4 Nov 2015

हुसैन (अ) किस के हैं?







इमाम हुसैन (अ) एक ऐसी शक्सियत है जिससे हर कोई अपने आप को जोड़ता दिखाई देता है. कोई उन्हें उनके रसूलल्लाह (स) के निस्बत से मोहतरम समझता है तो कोई उन्हें इमामे मासूम बुलाकर एहतेराम देते है. वही पर कुछ ऐसे भी हैं जो इमाम हुसैन (अ) को उनके सच और आज़ादी के लिए ज़ालिम के खिलाफ कयाम के लिए अपना रोल मॉडल जानते है. बात इतनी ही रहती तो सही था; लेकिन कुछ शर पसंद लोग इस कनेक्शन को साबित करते हुए दुसरो को काफिर और जहन्नुमी तक कह बैठते है; जो किसी भी सूरत में सही नहीं है.


आइये! हम इमाम हुसैन (अ) की ज़िन्दगी में झक कर देखे की हुसैन (अ) किसके है?


हमने इमाम हुसैन (अ) से जुडी हुई वाकेआत में सुना है की अपने बचपन में इमाम हुसैन (अ) एक इसाई रहिब की सिफारिश ले कर अपने नाना के पास गए थे और उसकी मदद की थी. इमाम हुसैन (अ) और एक ग़ैर मुसलमान की मदद? क्या बात हैरान करने वाली नहीं है?

अपने करबला के सफ़र पर इमाम हुसैन (अ) बहोत से लोगो से मिले; उन्हें अपनी बाते समझाने की कोशिश करी. इस दौरान बहोत से ऐसे थे जो इमाम को चाहते थे और कितने ही इमाम के मुखालिफ. लेकिन इमाम (अ) हर किसी के पास जा कर अपनी बात बताते और बहोत से इलाकों में जहा वे खुद नहीं पहुच सकते थे, अपने कासिद को भेजा और ज़ुल्म के खिलाफ खड़े होने का अपना पैग़ाम सभी को पहुचाया.

क्या इमाम (अ) का पैग़ाम सिर्फ उनके चाहने वालो के लिए था? क्या इमाम (अ) ने ग़ैर मुसलमानों को अपने पैग़ाम से दूर रखा था? क्या यज़ीदी फ़ौज को इमाम (अ) ने दुश्मन बता कर उन्हें अपने पैग़ाम से दूर रखा था?

इन सब का जवाब एक ही है; “पैग़ाम-ए-हुसैन इब्ने अली (अ) हर इंसान के लिए था और ता क़यामत हर इंसान के लिए रहेगा”

इमाम (अ) मक्का पहुच कर ऐसे लोगो से भी मिले जिनमे आप से मुख्तलिफ फ़िक्र रखने वाले लोग मौजूद थे मसलन अब्दुल्लाह इब्ने जुबैर. इमाम (अ) ऐसे लोगो तक भी अपना पैग़ाम पहुचाया जो इमाम (अ) के बिलकुल खिलाफ़ थे और तीसरे खलीफा के खास मानने वाले थे जैसे जनाबे ज़ोहैर-ए-कैन. इमाम (अ) यहीं पर नहीं रुके, बल्कि ऐसे लोगो तक पहुचे जो यज़ीदी फ़ौज के आम सिपाही नहीं; सिपहसालार थे जैसे जनाबे हुर.

हम आज अपनी सोसाइटी को देखे; क्या हम इमाम हुसैन (अ) की सीरत पर अमल कर रहे है?

अगर शिया से पूछो तो सुन्नी को बातिल करार देते है और खुद को जन्नत का हक़दार समझते है. उसी तरह सुन्नी हजरात शिया को इमाम हुसैन (अ) का कातिल बताकर ये अफवाह उड़ाते है की ये मातम और गिरिया अपने बाप दादा की गलतियों की माफ़ी के लिए है. बात इतनी आगे पहुच गई है की हिन्दू या इसाई या किसी और को कर्बला, मुहर्रम और इमाम हुसैन (अ) के पैग़ाम से दूर रखने की पूरी पूरी कोशिश की जाती है और ये कहा जाता है की तुम कुछ भी कर लो लेकिन कामियाब नहीं हो सकते क्युकी जन्नत के सिर्फ और सिर्फ हम हक़दार है.

क्या यही सीरते इमाम (अ) है?

गाँधी, मंडेला और न जाने कितने क्रांतिकारियों ने कर्बला से दर्स हासिल कर के बड़े बड़े मुल्को और कौमो को ज़ुल्म से निजात दिलाई और हम है की अपने आप को इसी मुहर्रम और कर्बला से जन्नत का हक़दार साबित करते है.

क्या ये इमाम हुसैन (अ) के पैग़ाम के साथ वफादारी है? 
क्या हम उस अज़ीम कुर्बानी का हक अदा कर रहे है?

तहरीर: अब्बास हिंदी

0 comments:

Post a Comment







इमाम हुसैन (अ) एक ऐसी शक्सियत है जिससे हर कोई अपने आप को जोड़ता दिखाई देता है. कोई उन्हें उनके रसूलल्लाह (स) के निस्बत से मोहतरम समझता है तो कोई उन्हें इमामे मासूम बुलाकर एहतेराम देते है. वही पर कुछ ऐसे भी हैं जो इमाम हुसैन (अ) को उनके सच और आज़ादी के लिए ज़ालिम के खिलाफ कयाम के लिए अपना रोल मॉडल जानते है. बात इतनी ही रहती तो सही था; लेकिन कुछ शर पसंद लोग इस कनेक्शन को साबित करते हुए दुसरो को काफिर और जहन्नुमी तक कह बैठते है; जो किसी भी सूरत में सही नहीं है.


आइये! हम इमाम हुसैन (अ) की ज़िन्दगी में झक कर देखे की हुसैन (अ) किसके है?


हमने इमाम हुसैन (अ) से जुडी हुई वाकेआत में सुना है की अपने बचपन में इमाम हुसैन (अ) एक इसाई रहिब की सिफारिश ले कर अपने नाना के पास गए थे और उसकी मदद की थी. इमाम हुसैन (अ) और एक ग़ैर मुसलमान की मदद? क्या बात हैरान करने वाली नहीं है?

अपने करबला के सफ़र पर इमाम हुसैन (अ) बहोत से लोगो से मिले; उन्हें अपनी बाते समझाने की कोशिश करी. इस दौरान बहोत से ऐसे थे जो इमाम को चाहते थे और कितने ही इमाम के मुखालिफ. लेकिन इमाम (अ) हर किसी के पास जा कर अपनी बात बताते और बहोत से इलाकों में जहा वे खुद नहीं पहुच सकते थे, अपने कासिद को भेजा और ज़ुल्म के खिलाफ खड़े होने का अपना पैग़ाम सभी को पहुचाया.

क्या इमाम (अ) का पैग़ाम सिर्फ उनके चाहने वालो के लिए था? क्या इमाम (अ) ने ग़ैर मुसलमानों को अपने पैग़ाम से दूर रखा था? क्या यज़ीदी फ़ौज को इमाम (अ) ने दुश्मन बता कर उन्हें अपने पैग़ाम से दूर रखा था?

इन सब का जवाब एक ही है; “पैग़ाम-ए-हुसैन इब्ने अली (अ) हर इंसान के लिए था और ता क़यामत हर इंसान के लिए रहेगा”

इमाम (अ) मक्का पहुच कर ऐसे लोगो से भी मिले जिनमे आप से मुख्तलिफ फ़िक्र रखने वाले लोग मौजूद थे मसलन अब्दुल्लाह इब्ने जुबैर. इमाम (अ) ऐसे लोगो तक भी अपना पैग़ाम पहुचाया जो इमाम (अ) के बिलकुल खिलाफ़ थे और तीसरे खलीफा के खास मानने वाले थे जैसे जनाबे ज़ोहैर-ए-कैन. इमाम (अ) यहीं पर नहीं रुके, बल्कि ऐसे लोगो तक पहुचे जो यज़ीदी फ़ौज के आम सिपाही नहीं; सिपहसालार थे जैसे जनाबे हुर.

हम आज अपनी सोसाइटी को देखे; क्या हम इमाम हुसैन (अ) की सीरत पर अमल कर रहे है?

अगर शिया से पूछो तो सुन्नी को बातिल करार देते है और खुद को जन्नत का हक़दार समझते है. उसी तरह सुन्नी हजरात शिया को इमाम हुसैन (अ) का कातिल बताकर ये अफवाह उड़ाते है की ये मातम और गिरिया अपने बाप दादा की गलतियों की माफ़ी के लिए है. बात इतनी आगे पहुच गई है की हिन्दू या इसाई या किसी और को कर्बला, मुहर्रम और इमाम हुसैन (अ) के पैग़ाम से दूर रखने की पूरी पूरी कोशिश की जाती है और ये कहा जाता है की तुम कुछ भी कर लो लेकिन कामियाब नहीं हो सकते क्युकी जन्नत के सिर्फ और सिर्फ हम हक़दार है.

क्या यही सीरते इमाम (अ) है?

गाँधी, मंडेला और न जाने कितने क्रांतिकारियों ने कर्बला से दर्स हासिल कर के बड़े बड़े मुल्को और कौमो को ज़ुल्म से निजात दिलाई और हम है की अपने आप को इसी मुहर्रम और कर्बला से जन्नत का हक़दार साबित करते है.

क्या ये इमाम हुसैन (अ) के पैग़ाम के साथ वफादारी है? 
क्या हम उस अज़ीम कुर्बानी का हक अदा कर रहे है?

तहरीर: अब्बास हिंदी

Contact Form

Name

Email *

Message *

Comments