13 Jan 2015

Biography of Ayatullah Khamenei



आयतुल्लाह ख़ामेनई की सवानए हयात


आयतुल्लाह हाज सय्यद अली हुसैनी ख़ामेनई मरहूम आयतुल्लाह सय्यद जावद हुसैनी ख़ामेनई के फ़रज़न्द है। उनकी पैदाइश ईरान के मुक़द्दस शहर, मशहद में 17 जुलाई, 1939 को हुई।  सय्यद जावद ख़ामेनई  अपने ज़माने के दीगर उलेमा की मानिंद मेयानारवी की ज़िन्दगी बसर करते थे और इन्ही की बदौलत उनका  खानदान इनकेसरी और क़नाअत की ज़िन्दगी बसर करने का आदी रहा।

अपने पिदर ए बुज़ुर्गवार के घर में अपनी ज़िन्दगी को याद करते हुए आयतुल्लाह सय्यद अली ख़ामेनई फरमाते है: “मेरे वालिद एक मशहूर आलिम ए दीन थे, जो बहोत मुत्तक़ी थे और गोशनाशिनी की ज़िन्दगी जीना पसंद करते थे। हमारी ज़िन्दगी काफी मुश्किलो भरी थी।  मुझे याद है  कि हमारी कई राते बिना खाने के गुज़र जाती थी। मेरी वालिदा कोशिश करती और जो कुछ जमा कर पाती वो हमें खाने में मिलता और बहोत दफा वो सिर्फ रोटी और थोड़ी सी दाल होती थी।”

“मेरे वालिद का घर, जहा मेरी पैदाइश हुई और मैंने अपना बचपन गुज़ारा, वो एक छोटा सा मकान था, जो मशहद के गरीब इलाक़े में था। घर में सिर्फ  एक ही कमरा था और एक तहखाना था।  हमारे वालिद कहते थे की लोग आलिम के घर दीनी मशविरे और मदद के लिए आते है और उन्हें किसी क़िस्म की तकलीफ नहीं पहुचनी चाहिए। इसलिए अगर घर में कोई मेहमान हमारे वालिद से मिलने आते, तो हम तहखाने में चले जाते थे।  कुछ वक़्त बाद, हमारे वालिद के कुछ दोस्तों ने पड़ोस का एक कमरा उन्हें हदिया किया और इस तरह हमारा माकन कुछ बड़ा हुआ।

आयतुल्लाह ख़ामेनई ने एक गरीब लेकिन बहोत ही मुत्तक़ी घर में परवरिश पाई। उनके वालिद एक बा-अज़मत दीनी आलिम थे इसलिए रहबर-ए-इंक़ेलाब को भी इसी तरह की तरबियत मिली। जब उनकी उम्र 4 साल की हुई तब उन्होंने अपने बड़े भाई सय्यद मुहम्मद के साथ मकतब जाना शुरू किया और दर्स ए क़ुरआन हासिल करने लगे। दोनों भाइयो ने एक नए मदरसे में, जिसका नाम “दार अत-तालीमें दीनियात” था अपनी पढाई जारी रखी और प्राइमरी की पढाई पूरी करी। 


अपनी हाई स्कूल के पढाई के दौरान, उन्होंने "जामे मुक़द्देमात" नामी किताब सिख ली जो अरबी अदबियात की बुनियादी किताब है। उनकी हाई स्कूल की पढाई के बाद आयतुल्लाह ख़ामेनई हौज़े ए इल्मिया में इल्म हासिल करने लगे जहा वो अपने वालिद और दीगर उलेमा के ज़ेरे नज़र इल्म ए दीन हासिल किया।  

इल्म-ए-दीन की राह इख्तियार करने के बारे में जब उनसे पूछा गया तो उन्होंने कहा, “इस राह की ओर मुझे आमादा करने वाली  शख्सियत खुद मेरे वालिद-ए-बुज़ुर्गवार है।  और मेरी वालिदा ने भी मुझे बहोत मदद करी और आगे बढ़ाया।"

आयतुल्लाह ख़ामेनई ने "जामे-अल-मुक़द्देमात", "सेयुति" और "मुग़नी" जैसी किताबे "सुलेमान खान मदरसे" और "नवाब मदरसे" में पूरी करी। वहाँ वो दीगर उलेमा के साथ साथ अपने वालिद आयतुल्लाह जवाद ख़ामेनई  की खास निगरानी में अपनी पढाई पूरी कर रहे थे। वहाँ उन्होंने एक अहम किताब “मुअल्लिम” भी मुकम्मल करी। बाद में उन्होंने “शरहे इस्लाम” और “शरहे लूमा” अपने वालिद, "आयतुल्लाह जवाद ख़ामेनई" और "आगा मिर्ज़ा मुदर्रिस यज़्दी" की निगरानी में पूरी की।

अपनी बकिया पढाई जिसमे "इल्मे उसूल" और "फिक़्ह" शामिल है, आपने अपने वालिद के ज़ेरे-एहतेमाम पूरी करी। इस तरह से उन्होंने अपनी इब्तिदाई पढाई बहोत जल्द और बा-हुनर तरीके से साढ़े पांच साल में मुकम्मल कर ली। आयतुल्लाह जवाद ख़ामेनई ने अपने बेटे की दीनी तरक़्क़ी की राह में बहोत बड़ा किरदार निभाया है।   

आयतुल्लाह ख़ामेनई ने "मंतिक़ और फलसफे" की पढाई की शुरुआत "मन्जुमह-ए-सब्ज़वारी" की सूरत में "मरहूम आयतुल्लाह मिर्ज़ा जवाद आगा तेहरानी" की ज़ेरे निगरानी करी और बक़िया पढाई "मरहूम शेख रिज़ा ऐसी" के साथ पूरी करी।

अपनी उम्र के 18 वे साल में आयतुल्लाह ख़ामेनई ने आखरी दर्जे की पढाई, दरसे ख़ारिज की शुरुआत मशहूर आलिम-ए-दीन और मरजा-ए-वक़्त "आयतुल्लाह मिलनी" के ज़ेरे-एहतेमाम मशहद में शुरू की।

1957 में नजफ़-ए-अशरफ और कर्बला-ए-मोअल्ला की ज़ियारत की नियत से आयतुल्लाह ख़ामेनई इराक  तशरीफ़ ले गए, वह का दीनी माहोल और मुख्तलिफ उलेमा का दरस-ए-ख़ारिज देख कर उन्होंने नजफ़ में रहने का इरादा किया। नजफ़ में वो आयतुल्लाह मोहसिन हक़ीम, सय्यद महमूद शहरूदी, मिर्ज़ा बाक़िर ज़न्जानी, सय्यद याहया यज़्दी और मिर्ज़ा हसन बुजनुर्दी के दर्स में शिरकत करने लगे। लेकिन उनके वालिद ने उन्हें नजफ़ से वापस तलब कर लिया और फिर उन्हें कुछ वक़्त के बाद नजफ़ छोड़ना पड़ा और वह वापस ईरान आ गए।

1958 से 1964 तक आयतुल्लाह ख़ामेनई ने फिक़्ह और फलसफे की अपनी पढाई "हौज़ा-ए-इल्मिया क़ुम" में जारी रखी जहा उन्होंने बुज़ुर्ग उलेमा-ए-दीन जैसे "मरहूम आयतुल्लाह बुरुजर्दी, इमाम खोमैनी, शेख मुर्तज़ा हाइरी यज़्दी और अल्लामा तबतबाई" के क़दमों में इल्म हासिल किया।

1965 में अपने वालिद के खुतूत से उन्हें खबर मिली कि  उनके वालिद की एक आँख की रौशनी मोतिया की वजह से चली गई है। अपने वालिद की खिदमत की खातिर आयतुल्लाह खेमेनेई ने फैसला लिया कि वो मशहद में जा कर अपने वालिद की खिदमत करेंगे और वही पर इल्म-ए-दीन भी हासिल करते रहेंगे।

इस सिलसिले में वे कहते है कि आज जो कुछ इज़्ज़त और शरफ अल्लाह ने मुझे दिया है उसकी सिर्फ एक ही  वजह है और वो है मेरे वालदैन की खिदमत।

मशहद में उन्होंने अपनी दीनी पढाई "आयतुल्लाह मिलानी" की खिदमत में जारी रखी। इसी बीच वो दीगर मदरसो और यूनिवर्सिटी में दर्स भी लेते थे और दुसरो को पढ़ाते भी रहे।

रहबरे मोअज़्ज़म फ़िक़्ही मसाइल, इन्क़ेलाबी सोच और सियासती उसूल के मैदान में इमाम खोमैनी (र. अ) के खास और क़रीबी शागिर्दों में से एक थे। लेकिन उनके अंदर ज़ुल्म से नफरत और सियासत की चाहत "शहीद सय्यद मुज्तबा नवाब सफ़वी" की शख्सियत से मिली थी। 1952 में शहीद सफ़वी शहरे मशहद गए थे और वह पर एक तक़रीर को मुखातिब किया, इसी तक़रीर में आयतुल्लाह ख़ामेनई भी मौजूद थे और इस तक़रीर ने इंक़ेलाब  की चिंगारी का आग़ाज़ किया।



1962 से आयतुल्लाह ख़ामेनई इन्क़ेलाबी मुहीम  के साथ जुड़ गए जो इमाम खोमैनी के मातहत शुरू हो चुकी थी। इसी दौरान 1963 से इंक़ेलाब के तकमील तक वो इंक़ेलाब के साथ जुड़े रहे और साथ ही क़ुम और मशहद में अपने दर्स और तदरीस के सिलसिले को भी जारी रखा। इस दौरान वो 5 से 6 दफा जेल भी गए।

ख़ुसूसन 1972 से 1975 तक आगा के दर्से क़ुरआन और इस्लामी नज़रिये के दर्स में लोगो की भारी भीड़ रहती थी और ये मशहद की तीन मस्जिदो में ररखे जाते थे: मस्जिदे करामात, मस्जिदे इमाम हसन (अ) और मस्जिदे मिर्ज़ा जाफ़र। इसके साथ ही आगा के नहजुल बलाग़ाह के दर्स भी लोगो में खासे मशहूर थे और इन दर्स को जमा कर के एक किताबी शक्ल भी दी गई थी जिसे “The Glorious Nahjul Balagah" का नाम दिया गया।



 1976 के आखिर में ज़ालिम पहलवी हुकूमत ने आयतुल्लाह ख़ामेनई को  गिरफ्तार कर के तीन साल  के लिए इरानशहर जिलावतन कर दिया। लेकिन 1979 के शुरुआत में हुकूमत के खिलाफ बढ़ते गुस्से और आंदोलन के चलते वे वापस मशहद आ गए और हुकूमत के खिलाफ वापस मोर्चा संभाल लिया। आगा के मुसलसल 15 साल की जददोजहद और पूरी ईरानी अवाम और इमाम  खोमैनी की क़यादत के नतीजे में आखिरकार ज़ालिम शाह को ईरान छोड़ कर जाना पड़ा और ईरान में इस्लामी हुकूमत का क़ायम हुआ।

इंक़ेलाब के बाद भी रहबरे मोअज़्ज़म इस्लामी हुकूमत की खिदमत में लगे रहे और अपने कंधो पर ज़िम्मेदारी को अदा करते रहे। आप की ज़िन्दगी को हम इस तरह लिख सकते है:

  • 4 साल की उम्र से पढाई का आग़ाज़
  • 9 साल की उम्र में प्राइमरी की पढाई और क़ुरानी अदबियात
  • 13 साल की उम्र में मदरसे की पढाई  - क़ुरआन, अदबियात, मंतिक़ और फलसफे की पढाई
  • 18 साल की उम्र से आयतुल्लाह मिलानी के ज़ेरे एहतेमाम दर्से ख़ारिज का आग़ाज़
  • 19 साल की उम्र में नजफ़े अशरफ में बुज़ुर्ग उलेमा जैसे आयतुल्लाह मोह्सिनुल हाकिम और दीगर उलेमा के दर्स में शिरकत
  • एक साल बाद (20 साल की उम्र में) ईरान वापसी और इमाम खोमैनी, आयतुल्लाह बुरुजर्दी और दीगर उलेमा के क़यादत में 8 साल तक दर्से ख़ारिज और इज्तिहाद किया।
    •  1964 से 1979 तक मशहद में आयतुल्लाह मिलानी के मदरसे में इज्तिहाद और दर्स का सिलसिला जारी रखा
  • दीनी तालीम और तदरीस के साथ इन्क़ेलाबी मुहीम में अहम किरदार 

  • इंक़ेलाब के बाद आप की ज़िन्दगी:
    • फेब्रुअरी 1979: इस्लामी इंक़ेलाब के बुनियादी हिस्से
    • 1980 - Secretary of Defense.
    • 1980 - Supervisor of the Islamic Revolutionary Guards.
    • 1980 - Leader of the Friday Congregational Prayer.
    • 1980 - The Tehran Representative in the Consultative Assembly.
    • 1981 - Imam Khomeini’s Representative in the High Security Council.
    • 1981 - Actively presents at the war front during the imposed war between Iran and Iraq.
    • 1982 - Assassination attempt by the hypocrites on his life in the Abuthar masjid in Tehran.
    • 1982 - Elected President of the Islamic Republic of Iran after martyrdom of Shaheed Muahmmad Ali Raja’i. This was his first term in office; all together he served two terms in office, which lasted until 1990.
    • 1982 - chairman of the High Council of Revolution Culture Affairs.
    • 1988 - President of the Expedience Council.
    • 1990 - Chairman of the Constitution Revisal Comity.
    • 1990 -  इमाम खोमैनी (र. अ.)की रेहलत के बाद, मजलिसे खुबरागान के एक्जा फैसले से आयतुल्लाह ख़ामेनई ईरान के रहबरे मोअज़्ज़म के मक़ाम पर फ़ाएज़ हुए। 

       
      अल्लाह से दुआ है की वो रहबरे मोअज़्ज़म आयतुल्लाह ख़ामेनई का साया हमारे सरो पर क़ायम रखे और उनके दुश्मनो को निस्तो नाबूद करे।

5 Jan 2015

Taqleed - Ek Aqli Zarurat!

क्या आज के तालीमी दौर में भी तक़लीद एक अक़्ली ज़रूरत है?

इंसान के लिए ये ज़रूरी नहीं की हर वक़्त वह किसी दूसरे आदमी  की पैरवी करे या किसी और के नज़रिये पर हमेशा राज़ी रह कर अपनी ज़िन्दगी बसर करे। इस सिलसिले में हमारे सामने चार क़िस्म के हालात आ सकते है:

१. एक  जाहिल इंसान दूसरे जाहिल इंसान की पैरवी करे
२. एक ज़्यादा पढ़ालिखा इंसान किसी दूसरे काम पढेलिखे इंसान की पैरवी करे
३. एक पढ़ालिखा इंसान किसी जाहिल इंसान की  पैरवी करे
४. एक काम पढ़ालिखा इंसान किसी ज़्यादा पढ़े लिखे इंसान की पैरवी करे

ये बात ज़ाहिर है कि पहले तीन मरहलो को इंसानी अक़्ल पसंद नहीं करती और इनसे हमारा मक़सद हल नहीं होता। जबकि आखरी (4th) पहलु न की सिर्फ अक़्ली लिहाज़ से सही है बल्कि हम अपनी ज़िन्दगी में बहोत सी जगह इस बात को अपनी  ज़िन्दगी में बजा लाते है। जैसे किसी मसले में आलिम से राबता क़ायम करना या फिर किसी डॉक्टर से अपनी सेहत के बारे में मश्विरा लेना, वगैरह।

इसी ज़ैल में अगर किसी इंसान को अपना घर बनाना है तो वह बिल्डर के अपनी ज़रूरत बताता है और फिर बिल्डर के ताबे हो  जाता है। इसी तरह हम डॉक्टर और वकील की भी पैरवी करते है।

ऐसे बहोत सी  मिसाले है जो हम अपनी ज़िन्दगी में किसी दूसरे माहिर की पैरवी करते है। कई बार जानते हुए और बहोत  वक़्त ना जानते हुए। लेकिन कई बार क़ानून हमें यह आदेश देता है की किसी माहिर की सलाह के बग़ैर काम ना करे, मसलन, कोई खतरनाक दवाई लेने के वक़्त किसी माहिर डॉक्टर की सलाह और उसकी पर्ची होना ज़रूरी है।

इसके साथ ही अगर दो इंसानो में या  गिरोह में लड़ाई हो जाए और फैसला नहीं हो रहा हो तो कोर्ट में जज के सामने उसके फैसले की पैरवी करते है।

दिनी मसाइल में तक़लीद भी इसी तरह है: एक इंसान जो दिनी मसाइल में माहिर नहीं है, किसी ऐसे शख्स की ओर रुजू करे / पैरवी करे जो दिनी मसाइल में माहिर है, जिसे मुजतहिद कहते है। और इस सिम्त में ये वाजिब है है की हर वो शख्स जो मुजतहिद नहीं है, उसे किसी मुजतहिद के फतवो के हिसाब से ज़िन्दगी गुज़ारना ज़रूरी है।

यहाँ एक  बात बताना ज़रूरी है कि तक़लीद सिर्फ शरीअत के मसाइल में जायज़ है और हर  इंसान के लिए ज़रूरी है की वो अपने अक़ाएद में खुद अपनी रिसर्च करे और इसे कामिल बनाए। क़ुरआन ने ऐसे लोगो को फटकार लगाई है जो अक़ाएद के मामले में दुसरो की पैरवी:

" और जब उन लोगो से कहा जाता है कि उस चीज़ की ओर आओ जो अल्लाह ने नाज़िल  की है और रसूल की ओर, तो वे कहते है, "हमारे लिए तो वही काफी है, जिस पर हमने अपने बाप दादा को पाया है." क्या यद्यपि उनके बाप दादा कुछ भी न जानते रहे हो और न सीधे राह पर रहे हो?" (५: १०४)

इसका ये मतलब नहीं की इंसान  हमेशा अपने   बाप दादाओ के खिलाफ ही काम करे या अक़ीदा रखे। जबकि क़ुरआन कह रहा है की उनकी आँखे बंद कर के पैरवी न की जाए। इस्लाम सिखाता है कि अक़ाएद की दुनिया में दुसरो के नज़रियात को जांच परख कर सिर्फ उन्ही  बातो को मानना चाहिए जो अक़्ली है।

"ऐ मुहम्मद (स), बशारत दे दो मेरे उन बन्दों को जो सुनते सब की है और बेहतरीन पर अमल करते है।" (३९: १७)

बातो को समेटते हुए ये कहना सही होगा कि अगर इस्लाम की सही मानो में मानना है तो अपने अक़ाएद को खुद अपनी  तरफ से रिसर्च कर के मुहकम करे।  इसके साथ ही दिनी शरीअत पर अपना यक़ीन पक्का करे और इस पर अमल करने के लिए किसी मुजतहिद की तक़लीद करे या फिर इस हद तक दिनी इल्म हासिल करे और तक़वा परहेज़गारी बजा लाए की खुद मुजतहिद बन जाए।

31 Dec 2014

What is "Taqleed"? Taqleed kya hai?


तक़लीद क्या है?




तक़लीद का लफ़्ज़ी मतलब किसी की पैरवी  करना होता है। दीनी ज़बान में  तक़लीद का मतलब "किसी मुजतहिद के फतवो के हिसाब से अपनी ज़िन्दगी बसर करना है।" 


मुजतहिद  वो शख्स होता है जो दीनी मालूमात में महारत रखता हो जिसे फ़क़ीह कहते है। इससे पहले की हम तक़लीद के बारे में आगे लिखे; कुछ अहम बातो को बताना ज़रूरी है। 
 

इंसान की फितरत है के वह एक समाज के अंदर ज़िन्दगी बसर करता है  और समाज की खासियत ये है कि उसके कुछ क़ानून होते है जिसे उसमे रहने वाले हर इंसान को मानने होते है। इस्लाम कहता है की अल्लाह ने इंसान की हिदायत के लिए बहोत से अम्बिया और मुरसलीन को भेजा और अपना मुक़द्दस पैग़ाम इंसानियत के लिए पहुंचवाया।
अल्लाह ने आखरी नबी की शक्ल में हमारे प्यारे पैगम्बर मुहम्मद इब्ने अब्दुल्लाह (स) को भेजा जिन्होंने अल्लाह के पैग़ाम को मुक़द्दस इस्लाम की शक्ल में पेश किया जो इंसानो की आखिर वक़्त तक हिदायत करता रहेगा।

जैसा की हम सब जानते है की अल्लाह ने इंसानो को और पुरे आलम को ख़ल्क़ किया है, उसी को ये  हक़ हासिल है की हमारे लिए क़ानून बनाए। अम्बिया और रसूल अल्लाह की तरफ से इंसानो  के लिए उस्वा है और अल्लाह का पैग़ाम पहुचाने वाले है। किसी भी अम्बिया, रसूल और इमाम को क़ानून बनाने का हक़ हासिल नहीं है।

मज़हबे शिअत के मुताबिक़ इमाम पैग़म्बर का जानशीन होता है और दीन-ओ-शरीअत के हिफाज़त और तर्जुमानी का ज़ामिन होता है। इस्लाम  शुरूआती दौर में रसुलेखुदा (स) ने उम्मते मुस्लिमा की रहनुमाई की और हर मुश्किल  वक़्त में उम्मत को निजात दिलाई। इमाम अली (अ) के दौर से हमारे ग्यारवे इमाम, इमाम हसन अस्करी (अ) तक, शिअत को रहनुमाई सीधे हमारे इमामो के ज़रिए मिलती रही।

उसके बाद ग़ैबते सुग़रा (छोटी ग़ैबत) के ज़माने में हमारे बारवे इमाम, इमाम मेहदी (अ) ने चार नायबे खास मुअय्यन किये जो इमाम के हुक्म से सीधे ज़माने के शिओ की रहनुमाई करते रहे। लेकिन  329  AH  में इमाम मेहदी (अ) अल्लाह के हुक्म हुक्म से ग़ैबते कुबरा (बड़ी ग़ैबत) में चले गए, जिसके बाद हर शिया  पर ये ज़रूरी हो गया की वो अपने ज़माने के फ़क़ीह मुजतहिद की तक़लीद करे और उसके बताए हुए तरीके से अपनी इंफिरादि और इज्तिमाई ज़िन्दगी बसर करे। 

*यह राइटउप हुज्जतुल इस्लाम सय्यद मुहम्मद रिज़वी के तक़लीद आर्टिकल से लिया गया है

9 Dec 2014

Taqleed - Aalam ka kisi khas shahr ya desh se hona

तक़लीद - आलम का  किसी खास शहर या देश  से होना। 


तक़लीद शिअत के बुनियादी उसूलो में से एक है और इसके बग़ैर किसी भी इंसान का अमल क़ाबिल-ए-क़बूल नहीं है। तक़लीद का आग़ाज़ सबसे पहले आलम की शिनाख्त से शुरू होता है और उसके फतवो पर अमल करने से हमारे ईमान को ताक़त और अल्लाह की बारगाह में मक़बूलियत मिलती है।

आलम की  शिनाख्त / पहचान उसके रहने के शहर / देश या उसके घराने से नहीं की जाती, बल्कि आलम की असली पहचान उसकी इल्मी मेयार और उसका तक़वा परहेज़गारी है।

लेकिन आज कल ये देखने में आता कि लोग किसी मुजतहिद की तक़लीद उसकी इल्मी मेयार और तक़वे को नज़र में रख कर नहीं बल्कि उसके रहने की जगह (शहर / देश) को देख कर करते है। कुछ लोग तो आलम के पहचान की बुनियाद आलिम के खानदान को क़रार देते है और सिर्फ खानदान के अफ़राद की तक़लीद करते है।

हालांकि तक़लीद की पहचान खानदान, रहने की जगह या  कोई और चीज़ नहीं है, बल्कि सिर्फ और सिर्फ इल्मी मेयार और तक़वा है।

अब सवाल ये उठता है कि हम हिंदुस्तान में रहते हुए किसी मुजतहिद के इल्मी मेयार और तक़वा परहेज़गारी का इम्तिहान कैसे ले सकते है, जबकी खुद हमारे इल्म और तक़वे की कोई हैसियत नहीं है।

इस जगह पर "जामे मुदर्रिसीन" (बुज़ुर्ग ओलमा की अंजुमन) हमारी मदद करती है। इस बात की तरफ मौलाना अहमद अली आबेदी  साहब ने अपने जुमा के ख़ुत्बे में तफ़्सीर से बयान किया है और हमारे ब्लॉग में भी मौजूद है:

- मरजा ए तक़लीद और ज़रूरी मालूमात
- तक़लीद - उम्मत की अहम ज़िम्मेदारी

जामे मुदरेसिन कभी शहर, देश या खानदान को नज़र में रख कर मरजा की फेहरिस्त का ऐलान नहीं किया, बल्कि किसी भी मुजतहिद के इल्मी  मेयार और तक़वे को नज़र में रख कर इस बात का फैसला लिया जाता है। 

क़ौम को इस मसले में उलझाने के लिए, कुछ लोग ऐसी हरकते करते है जिसमे बुज़ुर्ग ओलमा के मश्वरे को ताक पर रखकर किसी ऐसे अलीम का नाम अवाम के सामने रख दिया जाता है जो क़ाबिल-ए-एहतेराम शख्सियत तो रहते है लेकिन इल्मी मेयार पर दूसरे मुज्तहेदीन से कम है। 

इसमें बे-एह्तेरामी या बद-तमीज़ी मुराद नहीं है बल्कि वक़्त की ज़रूरत है क्युकी हम सिर्फ ऐसे मुजतहिद की तक़लीद कर सकते है जो इल्मी मेयार और तक़वे में सबसे ऊपर की मंज़िल पर हो। 

इसलिए हमें चाहिए कि हम हमेशा हमारे ओलमा और जामे मुदर्रिसीन से राबता क़ायम रखे और उनकी तरफ से दिए हुए मरजा की फेहरिस्त में से किसी मरजा की तक़लीद करे। 

अल्लाह हमारी जद्दो जहद को क़बूल करे और हमरे आमाल में इख्लास और पाकीज़गी लाए।

4 Dec 2014

Taqleed - Ummat ki Aham Zimmedari

तक़लीद - उम्मत की अहम ज़िम्मेदारी


हुज्जतुल इस्लाम मौलाना अहमद अली आबेदी साहब के मुंबई खोजा जामा मस्जिद के तारीखी ख़ुत्बे  के बाद उम्मत ए तशय्यो में एक ज़िम्मेदाराना बदलाव देखने में आ रहा है. लोग कई बातो पर इल्मी बहस करते दिखाई दिए और सोशल नेटवर्क साइट्स पर भी एक ज़िम्मेदाराना गुफ्तगू का आग़ाज़ हुआ है।

ज़्यादातर लोग क़ुम के ओलमा की अंजुमन “जामे मुदर्रिसीन” के बारे में इल्म हासिल करने की कोशिश करते दिखे वही पर लोग ओलमा की तरफ से शाया दीनी मरजा की फेहरिस्त पर भी गुफ्तगू करते दिखाई दिए।

अल्लाह के फ़ज़लो करम से मौलाना के ख़ुत्बे ने तक़लीद और मरजईयत को हिंदुस्तान में, ख़ुसूसन मुंबई में, एक नया जोश और रास्ता दिया है।

अभी तक लोग इस बात से ग़ाफ़िल थे कि  हमारे ओलमा इस तरह का इज्तेमाई फैसला भी लेते है और ऐसी कोई ओलमा की अंजुमन भी है जो अवाम के बारे में इतना सोचती है और उसके मुताबिक़ फैसले भी लेती है।

अल्हम्दुलीलाह मौलाना ने अपने ख़ुत्बे  में इस बात को वाज़ेह तौर पर ज़ाहिर कर के लोगो को सोचने और इस सिम्त में आगे बढ़ने का एक नया रास्ता दिया है। इस चीज़ से ख़ुसूसन क़ौम के नौजवान काफी जोश और जज़्बे के साथ इल्मी गुफ्तगू में आगे दिखाई दे रहे है।

एक तरफ जहाँ क़ौम को मरजईयत से दूर ले जाने की कोशिश की जा  रही है और साथ में कई सारे शक  और शुबे नौजवानो के ज़हन में डाले जा रहे है, मसलन:

  • एक मुजतहिद जिसे जामे मुदर्रिसीन ने मरजा का दर्जा दिया है, उसे मुजतहिद न समझना
  • दूसरे मुजतहिद जिन्हे जामे मुदर्रिसीन ने मरजा की फेहरिस्त में शामिल नहीं किया है उनकी तक़लीद करना
  • अगर किसी आम इंसान को समझ नहीं आ रहा है कि आलम कौन है, तो  वह इंसान किसी भी मुजतहिद की तक़लीद करे
  • और बहोत से सवलात

लेकिन अल्लाह के फज़ल से, मौलाना आबेदी ने अपने जुमे के ख़ुत्बे में इन सब बातो को एक बुनियादी बात से रद्द कर दिया कि मरजा कोई भी मुजतहिद नहीं बन सकता, जब तक जामे मुदर्रिसीन उस मुजतहिद को मरजा की फेहरिस्त में शामिल नहीं कर लेती।

अब सवाल ये उठता है कि लोग अपनी मनघडत बातो को दीन का हिस्सा कैसे बना लेते है? और इन गलत फ़हमियों को कैसे दूर किया जाए?

जिस तरह से मौलाना अहमद अली आबेदी साहब ने आगे बढ़ कर क़ौम के दर्द और ज़रूरत को समझा और एक अहम मसला लोगो के सामने पेश किया, ओलमा को चाहिए कि वो भी इसी तरह अवामुन्नास के ज़रूरी मसाइल को समझ कर खुलके बात करे।

हालांके मौलाना आबेदी साहब ने अपने ख़ुत्बे के आखरी हिस्से में चंद  दीगर मुजतहिद के नाम भी लिए थे, जो की क़ाबिले एहतेराम मुजतहिद और ओलमा है, लेकिन जामे मुदर्रिसीन ने उन्हें मरजा की फेहरिस्त में शामिल नहीं किया है।

ये आज अहम चीज़ है की हम इस मसले की अहमियत को समझे और बारीकी से इसका मुतालेआ करे कि क्या किसी ग़ैर मुजतहिद को ये हक़ बनता है कि वो मरजा का अपने मन से ऐलान करे? क्या किसी राह चलते आम आदमी को ये इख्तियार है कि वो जिसे चाहे अपना मरजा मान ले और दुसरो को भी उसे मानने को कहे?

ऐसी कई चीज़े है जो क़ौम को आगे बढ़कर सीखनी होगी और आगे आने वाली नस्लों तक तक़लीद की अज़ीम नेमत पहुचानी  होगी।

एक और मसला आजकल कुछ लोग आम कर रहे है वो ये है कि ऐसे मुजतहिद की तक़लीद करो जिसके मसले मेरे मन से ज़्यादा मिलते है। मसलन अगर मै चाहता हु कि बैंक का सुद (interest) इस्तेमाल करू और फ़र्ज़ करे की आलम उसे हराम जानता है, तो मै किसी ऐसे मुजतहिद को तलाश करू जो उसे जायज़ जाने और फिर मै उसकी तक़लीद करू। ये हरकत बिलकुल गलत है और असलन फिकरे मरजईयत के खिलाफ है।

अस्ल में हमें चाहिए कि आलम को तलाश करे और उसके मसाइल के हिसाब से अपनी ज़िन्दगी बसर करे।

अल्लाह का करम और अहसान है की उसने हमें ज़िम्मेदार और बबसीरत ओलमा से नवाज़ा है जो क़ौम की ज़रूरत समझ कर मसाइल को पेश करते है।

अल्लाह हमें अपने  ओलमा की पैरवी करने की तौफ़ीक़ अता करे और हमारे मुज्तहेदीन ओ ओलमा की हमेशा हिफाज़त करे।

इलाही आमीन

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