30 Aug 2020
6 Oct 2017
Azadari Ne is Qaum ko Zinda Rakha hai - Imam Khomeini (a.r.)
Humne aksar suna hai ki humari qaum ko azadari ne zinda rakha hai; jo sunne me bahot achcha aur dil ko chu lene wali baat hai.
Lekin agar ise haqiqat ki nigah se dekhe to ye samajh pana thoda mushkil dikhai deta hai.
Kuch log kahege ki hum zinda to khana khane aur pani peene se hai; azadari se kaise?
Kuch log kehte hai ki duniya me sirf humari qaum thodi hi zinda hai? Har dusri qaum is duniya me zinda hai masalan Hindu, Buddh, Isai, Sunni, wagairah.
Phir ye kaise kaha jata hai ki is Azadari ne hume zinda rakha hai?
Hume ye dekhna hoga ki "Zinda" kise kaha jaata hai?
- Kya khana khane aur pani peekar jo log saase le rahe hai wo Zinda hai?
- Kya wo log zinda hai jo is Maddi duniya ke liye apna sabkuch bech dete hai?
- Kya kisi zalim ke dar se uske zulm ko sehte hue jeena zinda rehna hai?
- Aise bahot se sawal khade hote hai jab "Zindagi" ki baat aati hai.
Aaiye dekhte hai Azadari hume kya sikhati hai?
Azadari hume sikhati hai ki Izzat ki maut zillat ki zindagi se bahot behtar hai.
Karbala hume dars de rahi hai ki hum bhooke aur pyase shaheed to ho sakte hai, lekin zillat nahi tasleem kar sakte.
Jo qaum maut se ladna seekh jaae use koi nahi hara sakta.
Aaiye ab dekhte hai ki Imam Khomeini apne is statement "Aaj tak is qaum ko Azadari ne zinda rakha hai" se wo kya kehna chah rahe hai?
Inqelab e Islami se pehle wala Iran hum sab ko pata hai, jaha fahasha aam tha, ise Middle East ka Paris kaha jata tha aur yaha ka Baadshah Reza Shah, jo ki bazahir Shia tha lekin American puppet tha, Iran me hijab par bhi pabandi lagane ki baat kar raha tha.
Imam Khomeini ne jab Reza Shah ke khilaaf muhaaz khola, tamam Irani qaum ne Imam Khomeini ki awaaz par labbaik kaha aur ek saath mil kar kaha tha ki "Hum bhooke pyase rehne ko tayyar hai, apne seeno par goliya khane ko tayyar hai, sanctions jhelne ko tayyar hai lekin Reza Shah ke zalim raj me rehne ko ek din ke liye tayyar nahi hai".
- Is qaum me ye jazba kaha se aaya?
- Kyu aisa jazba dusri qaum me nahi hai?
- Kyu dusri qaum me jo inqelab aae hai wo Maddi the aur khane peene par khatm ho jaate the?
Kyuki is qaum ne apna dars Karbala se seekha hai jaha ye sikhaya jata hai ji asl zindagi izzat se hasil hoti hai aur asl izzat Allah ki Riza me hai aur Allah ki Riza Adl ke liye ladne aur Zalim ke khilaaf apni awaaz buland karne me hai.
Humare saamne aisi bahot si qaum hai jo apne inqelab ke shuruaati daur me to bahot josh me rehti hai lekin kuch dino baad zalim se mil jaati hai ya zalim use todne me kamiyab ho jata hai.
Lekin hum saaf taur par dekh sakte hai ki jo Inqelab Imam Khomeini ne laya tha wo aaj bhi zinda hai aur Irani qaum ne Karbala se dars hasil karte hue Zalim America ke saamne kabhi apne irade kamzor nahi hone diye.
Is qaum ne hamesha apne Shohoda ki izzat ki hai. Is qaum ne Iran Iraq jang me 5 lakh jawano ki qurbani qabul ki lekin Zalim America ke saamne jhukna pasand nahi kiya.
Agar hum bhi sahi tariqe se Karbala ko samjh kar us par amal kare to inshaAllah hum bhi dekhege ki hum kisi bhi mulk me ho ya kisi bhi shahar me ho Allah ki madad humare saath rahegi aur hum bhi surkhru hoge.
Beshak Rasul e Khuda (s) ne sach kaha hai ki "Imam Hussain (a) ki shahadat me wo aag aur hararat hai jo Momineen ko qayamat tak (Zulm ke khilaaf) khamoshi se baithne nahi degi."
Aao ek kaam kare..
Karbala aam kare.
Tehrir: Abbas Hindi
11 Oct 2016
करबला - इंकेलाबी या रुसुमी?
Karbala – Inqelabi ya Rusumi?
9 Oct 2016
Muharram aur Mazloom ki Himayat
*शब्बीर अगर तेरी अज़ादारी ना होती..*
*मज़लूम की दुनिया में तरफदारी ना होती।*
यह जुमले नदीम सरवर के नौहे के बंद नहीं बल्कि मुहर्रम में और अपनी ज़िन्दगी में हर मज़लूम के लिए आवाज़ उठाने के लिए पैग़ाम है।
लेकिन अफ़सोस, इन्ही मुहर्रम के दिनों में *ज़ालिम सऊदी हुकूमत* मज़लूम *यमन* पर _*अमेरिका, बर्तानिया और इजराइल*_ की मदद से हमले कर के हज़ारों मज़्लूमो की जान ले रहा है और हमारे मिम्बर खामोश है।
*अपने आप से सवाल करीये ऐसा क्यों?* 🤔🤔
क्या हमने हमारे ज़ाकिरो से इस मसले पर बात करी?
क्या ज़ाकिरो को यह एहसास है कि हम ज़िंदा क़ौम है और दुनिया में हो रहे मसाएल से बाख़बर है?
अगर हमने अभी तक ऐसा नहीं किया है तो आज ही अपने मकामी ज़ाकिर से कहिये की *मुहर्रम के इन मुक़द्दस दिनों में शोहोदा ए यमन पर रौशनी डाले। अगर ज़ाकिर को इस मौज़ू के बारे में पता नहीं है तो वे पता कर के इस ज़रुरी बात को रखे*
हमारी बेदारी हमे ज़िंदा रखेगी और हमारी आने वाली नस्लो तक मुहर्रम का पैग़ाम पहुँचेगा।
www.qaumihalaat.in
3 May 2016
Shia Personal Law Board aur Shia People's Party - Kuch Sawalaat!!
4 Nov 2015
हुसैन (अ) किस के हैं?
3 Nov 2015
Hussain (a) kis ke hai?
24 Apr 2015
Lucknow Shia Ehtijaaj ki Mukhtasar Tarikh
आज शिया क़ौम का बहोत बड़ा तब्क़ा चाहता है की शिया उलेमा व ज़केरिन में इत्तेहाद हो। यक़ीनन यह बहोत ही पाक ओ पाकीज़ा ख्याल है जिसकी क़ुबूलयाबी की दुआ हम भी करते रहे हैं। दुआ करते वक़्त ज़रूरी है की, आज जो समझने के लिए हमें अपने गुज़रे हुए कल को समझना होगा। शिया उलेमा में किसी हद तक इत्तेहाद 1969 और 1974 के शिया - सुन्नी फसादात के कुछ अरसे बाद तक रहा।
1977 में, 21 माहे रमज़ान के जुलूस पर यज़ीदी फ़िरक़े ने हमला किया जिसके बाद हुकूमत ने एक बार फिर शिया जुलूसों पर पाबन्दी लगा दी। शिया लीडरशिप ने, मौलाना कल्बे आबिद साहब से मश्विरा किये बग़ैर, बजाए प्रोटेस्ट करने के, खुद ही आने वाले अशरे की तमाम बड़ी मजलिसें बंद करने का एलान कर दिया। मजलिसे बंद करने का एलान करने के बाद बेश्तर ज़किरीन खुद लखनऊ से दूसरे शहरों और मुल्कों में मजलिस पढ़ने रवाना हो गए।
मरहूम मौलाना कल्बे आबिद साहब हस्बे मामूल अशरे से एक दिन पहले अलीग़ढ से लखनऊ आए तो इस फैसले से बहोत ज़्यादा अफ़सुर्दा हुए। शिया क़ौम जुलूस और मजलिसें बंद होने से बहोत नाराज़ थी। 5 मुहर्रम, 1977 शियों का एक बड़ा मजमा मौलाना कल्बे आबिद साहब के पास आया और ग़ुफ़्रानमाब में मजलिसे पढ़ने पर इसरार किया, मौलाना ने उस फैसले की इज़्ज़त रखते हुए अपने घर पर ही 6 मुहर्रम से मजलिस पढ़ना शुरू कर दी।
दूसरे साल, क़ौम के मज़ीद इसरार पर इमाम बड़ा ग़ुफ़रान माब में अशरा फिर से शुरू किया जिसके बाद मदरसा ए नज़्मीयां और शिया कॉलेज में (जो मजलिस पहले इमामबाड़ा नाज़िम साहब में होती थी) मजलिस का सिलसिला शुरू हो गया। मौलाना कल्बे आबिद साहब ने 10 मुहर्रम 1977 से जुलूसों पर पाबन्दी के खिलाफ "कोर्ट अरेस्ट" का सिलसिला शुरू किया। उनका एक मशहूर जुमला जो उन्होंने 1984 में इमामबाड़ा ग़ुफ़रान माब के अशरे की मजलिस में कहा था, "हम गुज़श्ता 7 बरसों से अहतिजाज करते आए हैं। अरे अभी 7 बरस ही हुए हैं। हम कहते हैं की 7 नहीं, 70, बल्कि अगर 700 साल तक भी अज़ादारी के जुलूसों बहाली के लिए एहतेजाज करना पढ़े तो हम पीछे नहीं हटेंगे।"
अहतिजाज का सिलसिला शुरू हो गया। इस दरमियान सबसे बढ़ा एहतेजाज 1978 में "यौमे फैसला" के नाम से हुआ जिसके रूहे रवां जनाब मौलाना कल्बे जावद साहब, जनाब शकील शम्सी साहब, यासा रिज़वी मरहूम, जुल्किफल रिज़वी व दीगर नौजवान थे। कर्फ्यू तोड़ कर अलम के जुलूस निकाले गए जिसमें लखनऊ का कोई भी मौलाना शरीक नहीं हुआ। शिया क़ौम के नौजवान लखनऊ, सीतापुर, बाराबंकी, फैज़ाबाद और उन्नाओ जेल भेज दिए गए। उन्नाओ जेल में "अली कांग्रेस" क़ायम की गई जिसके सरपरस्त मौलाना कल्बे आबिद साहब और प्रेजिडेंट मौलाना कल्बे जावद साहब मुंतख़िब हुए।
अली कांग्रेस ने मौलाना कल्बे आबिद साहब की सरपरस्ती में अहतिजाजात का एक लम्बा सिलसिला शुरू कर दिया। शियों ने लोक सभा इलेक्शंस बॉयकॉट भी किया जिसके बाद संजय गांधी ने मौलाना कल्बे आबिद साहब के नाम एक खत लिख कर शियों जुलूस पर से पाबन्दी उठवाने का वादा किया। शियों ने बॉयकॉट वापस लिया और शीला कॉल शिया वोट्स की बिना पर (30,000 वोट्स से) इलेक्शन जीत गई। अफ़सोस की संजय गांधी का वो लेटर क़ौम के एक बड़े लीडर ने अपने पास रख लिया और मौलाना कल्बे आबिद साहब मरहूम से बार बार मांगने के बावजूद वापिस नहीं किया।
जनाब शकील शम्सी और दूसरे नौजवानो के रोज़गार की बिना लखनऊ से चले जाने के बाद प्रोटेस्ट्स का सिलसिला कुछ वक़्त के लिए रुक गया लेकिन यासा मरहूम ने जनाब जावेद मुर्तज़ा साहब को अली कांग्रेस से जोड़ा जिसकी बिना पर एक बार फिर प्रोटेस्ट्स का सिलसिला शुरू हो गया। जावेद साहब को काफी अरसे तक जेल में रहना पढ़ा। जेल से वापसी के बाद जावेद साहब ने तय किया की क़ानूनी जंग लड़ी जाए। इस फैसले के बाद अली कांग्रेस ने किसी क़िस्म का प्रोटेस्ट नहीं किया। रफ्ता रफ्ता अली कांग्रेस ने दूसरे इश्यूज पर अपनी तवज्जो मर्कूज़ कर दी जिसकी वजह से क़ौम में काफी इख्तेलाफ़ात पैदा हो गए। धीरे धीरे अली कांग्रेस के ज़्यादातर ओरिजिनल मेंबर्स, बा शमूल; मुअलना कल्बे जावद साहब उससे दूर होते चले गए।
अप्रैल 1997, में 3 शिया नौजवानो ने खुद को आग लगा दी जिसने अज़ादारी मूवमेंट में एक बार फिर से नयी रूह फूँक दी। मौलाना कल्बे जावद साहब ने जुलूसों पर मोहाज़ खोल दिया और मई 1997 में जनाब अब्दुल्लाह बुखारी साहब को लखनऊ बुलाया की वो शिया और सुन्नी के दरमियान सुलह करवाएं। शियों की तमाम लीडरशिप अब्दुल्लाह बुखारी का बॉयकॉट किया जबकि सुन्नी लीडरशिप ने उनके साथ निहायत बद-तहज़ीबी का मुज़हेरा किया।
3 जून, 1997 को अब्दुल्लाह बुखारी मरहूम, मौलाना क़मर मिनाई मरहूम (सज्जादा नशीन दरगाह शाह मीणा) और मौलाना कल्बे जावद साहब को गिरफ्तार कर लिया गया जिसके बाद पूरी शिया क़ौम सड़कों पर आ गई विधान सभा का अज़ीमुश्शान घेराओ किया गया। फ़ौरन ही सरकार को झुकना पढ़ा और तीनो लीडर्स रिहा कर दिए गए।
9 जून 1997, को मौलाना कल्बे जवाद साहब ने अपने घर पर तमाम अंजुमनों का जलसा किया जिसमे 115 अंजुमनें शरीक हुई। उस जलसे में तय पाया की हुकूमत को अल्टीमेटम दिया जाये की अगर 18 सफर (24 जून) तक पाबन्दी नहीं हठती है तो तमाम शिया, बरोज़ ए चेहलुम (26 जून, 1997) 1 बजे दिन को अपने घरों से निकल कर कर्बला तालकटोरा तक अलम का जुलूस ले जाएंगे। हुकूमत ने बहोत डराया धमकाया लेकिन क़ौम अपने फैसले पर अटल रही और हुकूमत ने शब ए चेहलुम से कर्फ्यू लगा दिया और पुराने लखनऊ को पुलिस छावनी बना दिया।
एलान के मुताबिक़ चेहलुम के रोज़ मौलाना जावद साहब ठीक 1 बजे अपने घर से पुलिस का घेराओ तोड़ कर निकले। उस वक़्त तक तक़रीबन हर शिया सड़क पर मौजूद था (सिवाए लखनऊ के दूसरे शिया उलेमा और ज़केरिन के जो अपने घरों में घुसे रहे). पुलिस ने ज़बरदस्त लाठी चार्ज किया, आंसू गैस और हवा में गोलियां भी चलाई लेकिन क़ौम को डरा न सके। हज़ारों लोग अलम का जुलूस ले कर कर्बला तालकटोरा पहुंच गए। पुलिस ने हज़ारो मर्दों, औरतों (जिनमे मौलाना कल्बे जवाद साहब के घरवाले भी शामिल थे) को गिरफ्तार करके पुलिस लाइन ले गए। हज़ारों को देर रात छोड़ दिया और कई हज़ार को सीतापुर, उन्नाओ और लखनऊ जेल भेज दिया।
28 जून 1997 की सुबह 4 बजे मौलाना कल्बे जवाद साहब को उनके घर से गिरफ्तार कर लिया गया और उनपर NSA (नेशनल सिक्योरिटी एक्ट) लगा कर ललित पूरी जेल भेज दिया। मौलाना के गिरफ़्तारी की खबर जंगल में आग की तरह फ़ैल गई और एक बार फिर शिया कर्फ्यू तोड़ कर सड़कों पर आ गए। कई जगह हथगोले और बंदूक की गोलियां भी चलीं। दो दिन बाद मौलाना के भाई और कई अज़ीज़ों को भी गिरफ्तार कर लिया गया और उनको 307 और कई दूसरी सख्त दफा लगाकर TADA के खतरनाक मुजरिमों के साथ लखनऊ जेल में क़ैद कर दिया गया।
अब शिया क़ौम मौलाना को रिहा करवाने एहतिजाज करने लगे। औरतों ने कमान संभाल ली। उन्होंने हिन्दू औरतों का लिबास पहना और एक अर्थी के साथ गोमती नदी गई और वहां से बोट पर बैठ कर नदी पार करके DM और CM के घरों के घेराओ कर दिया।
क़ौम की औरतें घरों में बैठे उलेमा ज़ाकेरिन के घर उनको शर्म दिलाने गई (एक पर तो जूतियां भी फेंकी और चूड़ियाँ पेश की) जिसके बाद एक मौलाना को छोड़ कर सब ने तीसरे दिन अपने को गिरफ़्तारी के लिए पेश किया और लखनऊ जेल में पनाह ली।
दूसरे शहरों और मुल्कों में ज़बरदस्त प्रोटेस्ट्स हुए और एलान हुआ की अगर 7 रबी उल अव्वल तक मौलाना को रिहा नहीं किया तो दूसरे शहर के शिया 8 रबी उल अव्वल को लखनऊ पर धावा बोल देंगे। हुकूमत हार गई और मौलाना कल्बे जवाद साहब व दीगर शिया कैदियों को 8 जुलाई, 1997 को रिहा कर दिया गया।
9 जुलाई, 1997 के तमाम बड़े अखबारात ने हैडलाइन लगाई "हुकूमत ने घुटने टेक दिए, मौलाना कल्बे जवाद रिहा". हुकूमत ने एक हाई लेवल कमिटी नॉमिनेट की और तीन महीने में सोलुशन का वादा किया। हुकूमत ने शिया - सुन्नी लीडर्स से मुज़केरात के बाद एक ट्राई पार्टी एग्रीमेंट साइन करवाया (शिया - सुन्नी - डिस्ट्रिक्ट एडमिनिस्ट्रेशन) जिसके बाद शियों का पहला जुलूस 21 माहे रमज़ान (जनवरी, 1998) के दिन उठा और माशाल्लाह शियो को 9 दिन अपने जुलूस उठाने की इजाज़त मिल गई (1, 7, 8, 9 और 10 मुहर्रम, चेहलुम, 8 रबी उल अव्वल, 19 और 21 माहे रमज़ान).
मौलाना कल्बे जवाद साहब ने अब वक़्फ़ की प्रॉपर्टीज आज़ाद करवाने का बेडा उठाया बदौलत इमामबाड़ा सिब्तैनाबाद, आलम नगर की 8 बीघा ज़मीन (जहाँ आज शिया कॉलोनी बन गई है और सैकड़ो शिया आबाद है), आसफ़ी मस्जिद के पुश्त की ज़मीन जिस पर LDA ने कब्ज़ा किया था (और जिसकी बिना पर मौलाना पर केस भी दर्ज हुआ था और अभी कुछ दिनों पहले केस वापस लिया गया है)
मौलाना कल्बे जवाद साहब ने दो साल क़ब्ल बहोत से सीनियर उलेमा के साथ मजलिस ए उलेमा ए हिन्द की बुनियाद डाली जो शियों के हुक़ूक़ की बाज़याबी के लिए जद्दो जेहद कर रही है। इस तंज़ीम में भी लखनऊ का कोई भी आलिम ए दीन या ज़ाकिर शामिल नहीं है।
ऊपर लिखे हालात से वाज़ेह हो गया होगा की लखनऊ के तक़रीबन तमाम उलेमा व ज़ाकिरीन हज़रात ने अब तक किसी क़ौमी मसले में न तो मौलाना कल्बे आबिद साहब का साथ दिया, न ही मौलाना कल्बे जवाद साहब का और न ही मजलिस ए उलेमा ए हिन्द का। बल्कि अक्सर ओ बेश्तर तहरीक को कमज़ोर करने की कोशिशें ही करते दिखाई दिए। जबकि मौलाना कल्बे आबिद साहब और मौलाना कल्बे जवाद साहब ने हमेशा उलेमा को साथ आने की दवात दी (मौलाना कल्बे जवाद साहब तो यह भी कहते हैं की मैं तो छोटा हूँ, सीनियर उलेमा को मुझे खुद हुक्म देना चाहिए और मैं उनके पीछे चलने को तैयार हूँ। )
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