तहरीर: सय्यद नजीबुल हसन जैदी
सोशल मीडिया पर मेरी तरह आप की निगाहों से भी इस किस्म की
पोस्ट ज़रूर गुजरी होगी “कहा है क़ुद्स का प्रोग्राम करने वाले? कहा है फिलिस्तीन
की आज़ादी के लिए मुज़हेरे करने वाले? कहा है बैतूल मुक़द्दस के सिलसिले में जुलूस
निकलने वाले? बाकी वीरान है, हमारे चार इमामो की क़ब्रे सुनसान है, लेकिन न क़ुद्स
के जुलूस निकलने वालो की खबर है न फिलिस्तीन का दम भरने वालो का पता; क्या जन्नतुल
बकी की अजमत और मज्लुमियत बैतूल मुक़द्दस से कम है जो आज इन्हेदामे जन्नतुल बकी पर
वो लोग खामोश है जो क़ुद्स क़ुद्स करते घूमते है?
शक नहीं, बैतूल मुक़द्दस हो के जन्नतुल बकी; दोनों की अहमियत
अपनी अपनी जगह मुसल्लम है; दोनों की क़दासत और पाकीज़गी अपने अपने मक़ाम पर तय है और
दोनों ही इस वक़्त ज़ालिमो के क़ब्ज़े में है. अगर एक किब्लाए अव्वल है तो दुसरे का
ताल्लुक काबा-ए-दिल से है. न इन्हेदामे जन्नतुल बकी के दर्द और इस की अहमियत को
नज़र अंदाज़ किया जा सकता है और न ही बैतूल मुक़द्दस की तारिखी हैसियत को जो एक नबी
(स) की मेराज की यादगार है; तो दूसरी इस्लाम की मेराज की के, बाकी में वो शक्सियात
दफन है जिनकी ज़िन्दगी इस्लामी समाज को मेराज बख्शने में गुजरी; जिनके तालीमात के
चिरागों की रौशनी आज भी इंसानियत को मेराजे बंदगी तक पहुचाने की दावत दे रही है. लेकिन
अफ़सोस का मक़ाम है कुछ कज फ़िक्र और चलेपा तर्ज़ फहम रखने वाले ना-अक़ीदत अंदेशो ने इन
दोनों मसलो को “अना” की सियासत की नज़र कर दिया है.
अजीब बात तो ये है की क़ुद्स के सिलसिले में पेश पेश रहने
वाले तो आप को इन्हेदामे जन्नतुल बकी के मौके पर ज़रूर देखने को मिलेगे; लेकिन
इन्हेदामे जन्नतुल बकी के सिलसिले में होने वाले प्रोग्रामो के मुन्ताज़ेमिन और
अराकीन क़ुद्स के मौके पर शाज़-ओ-नादिर ही नज़र आएगे.
इसकी एक अदना सी मिसाल जो मेरे पेशे नज़र आई वह शहरे मुंबई
है जहा क़ुद्स कमिटी व IAYF के मुश्तरका तावून से क़ुद्स का प्रोग्राम भी शानदार
तरीके से होता है और इन्हेदामे जन्नतुल बाकी पर भी मुख्तलिफ प्रोग्राम्स मुनाकिद
हॉट एही. जबके इस के बरखिलाफ जन्नतुल बाकी के इन्हेदाम की मुनासिबत व दीगर
प्रोग्राम के मुन्ताज़ेमिन ज़्यादातर क़ुद्स के प्रोग्राम में गायब ही रहते है.
मैं हरगिज़ अवाम की बात नहीं कर रहा. बेचारी अवाम ही तो
दोनों जगह के प्रोग्राम की कमियाबी की चाबी है. बात उन लोगो की है जो निस्फ़ इल्म
से मुताल्लिक है या किसी इदारा व ट्रस्ट से जुड़े होने या खानदान व विरासत की बिना पर
खास है. मेरा सवाल इन्ही खास लोगो से है जो किसी एक प्रोग्राम को दुसरे पर तरजीह
देते है और दुसरे प्रोग्राम में जाना भी गवारा नहीं करते के आखिर उनके इस अमल के
पीछे कौन सी मंतिक कार फरमा है. कहीं ऐसा तो नहीं, जाने अनजाने किसी एक प्रोग्राम
को कमज़ोर कर के वो दुश्मन के खेमे को मज़बूत कर रहे है?
के इन में सो कोई एक भी चाहे वो जन्नतुल बकी हो या क़ुद्स;
सियासत का शिकार हो कर अनजाने में दुश्मन के अंगारों की भट्टी के हत्थे चढ़ गया तो
आज नहीं तो कल इस का धुवाँ हमारी ही आँखों में जाने वाला है.
अगर किसी के ज़हन में ये ख्याल है के जन्नतुल बकी की
मज्लुमियत और आले सूद के मज़ालिम तो बहरहाल मुसलमानों का दाखिली मसला है तो वो इमाम
खुमैनी (र.अ) के इन जुमलो पर गौर करे, “अगर हम सद्दाम को माफ़ भी कर दे, क़ुद्स को
भुला भी दे, अमेरीका की बरबरियत को भूल भी जाए; लेकिन आले सऊद को कभी नहीं
बख्शेगे. इंशाल्लाह अपने दिलो के ज़ख्मो की ठंडक मुनासिब वक़्त में अमेरीका व आले
सऊद से इन्तेकाम लेकर ही ठंडा करेगे.”
इसी तरह
अगर कोई ये सोचता है के क़ुद्स तो अहले सुन्नत से मुताल्लिक है, फिलिस्तीन में कौन
से शिया है; तो वो कुरान की इस आयत का जवाब कैसे देंगे जिस में इरशाद हो रहा है, “और
तुम्हे क्या हो गया है के तुम अल्लाह की राह में किताल नहीं करते और मुस्तज़अफीन के
लिए नहीं लड़ते जिनके मर्द, बच्चे और औरतें फरयाद कर रहे है कि, ऐ मालिक! हमें इस
क़ैद से नजात दे जो ज़लिमीन का मसकन है और हमारे लिए अपने पास से एक वाली या मददगार
क़रार दे जो हमारी मदद कर सके (सूरा-ए-निसा: 85)
क्या
बैतूल मुक़द्दस हमारी मीरास नहीं? क्या फिलिस्तीन के मजलूम इस आयत के मौजूदा दौर
में मिसदाक़ नहीं? क्या ये आयत मनसुख हो गई है? क्या इस के मुखातब हम नहीं?
हम में से
बाज़ कज फ़िक्र लोग जिस बकी को क़ुद्स से मुतसादिम करने के दरपै है; इस कब्रस्तान में
सोने वाले अह्लेबैते तहेरिन (अ) से मुताल्लिक एक एक फर्द दुनिया के मज़लूमो और
नादारो की पनाहगाह था. क्या बकी और क़ुद्स के तसादुम से इन रहो को अज़ीय्यत नहीं
पहुचती होगी? इन्होने इंसानी हुर्रियत और आज़ादी के लिए तौक-ओ-सलासिल पहनना गवारा
किया लेकिन बशरियत को घुलमि से निजात दिलाने का नुस्खा बा-उन्वाने “कर्बला” हमारे
हवाले कर गए और आज हम में से ही बाज़ इन के मंशुरे हुर्रियत से न सिर्फ गाफिल बल्कि
इस की ग़लत तफसीर कर रहे है.
जिस बकी
के लिए आज हम सोगवार है; इसी बकी की क़सम, बैतूल मुक़द्दस और फिलिस्तीन का मसला शिया
सुन्नी का नहीं है; बल्कि बकी की तरह मुस्तज़अफ़ और मुस्तक्बेरिन के माबैन जंग का
मसला है. कुरान ने भी मुस्तज़अफ़ और मुस्ताक्बिर के मसले को अहम् जाना है.
कुरान के एक वाकिये में एक यहूदी और मुसलमान के दरमियान
इख्तिलाफ हुआ और हक यहूदी के साथ था. यहूदी ने कहा के पैग़म्बर (स) को अपना हाकिम
करार देते है. जो फैसला वह करे इसे तस्लीम किया जाएगा. लेकिन मुसलमान ने इस तजवीज़
को यूँ रद कर दिया के जानता था पैग़म्बर (स) का फैसला क्या होगा. इसी लिए यहूदी की
बात न मान कर यहूदियों के ही एक सरदार “काब बिन अशरफ” के पास पहुंचा के वो दोनों
के दरमियान फैसला करे. इस लिए के रिश्वत दे कर फैसला पाने हक में कराना था.
मुसलमान ने यह चाल चली. इसी मक़ाम पर आयत नाजिल हुई “बाज़ लोग दावा-ए-इस्लाम तो करते
है लेकिन ताघूत से मुखालिफत की जब बात आती है तो मुखालिफत तो दूर, फैसला करने वाला
ही उसे बना देते है” (सूरा-ए-निसा: 40)
मजकुरा
मजरे में कुरान एक मुसलमान के तरीका-ए-अमल को रद कर के यहूदी को हक पर करार दे रहा
है यानि कुरान का वाजेह एलन है के अगर मुसलमान होते हुए भी अगर अदालत व इन्साफ की
कद्र से दूर हो तो सब से पहले तुम्हारी जो मज़म्मत करेगा वो कुरान की नज़र में सही
होगा; और इस के बरखिलाफ अगर यहूदी होते हुए इन्साफ पसंद होगे तो कुरान तुम्हारी
हिमायत करेगा.
बिलकुल
ऐसे ही जन्नतुल बकी व क़ुद्स का मामला है. शिया होते हुए भी अगर हम मज़लूमो से गाफ़िल
है बल्कि यहुदो इस्तेकबार को हाकिम करार दे रहे है; बकी को पामाली क़ुद्स का सबब बता
रहे है; तो यकीनन मुजफेज़िने कुरान, क़ब्रिस्ताने बकी में सोने वाले वारेसान कुरान
हम से ना-खुश है क्युके कुरान से ज्यादा अज़ीज़ अहलेबैत (अ) को कुछ नहीं. अब अगर इन
के अपने ही माननेवाले कुरान के खिलाफ जाए तो वो कैसे बर्दाश्त करेगे.
आज पूरी
एक लॉबी है जो काम कर रही है. ये के क़ुद्स को अहले सुन्नत का मसला बना दिया जाए और
बकी को शियों से मखसूस कर दिया जाए. लेकिन क्या कहना हमारे पहले इमाम (अ) का जो
शिगाफ्ता सर के साथ आखिर वक़्त में हमारे हाथो मेयार दे गया “कुना लिज्ज़ालिमे
खस्मन, व लील मज्लूमे औना” (हमेशा ज़ालिम के खिलाफ रहो और मजलूम की हिमायत करो). यह
नहीं कहा के ज़ालिम कौन हो ये भी नहीं के मजलूम कौन हो. हम ने अली (अ) की वसीयत से
येही समझा के ज़ालिम जो भी हो उसे से ताल्लुक रखना अली का अम्र नहीं; मजलूम जो भी
हो उस से इजहारे हमदर्दी मक्तबे अली (अ) का शेवा है.
बकी के
ज़ख्मो को संभाले आज इन्हेदामे बकी के मौके पर जिस तरह हम अपने ग़म में ग़मगीन है,
वैसे ही अर्जे फिलिस्तीन की आज़ादी व बैतूल मुक़द्दस की बाज़याबी के लिए भी दुआ गो है
और लबो पर ये ज़म्ज़मा है “परवरदिगार! अब वारिसे हैदर-ए-कर्रार को भेज दे के दुनिया
अंधेर है”
“अल्लाहुमार
ज़ुक्नी तल अतर रशिदः”
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