11 May 2015

Sayyad ki Ghair Sayyad se Shadi

“नस्ल और नसब की फजीलत सिर्फ तब है जब इंसान मुत्तकी हो, वरना नहीं!”

अल काफी में इमाम जाफ़र सादिक (अ) फरमाते है के जब रसुलेखुदा (स) ने मक्का फतह किया तो आप कोहे सफा पर तशरीफ़ लाए गए और फ़रमाया:

ऐ बनी हाशिम! ऐ बनी अब्दुल मुत्तलिब, मैं तुम्हारी तरफ अल्लाह का रसूल हूँ, और मैं तुम्हारा शफीक़ और दिल्सोज़ हूँ, मुझे तुम से मुहब्बत है – लिहाज़ा यह मत कहो के मुहम्मद (स) हम से हैं – अल्लाह की क़सम तुम (बनी हाशिम) में से और दीगर (काबिल ओ अक्वाम) में से मुत्तक़ीन के सिवा मेरा कोई दोस्त नहीं हैं.

जान लो; मैं तुम्हें रोज़े महशर नहीं पहचानुगा क्यों की तुम ने दुनिया की मुहब्बत को दोष पर स्वर किया होगा जब के दीगर लोगों ने आखिरत को दोष पर उठाया होगा.

याद रखो! मैंने अपने और तुम्हारे दरमियान, और अल्लाह और तुम्हारे दरमियान किसी किस्म का उज्र और बहाना नहीं छोड़ा – मेरे ज़िम्मे मेरा अमल है और तुम्हारे ज़िम्मे तुम्हारा अमल है.
(Al Kafi vol, 8, pg. 182, sifat us shia, hadith
Rijal ul Hadith: Is hadith k tamam Raavi SIQQA hein.

फवाएद अल हदीस:
इस्लाम ही वो वाहिद मज़हब है जो ज़ात पाक की नफी करते हुए तक्वा ओ परहेज़गारी को फजीलत ओ बरतरी की निशानी कहता है. किसी भी नस्ल को किसी नस्ल पर बरतरी हासिल नहीं है, मेयार खून और नस्ल नहीं बल्कि तक्वा और परहेज़गारी है. मोमिन मोमिन का कुफ़ है (हदीस-ए-रसूल (स)). लिहाज़ा कोई भी मोमिन किसी भी मोमिन से शादी कर सकता है, नस्ली बरतरी और ताफखुर की इस्लाम में कोई जगह नहीं!

सादात (सय्यद)का अह्तेराम उम्मती इस लिए करते हैं क्युकी इन को खानदाने इस्लाम से निस्बत है लेकिन सादात को बिला वजह ग़रूर का इज़हार नहीं करना चाहिए और न दीगर नस्लों को पस्त समझना चाहिए, बलकी इस निस्बत की वजह से इन पर बहोत बड़ी ज़िम्मेदारी आएद होती है. सादात को तक्वा और परहेज़गारी में बाकी सब से अफज़ल होना चाहिए, तब जा कर वो अपने आप को फख्रेयाब सादात कह सकते है.

हज़रत मीसमे तम्मार (र.अ), हज़रत सलमान फारसी (र.अ), हज़रत कंबर (र.अ), हजरत हबीब इब्ने मज़ाहिर (र.अ), बहोत सी अज्वाजे आइम्मः (अ), हजरत मुहम्मद बिन अबुबक्र (र.अ) और बे तहाशा मिसाले हमारे सामने है जो के सादात नहीं थे ना ही हाश्मी थे लेकिन तक्वा की उन मनाज़िल पर थे की खुद को सादात कह कर ग़रूर करने वाले उन के क़दमो की धुल तक के बराबर नहीं!

अब आप हजरात से सवालात ये हैं कि:
1.      क्या कुरान की कोई आयत ऐसी है जिस में हुक्म है के सय्यद का ग़ैर सय्यद से निकाह जायज़ नहीं?
2.      हज़रत अब्दुल मुत्तलिब की बेटी हज़रत जैनब (र.अ) हाश्मी हुई तो उन का निकाह रासुलेखुदा (स) ने अपने गुज़िश्ता ग़ुलाम और ग़ैर सय्यद हज़रत ज़ैद (र.अ) से क्यों करवाया?

(अव्वल तो हाश्मी और औलादे बीबी फातिमा (स) पर खुम्सो ज़कात के अहकामात एक है याने शरफ के लिहाज़ से दोनों एक तो यह मिसाल दी लेकिन अगर फिर भी कोई हाश्मी को सय्यद से अलग करे तो फिर मौला अली (अ) ने बीबी जैनब (अ) का अकड हज़रात अब्दुल्लाह (र.अ) जो के हाश्मी थे उन से क्यों किया?)

सुन्नत तो काएम हो गई कोई आंखे फिर बंद रखना चाहे तो कोई क्या करे?

3.      अब्दुल्लाह इब्ने जफ़र सादिक (अ), इस्माइल इब्ने जफ़र सादिक, जफ़र कज्जाब इब्ने इमाम अली नकी, वगैरह इन सब ने झूठा इमामत का दावा किया और जिन से आहादिस में आइम्माए तहिरिन (अ) ने बेजारी का इज़हार किया, तो क्या यह सय्यद होने की वजह से सुर्खरू हो जाएगे? या आइम्मा (अ) की बेजारी की वजह से पकड़ में आएँगे?

4.      “सलमान हमारे अहलेबैत में से है” – यह एक मशहूर हदीस है. ऐसा क्यूँ है की सय्यद ना होते हुए भी तक्वा के बाईस इस मंजिल पर है के अहलेबैत में शामिल कर लिया गया?

कुरान और हदीस की रौशनी में फतवात:
1.      अयातुल्लाह सिस्तानी सय्यद और ग़ैर सय्यद में निकाह को जायज़ करार देते है और इसे इस्लामी हुदूद में समझते है (Risalah, Book of Nikah, issue #221)

2.      अयातुल्लाह खामेनेई सय्यद और ग़ैर सय्यद में निकाह को जायज़ करार देते है और इसे इस्लामी हुदूद में समझते है (इस्तिफ्ता अयातुल्लाह खामेनेई)

3.      अयातुल्लाह खुई (र.अ): एक आज़ाद औरत का एक ग़ुलाम के साथ निकाह – हाश्मी औरत का ग़ैर हाश्मी से निकाह, एक अरब औरत का ग़ैर अरब से निकाह जायज़ है (Minhaj al-Saliheen (By Sayyid Abul Qasim al-Mousavi al-Khoei), vol. II , Kitab al -Nikah.)

इसके अलावा अयातुल्लाह गुल्पएगानी, अयातुल्लाह फजलुल्लाह, इमाम खोमीनी (र.अ),अयातुल्लाह मकारेम शिराज़ी, अल्लामा हिल्ली (र.अ), अल्लामा राज़ी (र.अ), शेख मुफीद (र.अ), शेख सदूक़ (र.अ), ग़रज़ यह की किसी भी आलिम ने सय्यद की ग़ैर सय्यद के साथ शादी से मन नहीं फ़रमाया है. 

मुखालिफिन की तरफ से दो जवाज़:
1.      इमाम मूसा काजिम (अ) की 18 / 20 बेटियां थी. जहाँ ये बात सच है की इमाम काजिम (अ) की बेटियों की शादियाँ नहीं हुई और शेख कुम्मी (र.अ) की किताब से इक्तेबास लिया जाता है की वहां यह बात सरहन बोहतान और झूट पर मबनी है की उन की शादियाँ इस लिए नहीं हुई क्युकी कोई सय्यद नहीं था; उस किताब में ये लिखा है की उनका कोई कुफ़ नहीं था और याद रहे की मोमिन मोमिन का कुफ़ है न की सय्यद सय्यद का और ग़ैर सय्यद ग़ैर सय्यद का! इस तरह की ग़लत बातें इमाम मूसा काजिम (अ) और इमाम रेज़ा (अ) से जोडने से पहले तारिख का बगौर मुतालिया कर लीजिये.

2.      दूसरी यह हदीस पेश की जाती है जो रसुल्लुल्लाह (स) ने इमाम अली (अ) और हज़रात जाफ़रे तैयार (अ) के बच्चो की तरफ देख कर कही:

“हमारी लड़कियां हमारे लड़कों के लिए है और हमारे लडकें हमारी लड़कियों के लिए” (Man La Yad harul Faqeeh, chapter nikkah, pg. 249)

तो अव्वल यह हदीस पूरी नस्ले सदात के लिए कही नहीं गई और सिर्फ इन खानदान के बीच शादियों के लिए सूरते हाल के मुताबिक कही गई मगर फिर भी कोई बज़िद हो तो क्या मौला अली (अ) ने बाद अज जनाबे फातिमा (स) बीबी उम्मुल बनीं से अकद नहीं किया? क्या इमाम हुसैन (अ) और इमाम हसन (अ) और दीगर आइम्मा (अ) ने ग़ैर सय्यद से शादी नहीं की? क्या नौज़ुबिल्लाह हमारे आइम्मा (अ) ने कौले रसूल (स) पर अमल नहीं किया?

लिहाज़ा किसी के लिए सय्यद होना शरफ की बात तब होंगी जब वो मुत्तकी होगा और जब कोई मुतक्की होता है तो खुदा के यहाँ अफज़ल हो जाता है और जातपात का पाबंद नहीं रहता.
बग़ैर अमल के यह निस्बत रोज़े महशर किसी का फाएदा नहीं दे सकती जैसा के ऊपर हदीस में साफ़ वज़ह है. नबी से निस्बत जोड़ने वाले लोगों का नामे आमाल रोज़े महशर खाली हो और हकूक उन नास की रियाअत भी न करते हो तो यकीनन यह लोग बाईस-ए-शर्मिंदगी बनेंगे लिहाज़ा खुदरा रिश्ते तलाश करते हुए तक्वे को मेयार बनाये न की ज़ात को.

“और बेशक अल्लाह की ज़ात को पाने के लिए अपनी ज़ात से निकलना होता है”

इस मौजु को मजीद जानने के लिए ये विडियो क्लिप ज़रूर देखे:

2 May 2015

विलादते इमाम अली (अ) मुबारक

शबे विलादते इमाम अली (अ) में मैं एक फोरार्ड मेसेज; जो की विलादत की मुबारकबाद पेश करने के लिए था.. अपने व्हाट्स ऍप ग्रुप पर पोस्ट किया। ये सोच कर की इससे विलादत के खुशहाली का हक़ अदा हो जाएगा।

उसके बाद जैसे ही रास्ते पर बहार निकला तो एक बुढा इंसान रास्ता क्रॉस करने की कोशिश कर रहा था लेकिन ट्रैफिक की वजह से नहीं कर पा रहा था। मैंने पहले उसे इग्नोर किया; लेकिन जिसकी विलादत का मेसेज फॉरवर्ड किया था उस शख्सियत की याद आ गई और मैंने उस बुढ़े को रास्ता क्रॉस करने में मदद कर दी।

अगर ध्यान से देखे तो आइम्मा (अ) की विलादत और शहादत के मौके इसलिए भी है की हम आइम्मा (अ) की सीरत को हमेशा अपने सामने रखे और उनके दिखाए रास्ते पर ज़िन्दगी गुज़ारे।

मेसेज फॉरवर्ड करना या किसी को मुबारकबाद देना अस्ल मक़सद नहीं रहा है और न कभी रहेगा। इन पाक और मुक़द्दस दिनों का मक़सद इंसान को अंदर से बदलना है।

ज़ुबान पर मुबारकबादी और दिल में कालीक.. यह  कभी दीन ने नहीं सिखाया। चाहा यह जा रहा है की हम हक़ीक़त वाली ज़िन्दगी जिए। दिल अंदर से पाक हो और उस तालीम को, जिसे आइम्मा (अ) ने हमें सिखाया है उसे अपनी ज़िन्दगी में अपनाए।

विलादत ए वली ए अव्वल, वली ए मुत्तक़ीन, वली ए अम्र, आयात ए मज़हर ए इलाही इमाम अली (अ) आप सब को बहोत बहोत मुबारक हो।

खुदा हम सब को असली पैरव ए इमाम अली (अ) बनाए और हमारे दिलो को अंदर से पाक करे। इस दिल में मज़लूमो के लिए दर्द और जालिमो से नफरत दे और खुद अपनी ज़िन्दगी से ज़ुल्म को बहार करने की तौफ़ीक़ दे।

27 Apr 2015

Hamari zindagi me Aaimmah (a) se Nazdiki?



हमारी ज़िन्दगी में आइम्मा () से कितनी नज़दीकी हैं?




आज के भाग दौड़ और सोशल मीडिया के दौर में किसी के पास वक़्त नहीं। जिसके पास करने को कुछ नहीं वो भी बिजी नज़र आते है और मोबाइल से अपना सर उठा कर देखने की फुर्सत तक नहीं। मानो जैसे कोई करोडो का बिज़नेस कर रहे हो। और जिनके पास करने के लिए काम है, उनका तो पूछना गुनाह है। सुबह से ले कर शाम ऐसे गुज़रती है जैसे दुरोंतो एक्सप्रेस।

ऐसे बिजी जीवन में दीन और मज़हब के लिए किसी के पास वक़्त कहा। अगर कोई कुछ दीनी बात कर ले या छेड़ दे, उसे ग्रुप वाले सीधे मुल्ला की पदवी (टाइटल) दे देते है। और इस टाइटल से तो बस खुदा ही बचाए, लोग उस शख्स से ऐसे भागेंगे जैसे कोई जिन्न आ रहा हो। देखने में ऐसा लगता है जैसे मज़हब से ज़्यादातर लोगो का कोई लेने देना रहा ही ना हो।

लेकिन जब  बात को गहराई में जा कर देखा जाता है तब पता चलता है कि हर एक शख्स अपनी ज़िन्दगी में दीन और मज़हब से जुड़ा हुआ रहना पसंद करता है, कोई ज़्यादा तो कोई कम। और ये कम ज़्यादा का पैमाना अलग अलग लोगो के लिए अलग है। कोई दान धर्म कर के खुश है, तो कोई हज ज़ियारत पर जा कर, कोई ग़रीबो को खाना खिलाना पसंद करता है, तो कोई तिलावत ए कुरआन पाक, किसी को बजामत नमाज़ पढ़ने में इत्मीनान मिलता है तो किसी को अहलेबैत (अ) की शान में क़सीदे पढ़ कर सुकूने क़ल्ब हासिल करता है। इन सब के बावजूद जब ग्रुप में बात दीन और मज़हब की आती है तो दीनदार कम नज़र आतें है।

अब ज़रा इसी महीने पर नज़र डालिये, माहे रजब के शुरू होते ही कुछ लोग आइम्मा (अ) से जुडे क़सीदे और मनक़बत फॉरवर्ड करने में लग गए। इतने क़सीदे आए की पढ़ना मुश्किल हो गया। और लोग जब फॉरवर्ड करते है तो भी भोलेपन के साथ जैसे की इसे फॉरवर्ड न करेंगे तो बात बिगड़ जाएगी। यहाँ ये बात पर भी ध्यान देना ज़रूरी है की लोग मज़हब को डराने के लिए भी अच्छी तरह से इस्तेमाल करते है।

कुछ लोग तो पिछले दिनों आए भूकम्प (ज़लज़ले) के लिए भी शेर शायरी करते दिखाई जिसमे ज़लज़ले को जनाबे अली असगर (अ) को झूला झुलाने से ताबीर किया गया है। यानी हम इस बात पर राज़ी है की हज़ारों लोग मारे जाए और उसका इलज़ाम हम अहलेबैत (अ) की ज़ात पर डालने से कतराए तक नहीं; यह एक अजीब बात है। इसी तरह के अलग अलग पोस्ट्स सोशल मीडिया पर दिखाई दिए जिससे हमारी क़ौम की सोच का पता चलता है।

सवाल यह उठता है कि हमारी आइम्मा (अ) से कितनी नदजीकी है?

क्या उनसे जुडी मनक़बत पढ़ लेने से या फॉरवर्ड कर देने से बात बन जाएगी? या कुछ और चीज़ हमारी तरफ से चाही जा रही है। क़ुरआन ने रसुलेखुदा (स) और आइम्मा (अ) को इंसानियत के लिए उस्वा (रोल मॉडल) बनाकर भेजा है। इसका मतलब है की हमें अपनी ज़िन्दगी में उनकी छाप उतारनी होगी। सिर्फ नाम के लिए काम कर के बात नहीं बनेगी। नमाज़ पढ़ना, क़ुरआन की तिलावत करना, सदक़ा निकलना, वगैरह तो दिखने वाले अमल है, असली चीज़ तो दिलो का सुधार है।

सबसे पहले हम अपने आप की नियत को चेक करे की मै फूलां काम क्यों कर रहा हु? अगर नियत अल्लाह और अहलेबैत (अ) है, तो फिर हम सही डायरेक्शन (दिशा) में जा रहे है। अगर नियत इससे हटकर लोगो को दिखाना, लाइमलाइट में आना, अपनी शोहरत, अपने दिल को शांति पहुचाने के लिए, या फिर कोई भी दूसरा रीज़न हो तो बेहतर है की काम रोक दे और अपनी नियत सही करे।

आइम्मा (अ) की विलादत पर मुबारकबाद देने के वक़्त भी पहले सोच ले की मै ये क्यों कर रहा हु?

हमें चाहिए की अपनी ज़िंदगी का हर लम्हा जानते हुए गुज़ारे और खुद को बेवकूफ नहीं बनाए। अल्लाह हमारे दिलो के असली हाल से अच्छी तरह वाक़िफ़ है। हमारे लिए राहे आसान है, नियत दुरुस्त करे और फिर कोई भी (ख़ुसूसन दीनी) काम करे। अगर काम लोगो के लिए या खुद के लिए रहेगा तो काम तो हो जाएगा लेकिन फायदे नहीं होगे और मक़सद भी पूरा नहीं होगा।

इन महीनो में, ख़ुसूसन रजब, शाबान और माहे रमज़ान में खास ध्यान अपनी नियत पर रखे। अगर नियत सुधर गई तो कामियाबी हमारे क़दम चूमेगी और अगर सब कुछ कर लिया लेकिन नियत सही नहीं रही, तो मेहनत बेकार चली जाएगी।

आइम्मा (अ) ने खास ध्यान हमें अपनी नियत सुधरने पर देने के लिए कहा है। इसीलिए जो दुआएं हमारे पास आई है उसमे आइम्मा (अ) दिलो के सुधर की तरफ ज़्यादा ध्यान देते दिखाई देते है; और किसी दुनियावी दुआओ का कोई तज़किरा नहीं रहता। मसलन दुआए कुमैल में इमाम अली (अ) अल्लाह से दुआ करते  हैं की मेरे आजा जवारेह (हाथ पैरों) में क़ूवत दे - ताकि मै तेरे दीन की खिदमत कर सकु। यहाँ इमाम अपने ज़िन्दगी के लिए बहोत कुछ मांग सकते थे, लेकिन इमाम ने दीन को ज़्यादा तरजीह दी।

इसी तरह हमें भी चाहिए की कोई भी काम करे, उसमे नियत को दुरुस्त कर ले और उसे खास तौर से अल्लाह के लिए रखे। खास उन दिनों के लिए जो आइम्मा (अ) से मख़्सूस है, आदत डाले की उनसे वसीला इख्तियार करे और उनकी ज़िन्दगी  से सबक ले कर अपनी ज़िन्दगी में लाए ताकि हम  खुदा के क़रीब हो सके। व्हाट्स ऍप पर मुबारकबाद देने के आगे असली काम का आग़ाज़ करे और अपनी ज़िन्दगियों में फ़र्क़ देखे। इंशाल्लाह हम पाएंगे की दुनिया बहोत हसीन है और दूसरे लोग बहोत अच्छे है।


24 Apr 2015

Khoja Jamat Elections - Where do we stand?

खोजा शिया इस्ना अशरी जमात के इलेक्शंस में हम कहाँ ठहरते है?


मुंबई में खोजा शिया हज़रात आज कल अपने आपको एक नए माहोल में महसूस कर रहे होंगे। एक तरफ इलेक्शन कम्पैगन्स और दूसरी तरफ सोशल मीडिया / व्हाट्स ऑप पर लंबे लंबे डिबेट्स। देख कर लग रहा है मानो जो भी प्रेसिडेंट बनेगा, ज़रूर खोजा हज़रात के लिए "अच्छे दिन" ले कर आएगा। दोनों पार्टियाँ लोगो को अपने तरफ लुभाने में जुटी हुई हैं। कही मीटिंग्स है, कही खाने, कही होटल्स में तो कही मस्जिद इमामबाड़ों में। ऐसे में आम जनता को अच्छा खाना ज़रूर मिल रहा है।

इन सब  साथ ऐसा पहली बार दिख रहा है की इलेक्शंस में यूथ्स इतना इन्वॉल्व हो रहे है, शायद ये सोशल मीडिया की देन है। वरना अपने इलाक़े में कैंपेन मीटिंग हो तब पता चलता था की इलेक्शंस आ गए है। इनफार्मेशन के इस दौर में कैंडिडेट्स भी यूथ्स को लुभाने की खासी कोशिशे कर रहे है। विज़न डाक्यूमेंट्स से उन्नति प्रोग्राम पॉइंट्स तक, जितनी राग अलापी जा सकती है सभी का बखूबी इस्तेमाल हो रहा हैं। जो की एक अच्छी पहल है। क़ौम को कॉन्फिडेंस में ले कर ट्रांसपेरेंट तौर पर काम करना  पहल है।

लेकिन इन सब के बीच एक दूसरे पर काफी कीचड़ भी उछाला जा रहा है। मौजूदा प्रेजिडेंट और नए कैंडिडेट्स के बीच ही नहीं, बल्कि उनके सपोर्टर्स के बीच भी घमासान है। उम्मीद है, यह इलेक्शन क़ौम में ना-इत्तेफ़ाक़ी और दरार पैदा ना करे। यहाँ क़ौम को समझना पड़ेगा की इलेक्शंस सही कैंडिडेट को कुर्सी पर इसलिए लाने के लिए हो रहे है ताकि वो अच्छा और फायदेमंद काम कर सके। ना की ऐसे कैंडिडेट को लाने के लिए जो मेरा रिश्तेदार है या मुझे पर कोई फेवर किया हुआ है।

इन इलेक्शंस को समझने के लिए पहले देखना होगा की जमात है क्या चीज़? क्या जमात सिर्फ एक सामाजिक (सोशल) बॉडी है, जिसका मज़हब से कोई लेना देना नहीं है? या फिर ये मज़हब को अच्छी तरह से इम्प्लीमेंट करने का एक ज़रिया है? अगर जमात मज़हबी रुख रखती है तो फिर इस पुरे खेल में मज़हब के जानने वाले उलेमा क्यों नज़र नहीं आते? ये एक जायज़ सवाल है जो हर जमात के मेंबर को अपने कैंडिडेट से पूछना चाहिए और इलेक्शंस के बाद कोशिश करनी चाहिए की उलेमा जमात के लेनदेन और इलेक्शन प्रोसेस में शामिल हो।

इसके साथ ही प्रेसिडेंट / वाईस प्रेसिडेंट की पोस्ट जमात के बड़े लोगो को दुसरो के सामने पेश करती है। ऐसे में उन लोगो का मज़हबी बातो को उनकी ज़िन्दगी में लाना बहोत ज़रूरी हैं। मसलन चेहरे पर दाढ़ी रखना। बाते अच्छे लहजे में करना वगैरह। हम यहाँ किसी पोलिटिकल इलेक्शंस की बाते नहीं कर रहे जहा कोई भी कैसे भी किरदार आदमी खड़ा हो सकता है।

ऐसे सूरत में खुद कैंडिडेट्स की कुछ ज़िम्मेदारियाँ है और हम वोटर्स के कुछ हक़ है जो हम अपने कैंडिडेट्स से तलब कर सकते है।

कैंडिडेट्स की ज़िम्मेदारियाँ:

- इलेक्शंस को ईगो पर न ले
- दीन का काम समझकर सबको साथ ले कर चले
- कम से कम जो चीज़ें दिखने पर वाजिब है, जैसे नमाज़ पढ़ना, दाढ़ी रखना, वगैरह इसका ख्याल रखे। नहीं तो दूसरी क़ौमे हम पर तने कसेगी और क़ौम की बदनामी के लिए कैंडिडेट्स ज़िम्मेदार होगे
- अपनी ज़ात से ऊपर उठ कर, पूरी जमात के भले के लिए प्लानिंग करना जिसमे इकनोमिक मज़बूती, मेडिकल, एजुकेशनल, पोलिटिकल, रिलीजियस, डिपार्टमेंट्स शामिल रखे
- जवानो को अपनी टीम में ले कर उन्हें आगे बढ़ने का मौका दे
- क़ौम में ट्रस्ट बिल्ड करने की तरफ ज़्यादा ध्यान दे ना की तफ़रक़ा कर के इलेक्शंस जितने के लिए काम करे
- छोटे छोटे मसाइल को नज़रअंदाज़ करे और लॉन्ग टर्म प्लानिंग से काम करे
- दीन और मज़हब पर खास ध्यान दे, उसे नज़रअंदाज़ करना अस्ल चीज़ को छोड़ने जैसा है
- याद रहे, ये जमात, ये इलेक्शंस, ये वोटर्स सबकुछ मज़हब की वजह से है और कैंडिडेट इस्लाम की खिदमत के लिए खड़ा हो रहा है।

वोटर्स के हुक़ूक़:
- वोटर्स कैंडिडेट्स से पर्सनल फेवर नहीं मांगे, मसलन घर मिल जाए, या क़र्ज़ माफ़ हो जाए, वगैरह
- वोटर्स भी मज़हब और दीन को सामने रख कर फैसला करे की कौन सा कैंडिडेट मज़हब के ज़्यादा काम आएगा
- वोटर्स खास ध्यान दे की जो वादे किये जा रहे है वो इलेक्शंस के बाद इम्प्लीमेंट हो रहे है या नहीं
- कहीं अपना काम करने के बहाने कैंडिडेट / वोटर मज़हब की बॉर्डर क्रॉस तो नहीं कर रहे हैं?
- जमात के काम काज में उलेमा को अहम किरदार निभाने का मौक़ा दिलाने पर ज़ोर दे
- जमात का कंस्टीटूशन जो काफी पुराना हो चूका है, उसे आज की तारीख के हिसाब से बदलने की मांग करे
- जमात के मेंबर्स के लिए नए स्कीम्स जैसे इन्शुरन्स, मेडिक्लेम, जॉब्स, एजुकेशन, वैगरह पर ज़्यादा ज़ोर दे

याद रहे, अगर वोटर्स आवाज़ नहीं उठाएगे तो कैंडिडेट्स को पता नहीं चलेगा की क्या करना चाहिए। वोटर्स और कैंडिडेट्स साथ मिल कर जमात को एक नई ऊंचाई तक पंहुचा सकते है।  इलेक्शंस के बाद जब काम करने मौका आए तब सारे कैंडिडेट्स और वोटर्स नए चुने गई टीम के साथ मिलकर काम करे। अगर अपोसिशन देना है तो पॉजिटिव अपोसिशन दे और काम को आगे बढ़ाए। इंशाल्लाह अगर क़ौम में इत्तेफ़ाक़ी रही और भरोसा रहा तो क़ौम आगे बढ़ेगी और खुदा नदजीक क़ुरबत के मर्तबे पर पहुंचेगी।

आइये हम (कैंडिडेट्स और वोटर्स) अहद करे की  हम यह इलेक्शंस खुद के लिए नहीं बल्कि खुदा के लिए लड़े और दीन ओ मज़हब के फायदे के लिए काम करे।

Lucknow Shia Ehtijaaj ki Mukhtasar Tarikh

उत्तर प्रदेश, लखनऊ के शियों के एहतेजाज की मुख़्तसर तारीख और उलेमा का इत्तेहाद

आज शिया क़ौम का बहोत बड़ा तब्क़ा चाहता है की शिया उलेमा व ज़केरिन में इत्तेहाद हो। यक़ीनन यह बहोत ही पाक ओ पाकीज़ा ख्याल है जिसकी क़ुबूलयाबी की दुआ हम भी करते रहे हैं।  दुआ करते वक़्त ज़रूरी है की, आज जो समझने के लिए हमें अपने गुज़रे हुए कल को समझना होगा। शिया उलेमा में किसी हद तक इत्तेहाद 1969 और 1974 के शिया - सुन्नी फसादात के कुछ अरसे बाद तक रहा।

1977 में, 21 माहे रमज़ान के जुलूस पर यज़ीदी फ़िरक़े ने हमला किया जिसके बाद हुकूमत ने एक बार फिर शिया जुलूसों पर पाबन्दी लगा दी। शिया लीडरशिप ने, मौलाना कल्बे आबिद साहब से मश्विरा किये बग़ैर, बजाए प्रोटेस्ट करने के, खुद ही आने वाले अशरे की तमाम बड़ी मजलिसें बंद करने का एलान कर दिया। मजलिसे बंद करने का एलान करने के बाद बेश्तर ज़किरीन खुद लखनऊ से दूसरे शहरों और  मुल्कों में मजलिस पढ़ने रवाना हो गए।

मरहूम मौलाना कल्बे आबिद साहब हस्बे मामूल अशरे से एक दिन पहले अलीग़ढ से लखनऊ आए तो इस फैसले से बहोत ज़्यादा अफ़सुर्दा हुए। शिया क़ौम जुलूस और मजलिसें बंद होने से बहोत नाराज़ थी। 5 मुहर्रम, 1977  शियों का एक बड़ा मजमा मौलाना कल्बे आबिद साहब के पास आया और ग़ुफ़्रानमाब में मजलिसे पढ़ने पर इसरार  किया, मौलाना ने उस फैसले की इज़्ज़त रखते हुए अपने घर पर ही 6  मुहर्रम से मजलिस पढ़ना शुरू कर दी।

दूसरे साल, क़ौम के मज़ीद इसरार पर इमाम बड़ा ग़ुफ़रान माब में अशरा फिर से शुरू किया जिसके बाद मदरसा ए नज़्मीयां और शिया कॉलेज में (जो मजलिस पहले इमामबाड़ा नाज़िम साहब में होती थी) मजलिस का सिलसिला शुरू हो गया। मौलाना कल्बे आबिद साहब ने 10 मुहर्रम 1977 से जुलूसों पर पाबन्दी के खिलाफ "कोर्ट अरेस्ट" का सिलसिला शुरू किया। उनका एक मशहूर जुमला जो उन्होंने 1984 में इमामबाड़ा ग़ुफ़रान माब के अशरे की मजलिस में कहा था, "हम गुज़श्ता 7 बरसों से अहतिजाज करते आए हैं। अरे अभी 7 बरस ही हुए हैं। हम कहते हैं की 7 नहीं, 70, बल्कि अगर 700 साल तक भी अज़ादारी के जुलूसों  बहाली के लिए एहतेजाज करना पढ़े तो हम पीछे नहीं हटेंगे।"

अहतिजाज का सिलसिला शुरू हो गया। इस दरमियान सबसे बढ़ा एहतेजाज 1978 में "यौमे फैसला" के नाम से हुआ जिसके रूहे रवां जनाब मौलाना कल्बे जावद साहब, जनाब शकील शम्सी साहब, यासा रिज़वी मरहूम, जुल्किफल रिज़वी व दीगर नौजवान थे। कर्फ्यू तोड़ कर अलम के जुलूस निकाले गए जिसमें लखनऊ का कोई भी मौलाना शरीक नहीं हुआ। शिया क़ौम के नौजवान लखनऊ, सीतापुर, बाराबंकी, फैज़ाबाद और उन्नाओ जेल भेज दिए गए। उन्नाओ जेल में "अली कांग्रेस" क़ायम की गई जिसके सरपरस्त मौलाना कल्बे आबिद साहब और प्रेजिडेंट मौलाना कल्बे जावद साहब मुंतख़िब हुए।

अली कांग्रेस ने मौलाना कल्बे आबिद साहब की सरपरस्ती में अहतिजाजात का एक लम्बा सिलसिला शुरू कर दिया। शियों ने लोक सभा इलेक्शंस बॉयकॉट भी किया जिसके बाद संजय गांधी ने मौलाना कल्बे आबिद साहब के नाम एक खत लिख कर शियों  जुलूस पर से पाबन्दी उठवाने का वादा किया। शियों ने बॉयकॉट वापस लिया और शीला कॉल शिया वोट्स की बिना पर (30,000 वोट्स से) इलेक्शन जीत गई। अफ़सोस की संजय गांधी का वो लेटर क़ौम के एक बड़े लीडर ने अपने पास रख लिया और मौलाना कल्बे आबिद साहब मरहूम से बार बार मांगने के बावजूद वापिस नहीं किया।
जनाब शकील शम्सी और दूसरे नौजवानो के रोज़गार की बिना लखनऊ से चले जाने के बाद प्रोटेस्ट्स का सिलसिला कुछ वक़्त के लिए रुक गया लेकिन यासा मरहूम ने जनाब जावेद मुर्तज़ा साहब को अली कांग्रेस से जोड़ा जिसकी बिना पर एक बार फिर प्रोटेस्ट्स का सिलसिला शुरू हो गया। जावेद साहब को काफी अरसे तक जेल में रहना पढ़ा।  जेल से वापसी के बाद जावेद साहब ने तय किया की क़ानूनी जंग लड़ी जाए।  इस फैसले के बाद अली कांग्रेस ने किसी क़िस्म का प्रोटेस्ट नहीं किया। रफ्ता रफ्ता अली कांग्रेस ने दूसरे इश्यूज पर अपनी तवज्जो मर्कूज़ कर दी जिसकी वजह से क़ौम में काफी इख्तेलाफ़ात पैदा हो गए। धीरे धीरे अली कांग्रेस के ज़्यादातर ओरिजिनल मेंबर्स, बा शमूल; मुअलना कल्बे जावद साहब उससे दूर होते चले गए।

अप्रैल 1997, में 3 शिया नौजवानो ने खुद को आग लगा दी जिसने  अज़ादारी मूवमेंट में एक  बार फिर से नयी रूह फूँक दी। मौलाना कल्बे जावद साहब ने जुलूसों पर  मोहाज़ खोल दिया और मई 1997 में जनाब अब्दुल्लाह बुखारी साहब को लखनऊ बुलाया की वो शिया और सुन्नी के दरमियान सुलह करवाएं। शियों की तमाम लीडरशिप  अब्दुल्लाह बुखारी का बॉयकॉट किया जबकि सुन्नी लीडरशिप ने उनके साथ निहायत बद-तहज़ीबी का मुज़हेरा किया।

3 जून, 1997 को अब्दुल्लाह बुखारी मरहूम, मौलाना क़मर मिनाई मरहूम (सज्जादा नशीन दरगाह शाह मीणा) और मौलाना कल्बे जावद साहब को गिरफ्तार कर लिया गया जिसके बाद पूरी शिया क़ौम सड़कों पर आ गई विधान सभा का अज़ीमुश्शान घेराओ किया गया। फ़ौरन ही सरकार को झुकना पढ़ा और तीनो लीडर्स रिहा कर दिए गए।

9 जून 1997, को मौलाना कल्बे जवाद साहब ने अपने घर पर तमाम अंजुमनों का जलसा किया जिसमे 115 अंजुमनें शरीक हुई। उस जलसे में तय पाया की हुकूमत को अल्टीमेटम दिया जाये की अगर 18 सफर (24 जून) तक पाबन्दी नहीं हठती है तो तमाम शिया, बरोज़ ए चेहलुम (26 जून, 1997) 1 बजे दिन को अपने घरों से निकल कर कर्बला तालकटोरा तक अलम का जुलूस ले जाएंगे। हुकूमत ने बहोत डराया धमकाया लेकिन क़ौम अपने  फैसले पर अटल रही और हुकूमत ने शब ए चेहलुम से कर्फ्यू लगा दिया और पुराने लखनऊ को पुलिस छावनी बना दिया।

एलान के मुताबिक़ चेहलुम के रोज़ मौलाना जावद साहब ठीक 1 बजे अपने घर से पुलिस का घेराओ तोड़ कर निकले। उस वक़्त तक तक़रीबन हर शिया सड़क पर मौजूद था (सिवाए लखनऊ के दूसरे शिया उलेमा और ज़केरिन के जो अपने घरों में घुसे रहे). पुलिस ने ज़बरदस्त लाठी चार्ज किया, आंसू गैस और हवा में गोलियां भी चलाई लेकिन क़ौम को डरा न सके। हज़ारों लोग अलम का जुलूस ले कर कर्बला तालकटोरा पहुंच गए। पुलिस ने हज़ारो मर्दों, औरतों (जिनमे मौलाना कल्बे जवाद साहब के घरवाले भी शामिल थे) को गिरफ्तार करके पुलिस लाइन ले गए। हज़ारों को देर रात छोड़ दिया और कई हज़ार को सीतापुर, उन्नाओ और लखनऊ जेल भेज दिया।

28 जून 1997 की सुबह 4 बजे मौलाना कल्बे जवाद साहब को उनके घर से गिरफ्तार कर लिया गया और उनपर NSA (नेशनल सिक्योरिटी एक्ट) लगा कर ललित पूरी जेल भेज दिया।  मौलाना के गिरफ़्तारी की खबर जंगल में आग की तरह फ़ैल गई और एक बार फिर शिया कर्फ्यू तोड़ कर सड़कों पर आ गए। कई जगह हथगोले और बंदूक की गोलियां भी चलीं। दो दिन बाद मौलाना के भाई और कई अज़ीज़ों को भी गिरफ्तार कर लिया गया और उनको 307 और कई दूसरी सख्त दफा लगाकर TADA के खतरनाक मुजरिमों के साथ लखनऊ जेल में क़ैद कर दिया गया।

अब शिया क़ौम मौलाना को रिहा करवाने  एहतिजाज करने लगे। औरतों ने कमान संभाल ली। उन्होंने हिन्दू औरतों का लिबास पहना और एक अर्थी के साथ गोमती नदी गई और  वहां से बोट पर बैठ कर नदी पार करके DM और CM के घरों के घेराओ कर दिया।

क़ौम की औरतें घरों में बैठे उलेमा  ज़ाकेरिन के घर उनको शर्म दिलाने गई (एक पर तो जूतियां भी फेंकी और चूड़ियाँ पेश की) जिसके बाद एक मौलाना को छोड़ कर सब ने तीसरे दिन अपने को गिरफ़्तारी के लिए पेश किया और लखनऊ जेल में पनाह ली।

दूसरे शहरों और मुल्कों में ज़बरदस्त प्रोटेस्ट्स हुए और एलान हुआ की अगर 7 रबी उल अव्वल तक मौलाना को रिहा नहीं किया तो दूसरे शहर के शिया 8 रबी उल अव्वल को लखनऊ पर धावा बोल देंगे। हुकूमत हार गई और मौलाना कल्बे जवाद साहब व दीगर शिया कैदियों को 8 जुलाई, 1997 को रिहा कर दिया गया।

9 जुलाई, 1997 के तमाम बड़े अखबारात ने हैडलाइन लगाई "हुकूमत ने घुटने टेक दिए, मौलाना कल्बे जवाद रिहा". हुकूमत ने एक हाई लेवल कमिटी नॉमिनेट की और तीन महीने में सोलुशन का वादा किया। हुकूमत ने शिया - सुन्नी लीडर्स से मुज़केरात के बाद एक ट्राई पार्टी एग्रीमेंट साइन करवाया (शिया - सुन्नी - डिस्ट्रिक्ट एडमिनिस्ट्रेशन) जिसके बाद शियों का पहला जुलूस 21 माहे रमज़ान (जनवरी, 1998) के दिन उठा और माशाल्लाह शियो को  9 दिन अपने जुलूस उठाने की इजाज़त मिल गई (1, 7, 8, 9 और 10 मुहर्रम, चेहलुम, 8 रबी उल अव्वल, 19 और 21 माहे रमज़ान).

मौलाना कल्बे जवाद साहब ने अब वक़्फ़ की प्रॉपर्टीज आज़ाद करवाने का बेडा उठाया  बदौलत इमामबाड़ा सिब्तैनाबाद, आलम नगर की 8 बीघा ज़मीन (जहाँ आज शिया कॉलोनी बन गई है और सैकड़ो शिया आबाद है), आसफ़ी मस्जिद के पुश्त की ज़मीन जिस पर LDA ने कब्ज़ा किया था (और जिसकी बिना पर मौलाना पर केस भी दर्ज हुआ था और अभी कुछ दिनों पहले केस वापस लिया गया है)

मौलाना कल्बे जवाद साहब ने दो साल क़ब्ल बहोत से सीनियर उलेमा के साथ मजलिस ए उलेमा ए हिन्द की बुनियाद डाली जो शियों के हुक़ूक़ की बाज़याबी के लिए जद्दो जेहद कर रही है। इस तंज़ीम में भी लखनऊ का कोई भी आलिम ए दीन या ज़ाकिर शामिल नहीं है।

ऊपर लिखे हालात से वाज़ेह हो गया होगा की लखनऊ के तक़रीबन तमाम उलेमा व ज़ाकिरीन हज़रात ने अब तक किसी क़ौमी मसले में न तो मौलाना कल्बे आबिद साहब का साथ दिया, न ही मौलाना कल्बे जवाद साहब का और न ही मजलिस ए उलेमा ए हिन्द का। बल्कि अक्सर ओ बेश्तर तहरीक को कमज़ोर करने की कोशिशें ही करते दिखाई दिए। जबकि मौलाना कल्बे आबिद साहब और मौलाना कल्बे जवाद साहब ने हमेशा उलेमा को साथ आने की दवात दी (मौलाना कल्बे जवाद साहब तो यह भी कहते हैं की  मैं तो छोटा हूँ, सीनियर उलेमा को मुझे खुद हुक्म देना चाहिए और मैं उनके पीछे चलने को तैयार हूँ। )

Sayyad ki Ghair Sayyad se Shadi Sayyad ki Ghair Sayyad se Shadi

“नस्ल और नसब की फजीलत सिर्फ तब है जब इंसान मुत्तकी हो, वरना नहीं!” अल काफी में इमाम जाफ़र सादिक (अ) फरमाते है के जब रसुलेखुदा (स) ने ...

विलादते इमाम अली (अ) मुबारक विलादते इमाम अली (अ) मुबारक

शबे विलादते इमाम अली (अ) में मैं एक फोरार्ड मेसेज; जो की विलादत की मुबारकबाद पेश करने के लिए था.. अपने व्हाट्स ऍप ग्रुप पर पोस्ट किया। ये सो...

Hamari zindagi me Aaimmah (a) se Nazdiki? Hamari zindagi me Aaimmah (a) se Nazdiki?

हमारी ज़िन्दगी में आइम्मा ( अ ) से कितनी नज़दीकी हैं ? आज के भाग दौड़ और सोशल मीडिया के दौर में किसी के पास वक़्त नहीं। जिसके ...

Khoja Jamat Elections - Where do we stand? Khoja Jamat Elections - Where do we stand?

खोजा शिया इस्ना अशरी जमात के इलेक्शंस में हम कहाँ ठहरते है? मुंबई में खोजा शिया हज़रात आज कल अपने आपको एक नए माहोल में महसूस कर रहे होंगे।...

Lucknow Shia Ehtijaaj ki Mukhtasar Tarikh Lucknow Shia Ehtijaaj ki Mukhtasar Tarikh

उत्तर प्रदेश, लखनऊ के शियों के एहतेजाज की मुख़्तसर तारीख और उलेमा का इत्तेहाद आज शिया क़ौम का बहोत बड़ा तब्क़ा चाहता है की शिया उलेमा व ज़केरिन ...

Contact Form

Name

Email *

Message *

Comments