12 May 2015

13 rajab ka juloos, masla-e-zainabia aur qaum ke jawaan - Roman



13 rajab ka juloos, masla-e-zainabia aur qaum ke jawaan




Agar hame kisi qaum ke zinda ya murda hone ki jaach karni hai to dekhna hoga ki uske jawan kin muddo ko le kar hassasiyat dikh rahe hai. Agar muaashre me jin points par baat chal rahi hai wo qaum ke bhalai ke liye hai aur un muddo par qaum ke buzurgo aur ulema ke sath hai to samjhe ki qaum ek sahi raah par aage badh rahi hai; lekin agar jawan taish me aa kar koi mudde ko apne man se, aur baghair kisi buzurg / aalim ke hassasiyat dikha rahe hai aur use jeene ya marne ki baat samajh rahe hai, to samjhiye ki qaum ki leadership sahi hatho me hai hai aur future saaf nazar nahi aa raha hai.

13 रजब का जुलूस, मसला-ए-जैनाबिया और कौम के जवान



13 रजब का जुलूस, मसला-ए-जैनाबिया और कौम के जवान 



अगर हमें किसी कौम के जिंदा या मुर्दा होने की जांच करनी है तो देखना होगा की उसके जवान किन मुद्दों को ले कर हस्ससियत दिखा रहे है. अगर मुआशरे में जिन पॉइंट्स पर बात चल रही है वो कौम के भलाई के लिए है और उन मुद्दों पर कौम के बुज़ुर्ग और उलेमा साथ है तो समझे की कौम एक सही राह पर आगे बढ़ रही हैं; लेकिन अगर जवान तैश में आ कर कोई मुद्दे को अपने मन से, और बग़ैर किसी बुज़ुर्ग / आलिम की रहनुमाई के हस्ससियत दिखा रहे है और उसे जीने या मरने की बात समझ रहे है, तो समझिये की कौम की लीडरशिप सही हाथो में नहीं है और फ्यूचर साफ़ नज़र नहीं आ रहा है.

11 May 2015

Sayyad ki Ghair Sayyad se Shadi

“नस्ल और नसब की फजीलत सिर्फ तब है जब इंसान मुत्तकी हो, वरना नहीं!”

अल काफी में इमाम जाफ़र सादिक (अ) फरमाते है के जब रसुलेखुदा (स) ने मक्का फतह किया तो आप कोहे सफा पर तशरीफ़ लाए गए और फ़रमाया:

ऐ बनी हाशिम! ऐ बनी अब्दुल मुत्तलिब, मैं तुम्हारी तरफ अल्लाह का रसूल हूँ, और मैं तुम्हारा शफीक़ और दिल्सोज़ हूँ, मुझे तुम से मुहब्बत है – लिहाज़ा यह मत कहो के मुहम्मद (स) हम से हैं – अल्लाह की क़सम तुम (बनी हाशिम) में से और दीगर (काबिल ओ अक्वाम) में से मुत्तक़ीन के सिवा मेरा कोई दोस्त नहीं हैं.

जान लो; मैं तुम्हें रोज़े महशर नहीं पहचानुगा क्यों की तुम ने दुनिया की मुहब्बत को दोष पर स्वर किया होगा जब के दीगर लोगों ने आखिरत को दोष पर उठाया होगा.

याद रखो! मैंने अपने और तुम्हारे दरमियान, और अल्लाह और तुम्हारे दरमियान किसी किस्म का उज्र और बहाना नहीं छोड़ा – मेरे ज़िम्मे मेरा अमल है और तुम्हारे ज़िम्मे तुम्हारा अमल है.
(Al Kafi vol, 8, pg. 182, sifat us shia, hadith
Rijal ul Hadith: Is hadith k tamam Raavi SIQQA hein.

फवाएद अल हदीस:
इस्लाम ही वो वाहिद मज़हब है जो ज़ात पाक की नफी करते हुए तक्वा ओ परहेज़गारी को फजीलत ओ बरतरी की निशानी कहता है. किसी भी नस्ल को किसी नस्ल पर बरतरी हासिल नहीं है, मेयार खून और नस्ल नहीं बल्कि तक्वा और परहेज़गारी है. मोमिन मोमिन का कुफ़ है (हदीस-ए-रसूल (स)). लिहाज़ा कोई भी मोमिन किसी भी मोमिन से शादी कर सकता है, नस्ली बरतरी और ताफखुर की इस्लाम में कोई जगह नहीं!

सादात (सय्यद)का अह्तेराम उम्मती इस लिए करते हैं क्युकी इन को खानदाने इस्लाम से निस्बत है लेकिन सादात को बिला वजह ग़रूर का इज़हार नहीं करना चाहिए और न दीगर नस्लों को पस्त समझना चाहिए, बलकी इस निस्बत की वजह से इन पर बहोत बड़ी ज़िम्मेदारी आएद होती है. सादात को तक्वा और परहेज़गारी में बाकी सब से अफज़ल होना चाहिए, तब जा कर वो अपने आप को फख्रेयाब सादात कह सकते है.

हज़रत मीसमे तम्मार (र.अ), हज़रत सलमान फारसी (र.अ), हज़रत कंबर (र.अ), हजरत हबीब इब्ने मज़ाहिर (र.अ), बहोत सी अज्वाजे आइम्मः (अ), हजरत मुहम्मद बिन अबुबक्र (र.अ) और बे तहाशा मिसाले हमारे सामने है जो के सादात नहीं थे ना ही हाश्मी थे लेकिन तक्वा की उन मनाज़िल पर थे की खुद को सादात कह कर ग़रूर करने वाले उन के क़दमो की धुल तक के बराबर नहीं!

अब आप हजरात से सवालात ये हैं कि:
1.      क्या कुरान की कोई आयत ऐसी है जिस में हुक्म है के सय्यद का ग़ैर सय्यद से निकाह जायज़ नहीं?
2.      हज़रत अब्दुल मुत्तलिब की बेटी हज़रत जैनब (र.अ) हाश्मी हुई तो उन का निकाह रासुलेखुदा (स) ने अपने गुज़िश्ता ग़ुलाम और ग़ैर सय्यद हज़रत ज़ैद (र.अ) से क्यों करवाया?

(अव्वल तो हाश्मी और औलादे बीबी फातिमा (स) पर खुम्सो ज़कात के अहकामात एक है याने शरफ के लिहाज़ से दोनों एक तो यह मिसाल दी लेकिन अगर फिर भी कोई हाश्मी को सय्यद से अलग करे तो फिर मौला अली (अ) ने बीबी जैनब (अ) का अकड हज़रात अब्दुल्लाह (र.अ) जो के हाश्मी थे उन से क्यों किया?)

सुन्नत तो काएम हो गई कोई आंखे फिर बंद रखना चाहे तो कोई क्या करे?

3.      अब्दुल्लाह इब्ने जफ़र सादिक (अ), इस्माइल इब्ने जफ़र सादिक, जफ़र कज्जाब इब्ने इमाम अली नकी, वगैरह इन सब ने झूठा इमामत का दावा किया और जिन से आहादिस में आइम्माए तहिरिन (अ) ने बेजारी का इज़हार किया, तो क्या यह सय्यद होने की वजह से सुर्खरू हो जाएगे? या आइम्मा (अ) की बेजारी की वजह से पकड़ में आएँगे?

4.      “सलमान हमारे अहलेबैत में से है” – यह एक मशहूर हदीस है. ऐसा क्यूँ है की सय्यद ना होते हुए भी तक्वा के बाईस इस मंजिल पर है के अहलेबैत में शामिल कर लिया गया?

कुरान और हदीस की रौशनी में फतवात:
1.      अयातुल्लाह सिस्तानी सय्यद और ग़ैर सय्यद में निकाह को जायज़ करार देते है और इसे इस्लामी हुदूद में समझते है (Risalah, Book of Nikah, issue #221)

2.      अयातुल्लाह खामेनेई सय्यद और ग़ैर सय्यद में निकाह को जायज़ करार देते है और इसे इस्लामी हुदूद में समझते है (इस्तिफ्ता अयातुल्लाह खामेनेई)

3.      अयातुल्लाह खुई (र.अ): एक आज़ाद औरत का एक ग़ुलाम के साथ निकाह – हाश्मी औरत का ग़ैर हाश्मी से निकाह, एक अरब औरत का ग़ैर अरब से निकाह जायज़ है (Minhaj al-Saliheen (By Sayyid Abul Qasim al-Mousavi al-Khoei), vol. II , Kitab al -Nikah.)

इसके अलावा अयातुल्लाह गुल्पएगानी, अयातुल्लाह फजलुल्लाह, इमाम खोमीनी (र.अ),अयातुल्लाह मकारेम शिराज़ी, अल्लामा हिल्ली (र.अ), अल्लामा राज़ी (र.अ), शेख मुफीद (र.अ), शेख सदूक़ (र.अ), ग़रज़ यह की किसी भी आलिम ने सय्यद की ग़ैर सय्यद के साथ शादी से मन नहीं फ़रमाया है. 

मुखालिफिन की तरफ से दो जवाज़:
1.      इमाम मूसा काजिम (अ) की 18 / 20 बेटियां थी. जहाँ ये बात सच है की इमाम काजिम (अ) की बेटियों की शादियाँ नहीं हुई और शेख कुम्मी (र.अ) की किताब से इक्तेबास लिया जाता है की वहां यह बात सरहन बोहतान और झूट पर मबनी है की उन की शादियाँ इस लिए नहीं हुई क्युकी कोई सय्यद नहीं था; उस किताब में ये लिखा है की उनका कोई कुफ़ नहीं था और याद रहे की मोमिन मोमिन का कुफ़ है न की सय्यद सय्यद का और ग़ैर सय्यद ग़ैर सय्यद का! इस तरह की ग़लत बातें इमाम मूसा काजिम (अ) और इमाम रेज़ा (अ) से जोडने से पहले तारिख का बगौर मुतालिया कर लीजिये.

2.      दूसरी यह हदीस पेश की जाती है जो रसुल्लुल्लाह (स) ने इमाम अली (अ) और हज़रात जाफ़रे तैयार (अ) के बच्चो की तरफ देख कर कही:

“हमारी लड़कियां हमारे लड़कों के लिए है और हमारे लडकें हमारी लड़कियों के लिए” (Man La Yad harul Faqeeh, chapter nikkah, pg. 249)

तो अव्वल यह हदीस पूरी नस्ले सदात के लिए कही नहीं गई और सिर्फ इन खानदान के बीच शादियों के लिए सूरते हाल के मुताबिक कही गई मगर फिर भी कोई बज़िद हो तो क्या मौला अली (अ) ने बाद अज जनाबे फातिमा (स) बीबी उम्मुल बनीं से अकद नहीं किया? क्या इमाम हुसैन (अ) और इमाम हसन (अ) और दीगर आइम्मा (अ) ने ग़ैर सय्यद से शादी नहीं की? क्या नौज़ुबिल्लाह हमारे आइम्मा (अ) ने कौले रसूल (स) पर अमल नहीं किया?

लिहाज़ा किसी के लिए सय्यद होना शरफ की बात तब होंगी जब वो मुत्तकी होगा और जब कोई मुतक्की होता है तो खुदा के यहाँ अफज़ल हो जाता है और जातपात का पाबंद नहीं रहता.
बग़ैर अमल के यह निस्बत रोज़े महशर किसी का फाएदा नहीं दे सकती जैसा के ऊपर हदीस में साफ़ वज़ह है. नबी से निस्बत जोड़ने वाले लोगों का नामे आमाल रोज़े महशर खाली हो और हकूक उन नास की रियाअत भी न करते हो तो यकीनन यह लोग बाईस-ए-शर्मिंदगी बनेंगे लिहाज़ा खुदरा रिश्ते तलाश करते हुए तक्वे को मेयार बनाये न की ज़ात को.

“और बेशक अल्लाह की ज़ात को पाने के लिए अपनी ज़ात से निकलना होता है”

इस मौजु को मजीद जानने के लिए ये विडियो क्लिप ज़रूर देखे:

2 May 2015

विलादते इमाम अली (अ) मुबारक

शबे विलादते इमाम अली (अ) में मैं एक फोरार्ड मेसेज; जो की विलादत की मुबारकबाद पेश करने के लिए था.. अपने व्हाट्स ऍप ग्रुप पर पोस्ट किया। ये सोच कर की इससे विलादत के खुशहाली का हक़ अदा हो जाएगा।

उसके बाद जैसे ही रास्ते पर बहार निकला तो एक बुढा इंसान रास्ता क्रॉस करने की कोशिश कर रहा था लेकिन ट्रैफिक की वजह से नहीं कर पा रहा था। मैंने पहले उसे इग्नोर किया; लेकिन जिसकी विलादत का मेसेज फॉरवर्ड किया था उस शख्सियत की याद आ गई और मैंने उस बुढ़े को रास्ता क्रॉस करने में मदद कर दी।

अगर ध्यान से देखे तो आइम्मा (अ) की विलादत और शहादत के मौके इसलिए भी है की हम आइम्मा (अ) की सीरत को हमेशा अपने सामने रखे और उनके दिखाए रास्ते पर ज़िन्दगी गुज़ारे।

मेसेज फॉरवर्ड करना या किसी को मुबारकबाद देना अस्ल मक़सद नहीं रहा है और न कभी रहेगा। इन पाक और मुक़द्दस दिनों का मक़सद इंसान को अंदर से बदलना है।

ज़ुबान पर मुबारकबादी और दिल में कालीक.. यह  कभी दीन ने नहीं सिखाया। चाहा यह जा रहा है की हम हक़ीक़त वाली ज़िन्दगी जिए। दिल अंदर से पाक हो और उस तालीम को, जिसे आइम्मा (अ) ने हमें सिखाया है उसे अपनी ज़िन्दगी में अपनाए।

विलादत ए वली ए अव्वल, वली ए मुत्तक़ीन, वली ए अम्र, आयात ए मज़हर ए इलाही इमाम अली (अ) आप सब को बहोत बहोत मुबारक हो।

खुदा हम सब को असली पैरव ए इमाम अली (अ) बनाए और हमारे दिलो को अंदर से पाक करे। इस दिल में मज़लूमो के लिए दर्द और जालिमो से नफरत दे और खुद अपनी ज़िन्दगी से ज़ुल्म को बहार करने की तौफ़ीक़ दे।

27 Apr 2015

Hamari zindagi me Aaimmah (a) se Nazdiki?



हमारी ज़िन्दगी में आइम्मा () से कितनी नज़दीकी हैं?




आज के भाग दौड़ और सोशल मीडिया के दौर में किसी के पास वक़्त नहीं। जिसके पास करने को कुछ नहीं वो भी बिजी नज़र आते है और मोबाइल से अपना सर उठा कर देखने की फुर्सत तक नहीं। मानो जैसे कोई करोडो का बिज़नेस कर रहे हो। और जिनके पास करने के लिए काम है, उनका तो पूछना गुनाह है। सुबह से ले कर शाम ऐसे गुज़रती है जैसे दुरोंतो एक्सप्रेस।

ऐसे बिजी जीवन में दीन और मज़हब के लिए किसी के पास वक़्त कहा। अगर कोई कुछ दीनी बात कर ले या छेड़ दे, उसे ग्रुप वाले सीधे मुल्ला की पदवी (टाइटल) दे देते है। और इस टाइटल से तो बस खुदा ही बचाए, लोग उस शख्स से ऐसे भागेंगे जैसे कोई जिन्न आ रहा हो। देखने में ऐसा लगता है जैसे मज़हब से ज़्यादातर लोगो का कोई लेने देना रहा ही ना हो।

लेकिन जब  बात को गहराई में जा कर देखा जाता है तब पता चलता है कि हर एक शख्स अपनी ज़िन्दगी में दीन और मज़हब से जुड़ा हुआ रहना पसंद करता है, कोई ज़्यादा तो कोई कम। और ये कम ज़्यादा का पैमाना अलग अलग लोगो के लिए अलग है। कोई दान धर्म कर के खुश है, तो कोई हज ज़ियारत पर जा कर, कोई ग़रीबो को खाना खिलाना पसंद करता है, तो कोई तिलावत ए कुरआन पाक, किसी को बजामत नमाज़ पढ़ने में इत्मीनान मिलता है तो किसी को अहलेबैत (अ) की शान में क़सीदे पढ़ कर सुकूने क़ल्ब हासिल करता है। इन सब के बावजूद जब ग्रुप में बात दीन और मज़हब की आती है तो दीनदार कम नज़र आतें है।

अब ज़रा इसी महीने पर नज़र डालिये, माहे रजब के शुरू होते ही कुछ लोग आइम्मा (अ) से जुडे क़सीदे और मनक़बत फॉरवर्ड करने में लग गए। इतने क़सीदे आए की पढ़ना मुश्किल हो गया। और लोग जब फॉरवर्ड करते है तो भी भोलेपन के साथ जैसे की इसे फॉरवर्ड न करेंगे तो बात बिगड़ जाएगी। यहाँ ये बात पर भी ध्यान देना ज़रूरी है की लोग मज़हब को डराने के लिए भी अच्छी तरह से इस्तेमाल करते है।

कुछ लोग तो पिछले दिनों आए भूकम्प (ज़लज़ले) के लिए भी शेर शायरी करते दिखाई जिसमे ज़लज़ले को जनाबे अली असगर (अ) को झूला झुलाने से ताबीर किया गया है। यानी हम इस बात पर राज़ी है की हज़ारों लोग मारे जाए और उसका इलज़ाम हम अहलेबैत (अ) की ज़ात पर डालने से कतराए तक नहीं; यह एक अजीब बात है। इसी तरह के अलग अलग पोस्ट्स सोशल मीडिया पर दिखाई दिए जिससे हमारी क़ौम की सोच का पता चलता है।

सवाल यह उठता है कि हमारी आइम्मा (अ) से कितनी नदजीकी है?

क्या उनसे जुडी मनक़बत पढ़ लेने से या फॉरवर्ड कर देने से बात बन जाएगी? या कुछ और चीज़ हमारी तरफ से चाही जा रही है। क़ुरआन ने रसुलेखुदा (स) और आइम्मा (अ) को इंसानियत के लिए उस्वा (रोल मॉडल) बनाकर भेजा है। इसका मतलब है की हमें अपनी ज़िन्दगी में उनकी छाप उतारनी होगी। सिर्फ नाम के लिए काम कर के बात नहीं बनेगी। नमाज़ पढ़ना, क़ुरआन की तिलावत करना, सदक़ा निकलना, वगैरह तो दिखने वाले अमल है, असली चीज़ तो दिलो का सुधार है।

सबसे पहले हम अपने आप की नियत को चेक करे की मै फूलां काम क्यों कर रहा हु? अगर नियत अल्लाह और अहलेबैत (अ) है, तो फिर हम सही डायरेक्शन (दिशा) में जा रहे है। अगर नियत इससे हटकर लोगो को दिखाना, लाइमलाइट में आना, अपनी शोहरत, अपने दिल को शांति पहुचाने के लिए, या फिर कोई भी दूसरा रीज़न हो तो बेहतर है की काम रोक दे और अपनी नियत सही करे।

आइम्मा (अ) की विलादत पर मुबारकबाद देने के वक़्त भी पहले सोच ले की मै ये क्यों कर रहा हु?

हमें चाहिए की अपनी ज़िंदगी का हर लम्हा जानते हुए गुज़ारे और खुद को बेवकूफ नहीं बनाए। अल्लाह हमारे दिलो के असली हाल से अच्छी तरह वाक़िफ़ है। हमारे लिए राहे आसान है, नियत दुरुस्त करे और फिर कोई भी (ख़ुसूसन दीनी) काम करे। अगर काम लोगो के लिए या खुद के लिए रहेगा तो काम तो हो जाएगा लेकिन फायदे नहीं होगे और मक़सद भी पूरा नहीं होगा।

इन महीनो में, ख़ुसूसन रजब, शाबान और माहे रमज़ान में खास ध्यान अपनी नियत पर रखे। अगर नियत सुधर गई तो कामियाबी हमारे क़दम चूमेगी और अगर सब कुछ कर लिया लेकिन नियत सही नहीं रही, तो मेहनत बेकार चली जाएगी।

आइम्मा (अ) ने खास ध्यान हमें अपनी नियत सुधरने पर देने के लिए कहा है। इसीलिए जो दुआएं हमारे पास आई है उसमे आइम्मा (अ) दिलो के सुधर की तरफ ज़्यादा ध्यान देते दिखाई देते है; और किसी दुनियावी दुआओ का कोई तज़किरा नहीं रहता। मसलन दुआए कुमैल में इमाम अली (अ) अल्लाह से दुआ करते  हैं की मेरे आजा जवारेह (हाथ पैरों) में क़ूवत दे - ताकि मै तेरे दीन की खिदमत कर सकु। यहाँ इमाम अपने ज़िन्दगी के लिए बहोत कुछ मांग सकते थे, लेकिन इमाम ने दीन को ज़्यादा तरजीह दी।

इसी तरह हमें भी चाहिए की कोई भी काम करे, उसमे नियत को दुरुस्त कर ले और उसे खास तौर से अल्लाह के लिए रखे। खास उन दिनों के लिए जो आइम्मा (अ) से मख़्सूस है, आदत डाले की उनसे वसीला इख्तियार करे और उनकी ज़िन्दगी  से सबक ले कर अपनी ज़िन्दगी में लाए ताकि हम  खुदा के क़रीब हो सके। व्हाट्स ऍप पर मुबारकबाद देने के आगे असली काम का आग़ाज़ करे और अपनी ज़िन्दगियों में फ़र्क़ देखे। इंशाल्लाह हम पाएंगे की दुनिया बहोत हसीन है और दूसरे लोग बहोत अच्छे है।


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