यहाँ एक  बात बताना ज़रूरी है कि तक़लीद सिर्फ शरीअत के मसाइल में जायज़ है और हर  इंसान के लिए ज़रूरी है की वो अपने अक़ाएद में खुद अपनी रिसर्च करे और इसे कामिल बनाए। क़ुरआन ने ऐसे लोगो को फटकार लगाई है जो अक़ाएद के मामले में दुसरो की पैरवी:

" और जब उन लोगो से कहा जाता है कि उस चीज़ की ओर आओ जो अल्लाह ने नाज़िल  की है और रसूल की ओर, तो वे कहते है, "हमारे लिए तो वही काफी है, जिस पर हमने अपने बाप दादा को पाया है." क्या यद्यपि उनके बाप दादा कुछ भी न जानते रहे हो और न सीधे राह पर रहे हो?" (५: १०४)

इसका ये मतलब नहीं की इंसान  हमेशा अपने   बाप दादाओ के खिलाफ ही काम करे या अक़ीदा रखे। जबकि क़ुरआन कह रहा है की उनकी आँखे बंद कर के पैरवी न की जाए। इस्लाम सिखाता है कि अक़ाएद की दुनिया में दुसरो के नज़रियात को जांच परख कर सिर्फ उन्ही  बातो को मानना चाहिए जो अक़्ली है।

"ऐ मुहम्मद (स), बशारत दे दो मेरे उन बन्दों को जो सुनते सब की है और बेहतरीन पर अमल करते है।" (३९: १७)

बातो को समेटते हुए ये कहना सही होगा कि अगर इस्लाम की सही मानो में मानना है तो अपने अक़ाएद को खुद अपनी  तरफ से रिसर्च कर के मुहकम करे।  इसके साथ ही दिनी शरीअत पर अपना यक़ीन पक्का करे और इस पर अमल करने के लिए किसी मुजतहिद की तक़लीद करे या फिर इस हद तक दिनी इल्म हासिल करे और तक़वा परहेज़गारी बजा लाए की खुद मुजतहिद बन जाए।

Contact Form

Name

Email *

Message *

Comments