27 Apr 2015

Hamari zindagi me Aaimmah (a) se Nazdiki?



हमारी ज़िन्दगी में आइम्मा () से कितनी नज़दीकी हैं?




आज के भाग दौड़ और सोशल मीडिया के दौर में किसी के पास वक़्त नहीं। जिसके पास करने को कुछ नहीं वो भी बिजी नज़र आते है और मोबाइल से अपना सर उठा कर देखने की फुर्सत तक नहीं। मानो जैसे कोई करोडो का बिज़नेस कर रहे हो। और जिनके पास करने के लिए काम है, उनका तो पूछना गुनाह है। सुबह से ले कर शाम ऐसे गुज़रती है जैसे दुरोंतो एक्सप्रेस।

ऐसे बिजी जीवन में दीन और मज़हब के लिए किसी के पास वक़्त कहा। अगर कोई कुछ दीनी बात कर ले या छेड़ दे, उसे ग्रुप वाले सीधे मुल्ला की पदवी (टाइटल) दे देते है। और इस टाइटल से तो बस खुदा ही बचाए, लोग उस शख्स से ऐसे भागेंगे जैसे कोई जिन्न आ रहा हो। देखने में ऐसा लगता है जैसे मज़हब से ज़्यादातर लोगो का कोई लेने देना रहा ही ना हो।

लेकिन जब  बात को गहराई में जा कर देखा जाता है तब पता चलता है कि हर एक शख्स अपनी ज़िन्दगी में दीन और मज़हब से जुड़ा हुआ रहना पसंद करता है, कोई ज़्यादा तो कोई कम। और ये कम ज़्यादा का पैमाना अलग अलग लोगो के लिए अलग है। कोई दान धर्म कर के खुश है, तो कोई हज ज़ियारत पर जा कर, कोई ग़रीबो को खाना खिलाना पसंद करता है, तो कोई तिलावत ए कुरआन पाक, किसी को बजामत नमाज़ पढ़ने में इत्मीनान मिलता है तो किसी को अहलेबैत (अ) की शान में क़सीदे पढ़ कर सुकूने क़ल्ब हासिल करता है। इन सब के बावजूद जब ग्रुप में बात दीन और मज़हब की आती है तो दीनदार कम नज़र आतें है।

अब ज़रा इसी महीने पर नज़र डालिये, माहे रजब के शुरू होते ही कुछ लोग आइम्मा (अ) से जुडे क़सीदे और मनक़बत फॉरवर्ड करने में लग गए। इतने क़सीदे आए की पढ़ना मुश्किल हो गया। और लोग जब फॉरवर्ड करते है तो भी भोलेपन के साथ जैसे की इसे फॉरवर्ड न करेंगे तो बात बिगड़ जाएगी। यहाँ ये बात पर भी ध्यान देना ज़रूरी है की लोग मज़हब को डराने के लिए भी अच्छी तरह से इस्तेमाल करते है।

कुछ लोग तो पिछले दिनों आए भूकम्प (ज़लज़ले) के लिए भी शेर शायरी करते दिखाई जिसमे ज़लज़ले को जनाबे अली असगर (अ) को झूला झुलाने से ताबीर किया गया है। यानी हम इस बात पर राज़ी है की हज़ारों लोग मारे जाए और उसका इलज़ाम हम अहलेबैत (अ) की ज़ात पर डालने से कतराए तक नहीं; यह एक अजीब बात है। इसी तरह के अलग अलग पोस्ट्स सोशल मीडिया पर दिखाई दिए जिससे हमारी क़ौम की सोच का पता चलता है।

सवाल यह उठता है कि हमारी आइम्मा (अ) से कितनी नदजीकी है?

क्या उनसे जुडी मनक़बत पढ़ लेने से या फॉरवर्ड कर देने से बात बन जाएगी? या कुछ और चीज़ हमारी तरफ से चाही जा रही है। क़ुरआन ने रसुलेखुदा (स) और आइम्मा (अ) को इंसानियत के लिए उस्वा (रोल मॉडल) बनाकर भेजा है। इसका मतलब है की हमें अपनी ज़िन्दगी में उनकी छाप उतारनी होगी। सिर्फ नाम के लिए काम कर के बात नहीं बनेगी। नमाज़ पढ़ना, क़ुरआन की तिलावत करना, सदक़ा निकलना, वगैरह तो दिखने वाले अमल है, असली चीज़ तो दिलो का सुधार है।

सबसे पहले हम अपने आप की नियत को चेक करे की मै फूलां काम क्यों कर रहा हु? अगर नियत अल्लाह और अहलेबैत (अ) है, तो फिर हम सही डायरेक्शन (दिशा) में जा रहे है। अगर नियत इससे हटकर लोगो को दिखाना, लाइमलाइट में आना, अपनी शोहरत, अपने दिल को शांति पहुचाने के लिए, या फिर कोई भी दूसरा रीज़न हो तो बेहतर है की काम रोक दे और अपनी नियत सही करे।

आइम्मा (अ) की विलादत पर मुबारकबाद देने के वक़्त भी पहले सोच ले की मै ये क्यों कर रहा हु?

हमें चाहिए की अपनी ज़िंदगी का हर लम्हा जानते हुए गुज़ारे और खुद को बेवकूफ नहीं बनाए। अल्लाह हमारे दिलो के असली हाल से अच्छी तरह वाक़िफ़ है। हमारे लिए राहे आसान है, नियत दुरुस्त करे और फिर कोई भी (ख़ुसूसन दीनी) काम करे। अगर काम लोगो के लिए या खुद के लिए रहेगा तो काम तो हो जाएगा लेकिन फायदे नहीं होगे और मक़सद भी पूरा नहीं होगा।

इन महीनो में, ख़ुसूसन रजब, शाबान और माहे रमज़ान में खास ध्यान अपनी नियत पर रखे। अगर नियत सुधर गई तो कामियाबी हमारे क़दम चूमेगी और अगर सब कुछ कर लिया लेकिन नियत सही नहीं रही, तो मेहनत बेकार चली जाएगी।

आइम्मा (अ) ने खास ध्यान हमें अपनी नियत सुधरने पर देने के लिए कहा है। इसीलिए जो दुआएं हमारे पास आई है उसमे आइम्मा (अ) दिलो के सुधर की तरफ ज़्यादा ध्यान देते दिखाई देते है; और किसी दुनियावी दुआओ का कोई तज़किरा नहीं रहता। मसलन दुआए कुमैल में इमाम अली (अ) अल्लाह से दुआ करते  हैं की मेरे आजा जवारेह (हाथ पैरों) में क़ूवत दे - ताकि मै तेरे दीन की खिदमत कर सकु। यहाँ इमाम अपने ज़िन्दगी के लिए बहोत कुछ मांग सकते थे, लेकिन इमाम ने दीन को ज़्यादा तरजीह दी।

इसी तरह हमें भी चाहिए की कोई भी काम करे, उसमे नियत को दुरुस्त कर ले और उसे खास तौर से अल्लाह के लिए रखे। खास उन दिनों के लिए जो आइम्मा (अ) से मख़्सूस है, आदत डाले की उनसे वसीला इख्तियार करे और उनकी ज़िन्दगी  से सबक ले कर अपनी ज़िन्दगी में लाए ताकि हम  खुदा के क़रीब हो सके। व्हाट्स ऍप पर मुबारकबाद देने के आगे असली काम का आग़ाज़ करे और अपनी ज़िन्दगियों में फ़र्क़ देखे। इंशाल्लाह हम पाएंगे की दुनिया बहोत हसीन है और दूसरे लोग बहोत अच्छे है।


24 Apr 2015

Khoja Jamat Elections - Where do we stand?

खोजा शिया इस्ना अशरी जमात के इलेक्शंस में हम कहाँ ठहरते है?


मुंबई में खोजा शिया हज़रात आज कल अपने आपको एक नए माहोल में महसूस कर रहे होंगे। एक तरफ इलेक्शन कम्पैगन्स और दूसरी तरफ सोशल मीडिया / व्हाट्स ऑप पर लंबे लंबे डिबेट्स। देख कर लग रहा है मानो जो भी प्रेसिडेंट बनेगा, ज़रूर खोजा हज़रात के लिए "अच्छे दिन" ले कर आएगा। दोनों पार्टियाँ लोगो को अपने तरफ लुभाने में जुटी हुई हैं। कही मीटिंग्स है, कही खाने, कही होटल्स में तो कही मस्जिद इमामबाड़ों में। ऐसे में आम जनता को अच्छा खाना ज़रूर मिल रहा है।

इन सब  साथ ऐसा पहली बार दिख रहा है की इलेक्शंस में यूथ्स इतना इन्वॉल्व हो रहे है, शायद ये सोशल मीडिया की देन है। वरना अपने इलाक़े में कैंपेन मीटिंग हो तब पता चलता था की इलेक्शंस आ गए है। इनफार्मेशन के इस दौर में कैंडिडेट्स भी यूथ्स को लुभाने की खासी कोशिशे कर रहे है। विज़न डाक्यूमेंट्स से उन्नति प्रोग्राम पॉइंट्स तक, जितनी राग अलापी जा सकती है सभी का बखूबी इस्तेमाल हो रहा हैं। जो की एक अच्छी पहल है। क़ौम को कॉन्फिडेंस में ले कर ट्रांसपेरेंट तौर पर काम करना  पहल है।

लेकिन इन सब के बीच एक दूसरे पर काफी कीचड़ भी उछाला जा रहा है। मौजूदा प्रेजिडेंट और नए कैंडिडेट्स के बीच ही नहीं, बल्कि उनके सपोर्टर्स के बीच भी घमासान है। उम्मीद है, यह इलेक्शन क़ौम में ना-इत्तेफ़ाक़ी और दरार पैदा ना करे। यहाँ क़ौम को समझना पड़ेगा की इलेक्शंस सही कैंडिडेट को कुर्सी पर इसलिए लाने के लिए हो रहे है ताकि वो अच्छा और फायदेमंद काम कर सके। ना की ऐसे कैंडिडेट को लाने के लिए जो मेरा रिश्तेदार है या मुझे पर कोई फेवर किया हुआ है।

इन इलेक्शंस को समझने के लिए पहले देखना होगा की जमात है क्या चीज़? क्या जमात सिर्फ एक सामाजिक (सोशल) बॉडी है, जिसका मज़हब से कोई लेना देना नहीं है? या फिर ये मज़हब को अच्छी तरह से इम्प्लीमेंट करने का एक ज़रिया है? अगर जमात मज़हबी रुख रखती है तो फिर इस पुरे खेल में मज़हब के जानने वाले उलेमा क्यों नज़र नहीं आते? ये एक जायज़ सवाल है जो हर जमात के मेंबर को अपने कैंडिडेट से पूछना चाहिए और इलेक्शंस के बाद कोशिश करनी चाहिए की उलेमा जमात के लेनदेन और इलेक्शन प्रोसेस में शामिल हो।

इसके साथ ही प्रेसिडेंट / वाईस प्रेसिडेंट की पोस्ट जमात के बड़े लोगो को दुसरो के सामने पेश करती है। ऐसे में उन लोगो का मज़हबी बातो को उनकी ज़िन्दगी में लाना बहोत ज़रूरी हैं। मसलन चेहरे पर दाढ़ी रखना। बाते अच्छे लहजे में करना वगैरह। हम यहाँ किसी पोलिटिकल इलेक्शंस की बाते नहीं कर रहे जहा कोई भी कैसे भी किरदार आदमी खड़ा हो सकता है।

ऐसे सूरत में खुद कैंडिडेट्स की कुछ ज़िम्मेदारियाँ है और हम वोटर्स के कुछ हक़ है जो हम अपने कैंडिडेट्स से तलब कर सकते है।

कैंडिडेट्स की ज़िम्मेदारियाँ:

- इलेक्शंस को ईगो पर न ले
- दीन का काम समझकर सबको साथ ले कर चले
- कम से कम जो चीज़ें दिखने पर वाजिब है, जैसे नमाज़ पढ़ना, दाढ़ी रखना, वगैरह इसका ख्याल रखे। नहीं तो दूसरी क़ौमे हम पर तने कसेगी और क़ौम की बदनामी के लिए कैंडिडेट्स ज़िम्मेदार होगे
- अपनी ज़ात से ऊपर उठ कर, पूरी जमात के भले के लिए प्लानिंग करना जिसमे इकनोमिक मज़बूती, मेडिकल, एजुकेशनल, पोलिटिकल, रिलीजियस, डिपार्टमेंट्स शामिल रखे
- जवानो को अपनी टीम में ले कर उन्हें आगे बढ़ने का मौका दे
- क़ौम में ट्रस्ट बिल्ड करने की तरफ ज़्यादा ध्यान दे ना की तफ़रक़ा कर के इलेक्शंस जितने के लिए काम करे
- छोटे छोटे मसाइल को नज़रअंदाज़ करे और लॉन्ग टर्म प्लानिंग से काम करे
- दीन और मज़हब पर खास ध्यान दे, उसे नज़रअंदाज़ करना अस्ल चीज़ को छोड़ने जैसा है
- याद रहे, ये जमात, ये इलेक्शंस, ये वोटर्स सबकुछ मज़हब की वजह से है और कैंडिडेट इस्लाम की खिदमत के लिए खड़ा हो रहा है।

वोटर्स के हुक़ूक़:
- वोटर्स कैंडिडेट्स से पर्सनल फेवर नहीं मांगे, मसलन घर मिल जाए, या क़र्ज़ माफ़ हो जाए, वगैरह
- वोटर्स भी मज़हब और दीन को सामने रख कर फैसला करे की कौन सा कैंडिडेट मज़हब के ज़्यादा काम आएगा
- वोटर्स खास ध्यान दे की जो वादे किये जा रहे है वो इलेक्शंस के बाद इम्प्लीमेंट हो रहे है या नहीं
- कहीं अपना काम करने के बहाने कैंडिडेट / वोटर मज़हब की बॉर्डर क्रॉस तो नहीं कर रहे हैं?
- जमात के काम काज में उलेमा को अहम किरदार निभाने का मौक़ा दिलाने पर ज़ोर दे
- जमात का कंस्टीटूशन जो काफी पुराना हो चूका है, उसे आज की तारीख के हिसाब से बदलने की मांग करे
- जमात के मेंबर्स के लिए नए स्कीम्स जैसे इन्शुरन्स, मेडिक्लेम, जॉब्स, एजुकेशन, वैगरह पर ज़्यादा ज़ोर दे

याद रहे, अगर वोटर्स आवाज़ नहीं उठाएगे तो कैंडिडेट्स को पता नहीं चलेगा की क्या करना चाहिए। वोटर्स और कैंडिडेट्स साथ मिल कर जमात को एक नई ऊंचाई तक पंहुचा सकते है।  इलेक्शंस के बाद जब काम करने मौका आए तब सारे कैंडिडेट्स और वोटर्स नए चुने गई टीम के साथ मिलकर काम करे। अगर अपोसिशन देना है तो पॉजिटिव अपोसिशन दे और काम को आगे बढ़ाए। इंशाल्लाह अगर क़ौम में इत्तेफ़ाक़ी रही और भरोसा रहा तो क़ौम आगे बढ़ेगी और खुदा नदजीक क़ुरबत के मर्तबे पर पहुंचेगी।

आइये हम (कैंडिडेट्स और वोटर्स) अहद करे की  हम यह इलेक्शंस खुद के लिए नहीं बल्कि खुदा के लिए लड़े और दीन ओ मज़हब के फायदे के लिए काम करे।

Lucknow Shia Ehtijaaj ki Mukhtasar Tarikh

उत्तर प्रदेश, लखनऊ के शियों के एहतेजाज की मुख़्तसर तारीख और उलेमा का इत्तेहाद

आज शिया क़ौम का बहोत बड़ा तब्क़ा चाहता है की शिया उलेमा व ज़केरिन में इत्तेहाद हो। यक़ीनन यह बहोत ही पाक ओ पाकीज़ा ख्याल है जिसकी क़ुबूलयाबी की दुआ हम भी करते रहे हैं।  दुआ करते वक़्त ज़रूरी है की, आज जो समझने के लिए हमें अपने गुज़रे हुए कल को समझना होगा। शिया उलेमा में किसी हद तक इत्तेहाद 1969 और 1974 के शिया - सुन्नी फसादात के कुछ अरसे बाद तक रहा।

1977 में, 21 माहे रमज़ान के जुलूस पर यज़ीदी फ़िरक़े ने हमला किया जिसके बाद हुकूमत ने एक बार फिर शिया जुलूसों पर पाबन्दी लगा दी। शिया लीडरशिप ने, मौलाना कल्बे आबिद साहब से मश्विरा किये बग़ैर, बजाए प्रोटेस्ट करने के, खुद ही आने वाले अशरे की तमाम बड़ी मजलिसें बंद करने का एलान कर दिया। मजलिसे बंद करने का एलान करने के बाद बेश्तर ज़किरीन खुद लखनऊ से दूसरे शहरों और  मुल्कों में मजलिस पढ़ने रवाना हो गए।

मरहूम मौलाना कल्बे आबिद साहब हस्बे मामूल अशरे से एक दिन पहले अलीग़ढ से लखनऊ आए तो इस फैसले से बहोत ज़्यादा अफ़सुर्दा हुए। शिया क़ौम जुलूस और मजलिसें बंद होने से बहोत नाराज़ थी। 5 मुहर्रम, 1977  शियों का एक बड़ा मजमा मौलाना कल्बे आबिद साहब के पास आया और ग़ुफ़्रानमाब में मजलिसे पढ़ने पर इसरार  किया, मौलाना ने उस फैसले की इज़्ज़त रखते हुए अपने घर पर ही 6  मुहर्रम से मजलिस पढ़ना शुरू कर दी।

दूसरे साल, क़ौम के मज़ीद इसरार पर इमाम बड़ा ग़ुफ़रान माब में अशरा फिर से शुरू किया जिसके बाद मदरसा ए नज़्मीयां और शिया कॉलेज में (जो मजलिस पहले इमामबाड़ा नाज़िम साहब में होती थी) मजलिस का सिलसिला शुरू हो गया। मौलाना कल्बे आबिद साहब ने 10 मुहर्रम 1977 से जुलूसों पर पाबन्दी के खिलाफ "कोर्ट अरेस्ट" का सिलसिला शुरू किया। उनका एक मशहूर जुमला जो उन्होंने 1984 में इमामबाड़ा ग़ुफ़रान माब के अशरे की मजलिस में कहा था, "हम गुज़श्ता 7 बरसों से अहतिजाज करते आए हैं। अरे अभी 7 बरस ही हुए हैं। हम कहते हैं की 7 नहीं, 70, बल्कि अगर 700 साल तक भी अज़ादारी के जुलूसों  बहाली के लिए एहतेजाज करना पढ़े तो हम पीछे नहीं हटेंगे।"

अहतिजाज का सिलसिला शुरू हो गया। इस दरमियान सबसे बढ़ा एहतेजाज 1978 में "यौमे फैसला" के नाम से हुआ जिसके रूहे रवां जनाब मौलाना कल्बे जावद साहब, जनाब शकील शम्सी साहब, यासा रिज़वी मरहूम, जुल्किफल रिज़वी व दीगर नौजवान थे। कर्फ्यू तोड़ कर अलम के जुलूस निकाले गए जिसमें लखनऊ का कोई भी मौलाना शरीक नहीं हुआ। शिया क़ौम के नौजवान लखनऊ, सीतापुर, बाराबंकी, फैज़ाबाद और उन्नाओ जेल भेज दिए गए। उन्नाओ जेल में "अली कांग्रेस" क़ायम की गई जिसके सरपरस्त मौलाना कल्बे आबिद साहब और प्रेजिडेंट मौलाना कल्बे जावद साहब मुंतख़िब हुए।

अली कांग्रेस ने मौलाना कल्बे आबिद साहब की सरपरस्ती में अहतिजाजात का एक लम्बा सिलसिला शुरू कर दिया। शियों ने लोक सभा इलेक्शंस बॉयकॉट भी किया जिसके बाद संजय गांधी ने मौलाना कल्बे आबिद साहब के नाम एक खत लिख कर शियों  जुलूस पर से पाबन्दी उठवाने का वादा किया। शियों ने बॉयकॉट वापस लिया और शीला कॉल शिया वोट्स की बिना पर (30,000 वोट्स से) इलेक्शन जीत गई। अफ़सोस की संजय गांधी का वो लेटर क़ौम के एक बड़े लीडर ने अपने पास रख लिया और मौलाना कल्बे आबिद साहब मरहूम से बार बार मांगने के बावजूद वापिस नहीं किया।
जनाब शकील शम्सी और दूसरे नौजवानो के रोज़गार की बिना लखनऊ से चले जाने के बाद प्रोटेस्ट्स का सिलसिला कुछ वक़्त के लिए रुक गया लेकिन यासा मरहूम ने जनाब जावेद मुर्तज़ा साहब को अली कांग्रेस से जोड़ा जिसकी बिना पर एक बार फिर प्रोटेस्ट्स का सिलसिला शुरू हो गया। जावेद साहब को काफी अरसे तक जेल में रहना पढ़ा।  जेल से वापसी के बाद जावेद साहब ने तय किया की क़ानूनी जंग लड़ी जाए।  इस फैसले के बाद अली कांग्रेस ने किसी क़िस्म का प्रोटेस्ट नहीं किया। रफ्ता रफ्ता अली कांग्रेस ने दूसरे इश्यूज पर अपनी तवज्जो मर्कूज़ कर दी जिसकी वजह से क़ौम में काफी इख्तेलाफ़ात पैदा हो गए। धीरे धीरे अली कांग्रेस के ज़्यादातर ओरिजिनल मेंबर्स, बा शमूल; मुअलना कल्बे जावद साहब उससे दूर होते चले गए।

अप्रैल 1997, में 3 शिया नौजवानो ने खुद को आग लगा दी जिसने  अज़ादारी मूवमेंट में एक  बार फिर से नयी रूह फूँक दी। मौलाना कल्बे जावद साहब ने जुलूसों पर  मोहाज़ खोल दिया और मई 1997 में जनाब अब्दुल्लाह बुखारी साहब को लखनऊ बुलाया की वो शिया और सुन्नी के दरमियान सुलह करवाएं। शियों की तमाम लीडरशिप  अब्दुल्लाह बुखारी का बॉयकॉट किया जबकि सुन्नी लीडरशिप ने उनके साथ निहायत बद-तहज़ीबी का मुज़हेरा किया।

3 जून, 1997 को अब्दुल्लाह बुखारी मरहूम, मौलाना क़मर मिनाई मरहूम (सज्जादा नशीन दरगाह शाह मीणा) और मौलाना कल्बे जावद साहब को गिरफ्तार कर लिया गया जिसके बाद पूरी शिया क़ौम सड़कों पर आ गई विधान सभा का अज़ीमुश्शान घेराओ किया गया। फ़ौरन ही सरकार को झुकना पढ़ा और तीनो लीडर्स रिहा कर दिए गए।

9 जून 1997, को मौलाना कल्बे जवाद साहब ने अपने घर पर तमाम अंजुमनों का जलसा किया जिसमे 115 अंजुमनें शरीक हुई। उस जलसे में तय पाया की हुकूमत को अल्टीमेटम दिया जाये की अगर 18 सफर (24 जून) तक पाबन्दी नहीं हठती है तो तमाम शिया, बरोज़ ए चेहलुम (26 जून, 1997) 1 बजे दिन को अपने घरों से निकल कर कर्बला तालकटोरा तक अलम का जुलूस ले जाएंगे। हुकूमत ने बहोत डराया धमकाया लेकिन क़ौम अपने  फैसले पर अटल रही और हुकूमत ने शब ए चेहलुम से कर्फ्यू लगा दिया और पुराने लखनऊ को पुलिस छावनी बना दिया।

एलान के मुताबिक़ चेहलुम के रोज़ मौलाना जावद साहब ठीक 1 बजे अपने घर से पुलिस का घेराओ तोड़ कर निकले। उस वक़्त तक तक़रीबन हर शिया सड़क पर मौजूद था (सिवाए लखनऊ के दूसरे शिया उलेमा और ज़केरिन के जो अपने घरों में घुसे रहे). पुलिस ने ज़बरदस्त लाठी चार्ज किया, आंसू गैस और हवा में गोलियां भी चलाई लेकिन क़ौम को डरा न सके। हज़ारों लोग अलम का जुलूस ले कर कर्बला तालकटोरा पहुंच गए। पुलिस ने हज़ारो मर्दों, औरतों (जिनमे मौलाना कल्बे जवाद साहब के घरवाले भी शामिल थे) को गिरफ्तार करके पुलिस लाइन ले गए। हज़ारों को देर रात छोड़ दिया और कई हज़ार को सीतापुर, उन्नाओ और लखनऊ जेल भेज दिया।

28 जून 1997 की सुबह 4 बजे मौलाना कल्बे जवाद साहब को उनके घर से गिरफ्तार कर लिया गया और उनपर NSA (नेशनल सिक्योरिटी एक्ट) लगा कर ललित पूरी जेल भेज दिया।  मौलाना के गिरफ़्तारी की खबर जंगल में आग की तरह फ़ैल गई और एक बार फिर शिया कर्फ्यू तोड़ कर सड़कों पर आ गए। कई जगह हथगोले और बंदूक की गोलियां भी चलीं। दो दिन बाद मौलाना के भाई और कई अज़ीज़ों को भी गिरफ्तार कर लिया गया और उनको 307 और कई दूसरी सख्त दफा लगाकर TADA के खतरनाक मुजरिमों के साथ लखनऊ जेल में क़ैद कर दिया गया।

अब शिया क़ौम मौलाना को रिहा करवाने  एहतिजाज करने लगे। औरतों ने कमान संभाल ली। उन्होंने हिन्दू औरतों का लिबास पहना और एक अर्थी के साथ गोमती नदी गई और  वहां से बोट पर बैठ कर नदी पार करके DM और CM के घरों के घेराओ कर दिया।

क़ौम की औरतें घरों में बैठे उलेमा  ज़ाकेरिन के घर उनको शर्म दिलाने गई (एक पर तो जूतियां भी फेंकी और चूड़ियाँ पेश की) जिसके बाद एक मौलाना को छोड़ कर सब ने तीसरे दिन अपने को गिरफ़्तारी के लिए पेश किया और लखनऊ जेल में पनाह ली।

दूसरे शहरों और मुल्कों में ज़बरदस्त प्रोटेस्ट्स हुए और एलान हुआ की अगर 7 रबी उल अव्वल तक मौलाना को रिहा नहीं किया तो दूसरे शहर के शिया 8 रबी उल अव्वल को लखनऊ पर धावा बोल देंगे। हुकूमत हार गई और मौलाना कल्बे जवाद साहब व दीगर शिया कैदियों को 8 जुलाई, 1997 को रिहा कर दिया गया।

9 जुलाई, 1997 के तमाम बड़े अखबारात ने हैडलाइन लगाई "हुकूमत ने घुटने टेक दिए, मौलाना कल्बे जवाद रिहा". हुकूमत ने एक हाई लेवल कमिटी नॉमिनेट की और तीन महीने में सोलुशन का वादा किया। हुकूमत ने शिया - सुन्नी लीडर्स से मुज़केरात के बाद एक ट्राई पार्टी एग्रीमेंट साइन करवाया (शिया - सुन्नी - डिस्ट्रिक्ट एडमिनिस्ट्रेशन) जिसके बाद शियों का पहला जुलूस 21 माहे रमज़ान (जनवरी, 1998) के दिन उठा और माशाल्लाह शियो को  9 दिन अपने जुलूस उठाने की इजाज़त मिल गई (1, 7, 8, 9 और 10 मुहर्रम, चेहलुम, 8 रबी उल अव्वल, 19 और 21 माहे रमज़ान).

मौलाना कल्बे जवाद साहब ने अब वक़्फ़ की प्रॉपर्टीज आज़ाद करवाने का बेडा उठाया  बदौलत इमामबाड़ा सिब्तैनाबाद, आलम नगर की 8 बीघा ज़मीन (जहाँ आज शिया कॉलोनी बन गई है और सैकड़ो शिया आबाद है), आसफ़ी मस्जिद के पुश्त की ज़मीन जिस पर LDA ने कब्ज़ा किया था (और जिसकी बिना पर मौलाना पर केस भी दर्ज हुआ था और अभी कुछ दिनों पहले केस वापस लिया गया है)

मौलाना कल्बे जवाद साहब ने दो साल क़ब्ल बहोत से सीनियर उलेमा के साथ मजलिस ए उलेमा ए हिन्द की बुनियाद डाली जो शियों के हुक़ूक़ की बाज़याबी के लिए जद्दो जेहद कर रही है। इस तंज़ीम में भी लखनऊ का कोई भी आलिम ए दीन या ज़ाकिर शामिल नहीं है।

ऊपर लिखे हालात से वाज़ेह हो गया होगा की लखनऊ के तक़रीबन तमाम उलेमा व ज़ाकिरीन हज़रात ने अब तक किसी क़ौमी मसले में न तो मौलाना कल्बे आबिद साहब का साथ दिया, न ही मौलाना कल्बे जवाद साहब का और न ही मजलिस ए उलेमा ए हिन्द का। बल्कि अक्सर ओ बेश्तर तहरीक को कमज़ोर करने की कोशिशें ही करते दिखाई दिए। जबकि मौलाना कल्बे आबिद साहब और मौलाना कल्बे जवाद साहब ने हमेशा उलेमा को साथ आने की दवात दी (मौलाना कल्बे जवाद साहब तो यह भी कहते हैं की  मैं तो छोटा हूँ, सीनियर उलेमा को मुझे खुद हुक्म देना चाहिए और मैं उनके पीछे चलने को तैयार हूँ। )

21 Apr 2015

Yemen ke Halaat aur Hamara Kirdaar

यमन के हालात और हमारा किरदार 




मुस्लमान और ख़ुसूसन शिया होने के नाते यह हमारा फ़रीज़ा है की दुनिया में हो रहे हालात से बा-खबर रहे और ये देखे की आज की तारीख में हमारा क्या फ़रीज़ा है। इमाम अली (अ) अपनी वसीयत में हम से मुखातिब हो कर फरमाते है कि "हमेशा मज़्लूमिन के साथ रहो और ज़ालिम के खिलाफ"।

आइये हम अपने आप पर एक नज़र डाले की आज हम इमाम (अ) की वसीयत  पर अमल कर रहे या नहीं?

सऊदी अरब ने आज से तक़रीबन दो हफ्ते पहले यमन पर हमला किया और हमले आज तक जारी है। इन हमलों में 2500 मासूमो की जाने चली गई और न जाने कितने शदीद ज़ख़्मी हुए। इंडियन मीडिया ने यमन के हालात को कवर तो किया लेकिन सिर्फ इस हद तक की यमन में फ़से भारतीय वापस अपने वतन पहुंच जाए। खुदा का करम हुआ की उसने सभी भारतीयो को यमन से निकलने का मौक़ा दिया। लेकिन इससे हक़ीक़ी हालात नहीं बदले। यमन अभी भी वैसा ही है।

यमन में अभी भी मासूम बच्चे और अवाम शहीद हो रहे है। इतना ही नहीं, सऊदी ने हाई डेंसिटी स्क्वाड बोम्ब्स का इस्तेमाल भी शुरू कर दिया है जिसकी वजह से भारी तबाही मची हुई है।

हमारा रवैय्या देखे तो पता चल रहा है की यमन में कुछ भी हो, हमें इससे क्या? मुंबई के खोजा शिया इस्ना अशरी हज़रात जमात के इलेक्शंस में बिजी है। दोनों पार्टियो को कैंपेनिंग करने से फुर्सत नहीं। ऐसे में जमात के प्लेटफार्म पर यमन की बात करना भैस के आगे बीन बजाने जैसा है। याद रहे, यही वो जमात है जिसने बहरैन के मौज़ू पर आज़ाद मैदान में पुरज़ोर एहतेजाज किया था। लेकिन आज जैसे यमन में मुस्लमान और शिया रहते ही न हो।

खोजा जमात इलेक्शंस में मसरूफ है, लेकिन दूसरे लोग जो खोजा नहीं है, उन्हें क्या हो गया है? वह तो मसरूफ नहीं। अपनी ज़िन्दगी में हमें इतना भी बिजी नहीं हो जाना चाहिए की अगर मज़लूम मदद के लिए आवाज़ उठाए तो कान पर जू तक ना रेंगे।

इसके साथ ही जब हम उलेमा की जानिब देखते  है तो वहा भी सन्नाटा नज़र आ रहा है। उलेमा उम्मत के रहबर है, और रहबर का काम है की उम्मत को सही राह की तरफ आमादा करे। अगर जमात इलेक्शंस में मसरूफ है तो उलेमा अपने मजलिसों और बयानों से उम्मत का ध्यान अस्ल मुद्दे पर लाने की कोशिश करे, ऐसा करने से ना सिर्फ उलेमा का उम्मत में वक़ार बढ़ेगा, बल्कि उम्मत को रहबर के पीछे चलने की आदत होगी।

पिछले कुछ हफ्तों के मरकज़ी जुमे के पॉइंट्स पर नज़र डाले तो यमन का ज़िक्र तक नहीं मिलता। ऐसे में उम्मत किस्से तवक़्क़ो करे जो उसे राह दिखाए। जुमा एक मरकज़ी हैसियत रखता है और उम्मत की ट्रेनिंग के लिए एक बेहतरीन प्लेटफार्म है। हमारे आइम्मा (अ) ने खास तौर पर कहा है की दूसरे ख़ुत्बे में सियासी पहलु पर नज़र डाले, ताकि उम्मत जान सके की दुनिया में क्या हो रहा है और उम्मत का फ़रीज़ा क्या है।

इस सुकूत के नतीजे में कई लोग यमन पर हमले को शिया सुन्नी जंग की नज़र से देखने पर मजबूर है, जो की वेस्टर्न मीडिया की एक चाल है। क़ौम के कुछ नौजवान जो व्हाट्स एप पर शिया न्यूज़ चैनल चलाते है खास तौर पर यमन तनाव को शिया सुन्नी जंग के रुप में पेश कर रहे है। ये उलेमा के इस मौज़ू पर सुकूत के गलत नतीजे की एक मिसाल है।

आज के दौर के ज़ुल्म के खिलाफ इस तरह का सन्नाटा नाक़ाबिले बर्दाश्त है और हमें याद रखना चाहिए की ज़ियारतों में तो "सकित (खामोश)" गिरोह पर खुदा की लानत की गई है वो इसी तरह के सुकूत में गिरफ्तार रहे थे। 

यमन के मज़लूम बच्चे सऊदी और अमेरिका के बोम्ब्स का शिकार हो रहे है और क़ौम इलेक्शंस के खानो में मस्त है। पार्टियां कम्पैनिंग कर रही हैं। जिससे पूछो वो यही कहता फिर रहा है की ये जीतेगा की वो।  मालूम पढता है जैसे दुनिया इसी मुद्दे पर घूम रही हो। और इन सब के  दरमियान जुमे के ख़ुत्बे में यमन का ज़िक्र तक ना आना दिखता है की हम कहाँ जा रहे है।

हमें याद रखना चाहिए की खुदा सब का इम्तिहान लेता है। कभी माल से, कभी औलाद से, कभी फुरसत दे कर, कभी मरतबा दे कर। आज हमारे पास मौक़ा है की अपने पहले इमाम, इमाम अली (अ) की वसीयत पर अमल कर के मज़्लूमिन से अपनी हिमायत का ऐलान करे और ज़ालिम से बेज़ारी का इज़हार। 

खुदा पकड़ने में बड़ा सख्त हैं। उसने साफ़ कह दिया है कि "अल्लाह उस क़ौम की हालत उस वक़्त तक नहीं बदलता, जब तक क़ौम खुद अपनी हालत बदलने पर आमादा नहीं हो जाती।"

उसने हमें नेमतें दी, वक़्त दिया, आज़ादी दी, अपनी बात कहने की आज़ादी, भारत जैसे मुल्क में पैदा किया जहा हम एहतेजाज कर सकते है, लेकिन हमने इस नेमत के बदले में क्या दिया? सुकूत; ख़ामोशी; बेज़ारी; और ना जाने क्या?

2500 मासूम लाशें पुकार  पुकार कर आवाज़ दे रहे हैं, कहाँ है वो जो कहते है की हमारा पहला इमाम अली (अ) है? क्यों वो अपने इमाम की वसीयत पर अमल नहीं करते? क्या हमारा नाहक़ खून उन्हें दिखाई नहीं देता? क्या उन्होंने सय्यद हसन नसरल्लाह, इमाम ख़ामेनई और दीगर ओलमा के बयानात नहीं सुने, जिनमे वो पुकार पुकार कर कह रहे है की मज़्लूमिन की हिमायत में हमेशा आवाज़ बुलंद करो और ज़ालिम के मुक़ाबिल बेज़ारी का इज़हार।

हमारा आज फ़रीज़ा है की अपना सुकूत तोड़े, रोज़मर्रा कछवे की चाल वाली ज़िन्दगी से बहार आए। इलेक्शंस में लड़ने वाली पार्टियों से पूछे की अगर वे जीत कर आएगें तो क्या ज़लिमिन के खिलाफ आवाज़ उठाएगे? उलेमा से उनके सुकूत की वजह पूछे? याद रहे सवाल पूछना बेइज़्ज़ती नहीं है? अदब के दायरे का खास ख्याल रहे। आज हम उठेंगे और सवाल करेंगे तो इंशाल्लाह आने वाली नस्लो तक ये सबक़ जाएंगा की ख़ामोशी और सुकूत कभी राहे हल है ही नहीं .

आइये हम अपने आपको बदले, हमारे समाज को बदले, अपनी सोच को बदले, इलेक्शंस में लड़ने वाली पार्टियों की जेहनियत को बदले, उलेमा को ये यक़ीन दिलाए की हम तैयार है; आप आवाज़ तो बुलंद करे; आइये सब मिलकर एक क़दम बढ़ाए एक असली इमाम (अ) के मानने वाले बने।

21 Mar 2015

Ayatullah Khamenei ka Nae Shamsi Saal 1394 ka paigham

नए हिजरी शम्सी साल 1394 के उपलक्ष्य में राष्ट्र के नाम संदेश 

 بسم ‌الله ‌الرّحمن ‌الرّحيم‌

يا مقلّب القلوب و الابصار، يا مدبّر اللّيل و النّهار، يا محوّل الحول و الاحوال،حوّل حالنا الی احسن الحال.
السّلام علی فاطمة و ابيها و بعلها و بنيها.

नए साल का आरंभ, हज़रत फ़ातेमा ज़हेरा की शहादत के दिनों के अवसर पर हुआ है। पैग़म्बर के ख़ानदान और महान रसूल की सुपुत्री से हमारी जनता की गहरी श्रद्धा और प्रेम के कुछ तक़ाज़े हैं, सबको चाहिए कि इन तक़ाज़ों का ध्यान रखें और निश्चित रूप से लोग ध्यान रखेंगे। आशा है कि यह दिन और यह साल हज़रत फ़ातेमा की बरकतों से सुसज्जित और संपन्न होंगे और सन 1394 (हिजरी शम्सी बराबर 21 मार्च 2015 से 20 मार्च 2016) में इस महान हस्ती के पवित्र नाम और उनके स्मरण के गहरे और स्थायी प्रभाव हमारी जनता के जीवन पर पड़ेंगे। हमारी प्रार्थना है कि प्रकृति के बसंत की शुरुआत जो हिजरी शम्सी साल की शुरुआत भी है, ईरानी जनता और उन सभी राष्ट्रों के लिए जो नौरोज़ मनाते हैं, मंगलमय हो। मैं हज़रत इमामे ज़माना अलैहिस्सलाम की सेवा में विनम्रतापूर्वक सलाम पेश करता हूं और इस अवसर पर स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी और शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं। हम आशा करते हैं कि महान ईश्वर इन पवित्र आत्माओं की दुआओं की बरकतों से हमें लाभान्वित करेगा। हम एक संक्षिप्त जायज़ा सन 1393 (हिजरी शम्सी बराबर 21 मार्च 2014 से 20 मार्च 2015 तक) का लेंगे और इस समय शुरू हो रहे साल पर भी नज़र डालेंगे।

वर्ष 1393 (हिजरी शम्सी) हमारे देश के लिए आंतरिक स्तर पर भी और बाहरी एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी बड़े महत्वपूर्ण परिवर्तनों और घटनाओं का साल रहा। कुछ चुनौतियों का सामना रहा, कुछ प्रगति भी हुई। इन्हीं चुनौतियों के दृष्टिगत हमने वर्ष 1393 (हिजरी शम्सी) की शुरुआत में इसका नाम राष्ट्रीय संकल्प और संघर्षपूर्ण प्रबंध का साल रखा। सन 1393 (हिजरी शम्सी) में जो कुछ पेश आया उसकी समीक्षा करने पर हमें यह दिखाई देता है कि राष्ट्रीय संकल्प ईश्वर की कृपा से विदित रूस से दिखाई दिया।

ईरानी जनता ने उन कठिनाइयों को सहन करने के संबंध में जो उसे पेश आईं, सशक्त संकल्प का प्रदर्शन किया और 22 बहमन (बराबर 11 फ़रवरी को इस्लामी क्रान्ति की वर्षगांठ) के अवसर पर, क़ुद्स दिवस पर और इस साल इमाम हुसैन के चेहलुम के भव्य जुलूसों में भी इस संकल्प और साहस का प्रदर्शन किया। संघर्षपूर्ण प्रबंध भी कुछ क्षेत्रों में स्पष्ट और विदित रहा। जहां संघर्षपूर्ण प्रबंध देखा गया वहां हमें प्रगति भी दिखाई दी। अलबत्ता यह अनुशंसा केवल 1393 (हिजरी शम्सी) तक सीमित नहीं है। जारी वर्ष में भी और आने वाले सभी वर्षों में भी हमारी जनता को राष्ट्रीय संकल्प की भी ज़रूरत है और संघर्षपूर्ण प्रबंध की भी आवश्यकता है।

सन 1393 (हिजरी शम्सी बराबर 21 मार्च 2015 से 20 मार्च 2016) में प्यारे देशवासियों के लिए हमारी कुछ कामनाएं हैं और यह सारी कामनाएं पहुंच के भीतर हैं। इस साल राष्ट्र के लिए हमारी कामनाओं में आर्थिक विकास है, क्षेत्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठा और मज़बूत स्थिति है, सही अर्थों में वैज्ञानिक क्षेत्र में तेज़ विकास है, न्यायपालिका और अर्थ व्यवस्था की सतह पर बराबरी है इसी प्रकार ईमान और आध्यात्मिकता है जो सबसे महत्वपूर्ण तथा अन्य लक्ष्यों के लिए सहायक भी है। हमारी नज़र में यह सभी लक्ष्य और कामनाएं पहुंच के भीतर हैं। इनमें कोई भी चीज़ ऐसी नहीं है जो ईरानी जनता की क्षमताओं तथा इस्लामी व्यवस्था के सामर्थ्य के बाहर हो। हमारी क्षमताएं अपार हैं। इस संदर्भ में कहने के लिए कुछ बातें हैं जिनमें महत्वपूर्ण बिंदुओं का उल्लेख शनिवार की शाम के भाषण में किया जाएगा।

इस समय अपने प्रिय देशवासियों की सेवा में जो बात कहनी है वह यह है कि यह क्षमताएं हमारी पहुंच के भीतर तो हैं किंतु इसकी कुछ शर्तें हैं। एक महत्वपूर्ण शर्त, राष्ट्र और सरकार के बीच निष्ठापूर्ण सहयोग है। यदि दोनों ओर से यह निष्ठापूर्ण सहयोग हो तो निश्चित रूप से वह सभी चीज़ें जो हमारी कामनाओं में शामिल हैं, हमारी पहुंच में आ जाएंगी और उनके प्रभावों को जनता अपनी आँखों से देखेगी।

सरकार, जनता की सेवक है और जनता सरकार की मालिक है। जनता और सरकार के बीच, निष्ठा, सहयोग, सहृदयता जितनी अधिक होगी, काम उतने ही अच्छे अंदाज़ में आगे बढ़ेंगे। दोनों एक दूसरे पर विश्वास करें। सरकार भी सही अर्थों में जनता को महत्व दे, राष्ट्र की क्षमताओं और उसके महत्व एवं मूल्य को सही प्रकार से स्वीकार करे। देशवासी भी सरकार पर जो उनके कामों को अंजाम देने के लिए कार्यरत है, सही अर्थ में भरोसा करें। इस संदर्भ में भी मुझे कुछ बातें कहनी हैं और कुछ अनुशंसाएं करनी हैं।

ईश्वर की इच्छा रही तो अपने भाषण में उनकी ओर भी संकेत करुंगा। अतः मेरी नज़र में इस साल को सरकार और जनता के बीच व्यापक सहयोग का साल समझना चाहिए। मैंने इस साल के लिए इस नारे का चयन किया हैः सरकार और जनता, सहृदयता और एक आवाज़! मैं आशा करता हूं कि यह नारा व्यवहारिक होगा और इस नारे के दोनों पलड़े अर्थात हमारी प्रिय जनता, हमारी महान जनता, हमरी साहसी और बहादुर राष्ट्र, हमारी बुद्धिमान एवं समझदार जनता, इसी प्रकार सेवारत सरकार दोनों इस नारे पर सही अर्थों में अमल करेंगे और इसके प्रभाव और प्रतिफल दिखाई देंगे।

महान ईश्वर से देश के सभी मामलों में प्रगति की प्रार्थना करता हूं और पालनहार की सेवा में लोगों की सेवा में सफलता की दुआ मांगता हूं।

वस्सलाम अलैकुल व रहमतुल्लाहे व बरकातोहू

Source: Hindi.irib.ir

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