21 Apr 2015

Yemen ke Halaat aur Hamara Kirdaar

यमन के हालात और हमारा किरदार 




मुस्लमान और ख़ुसूसन शिया होने के नाते यह हमारा फ़रीज़ा है की दुनिया में हो रहे हालात से बा-खबर रहे और ये देखे की आज की तारीख में हमारा क्या फ़रीज़ा है। इमाम अली (अ) अपनी वसीयत में हम से मुखातिब हो कर फरमाते है कि "हमेशा मज़्लूमिन के साथ रहो और ज़ालिम के खिलाफ"।

आइये हम अपने आप पर एक नज़र डाले की आज हम इमाम (अ) की वसीयत  पर अमल कर रहे या नहीं?

सऊदी अरब ने आज से तक़रीबन दो हफ्ते पहले यमन पर हमला किया और हमले आज तक जारी है। इन हमलों में 2500 मासूमो की जाने चली गई और न जाने कितने शदीद ज़ख़्मी हुए। इंडियन मीडिया ने यमन के हालात को कवर तो किया लेकिन सिर्फ इस हद तक की यमन में फ़से भारतीय वापस अपने वतन पहुंच जाए। खुदा का करम हुआ की उसने सभी भारतीयो को यमन से निकलने का मौक़ा दिया। लेकिन इससे हक़ीक़ी हालात नहीं बदले। यमन अभी भी वैसा ही है।

यमन में अभी भी मासूम बच्चे और अवाम शहीद हो रहे है। इतना ही नहीं, सऊदी ने हाई डेंसिटी स्क्वाड बोम्ब्स का इस्तेमाल भी शुरू कर दिया है जिसकी वजह से भारी तबाही मची हुई है।

हमारा रवैय्या देखे तो पता चल रहा है की यमन में कुछ भी हो, हमें इससे क्या? मुंबई के खोजा शिया इस्ना अशरी हज़रात जमात के इलेक्शंस में बिजी है। दोनों पार्टियो को कैंपेनिंग करने से फुर्सत नहीं। ऐसे में जमात के प्लेटफार्म पर यमन की बात करना भैस के आगे बीन बजाने जैसा है। याद रहे, यही वो जमात है जिसने बहरैन के मौज़ू पर आज़ाद मैदान में पुरज़ोर एहतेजाज किया था। लेकिन आज जैसे यमन में मुस्लमान और शिया रहते ही न हो।

खोजा जमात इलेक्शंस में मसरूफ है, लेकिन दूसरे लोग जो खोजा नहीं है, उन्हें क्या हो गया है? वह तो मसरूफ नहीं। अपनी ज़िन्दगी में हमें इतना भी बिजी नहीं हो जाना चाहिए की अगर मज़लूम मदद के लिए आवाज़ उठाए तो कान पर जू तक ना रेंगे।

इसके साथ ही जब हम उलेमा की जानिब देखते  है तो वहा भी सन्नाटा नज़र आ रहा है। उलेमा उम्मत के रहबर है, और रहबर का काम है की उम्मत को सही राह की तरफ आमादा करे। अगर जमात इलेक्शंस में मसरूफ है तो उलेमा अपने मजलिसों और बयानों से उम्मत का ध्यान अस्ल मुद्दे पर लाने की कोशिश करे, ऐसा करने से ना सिर्फ उलेमा का उम्मत में वक़ार बढ़ेगा, बल्कि उम्मत को रहबर के पीछे चलने की आदत होगी।

पिछले कुछ हफ्तों के मरकज़ी जुमे के पॉइंट्स पर नज़र डाले तो यमन का ज़िक्र तक नहीं मिलता। ऐसे में उम्मत किस्से तवक़्क़ो करे जो उसे राह दिखाए। जुमा एक मरकज़ी हैसियत रखता है और उम्मत की ट्रेनिंग के लिए एक बेहतरीन प्लेटफार्म है। हमारे आइम्मा (अ) ने खास तौर पर कहा है की दूसरे ख़ुत्बे में सियासी पहलु पर नज़र डाले, ताकि उम्मत जान सके की दुनिया में क्या हो रहा है और उम्मत का फ़रीज़ा क्या है।

इस सुकूत के नतीजे में कई लोग यमन पर हमले को शिया सुन्नी जंग की नज़र से देखने पर मजबूर है, जो की वेस्टर्न मीडिया की एक चाल है। क़ौम के कुछ नौजवान जो व्हाट्स एप पर शिया न्यूज़ चैनल चलाते है खास तौर पर यमन तनाव को शिया सुन्नी जंग के रुप में पेश कर रहे है। ये उलेमा के इस मौज़ू पर सुकूत के गलत नतीजे की एक मिसाल है।

आज के दौर के ज़ुल्म के खिलाफ इस तरह का सन्नाटा नाक़ाबिले बर्दाश्त है और हमें याद रखना चाहिए की ज़ियारतों में तो "सकित (खामोश)" गिरोह पर खुदा की लानत की गई है वो इसी तरह के सुकूत में गिरफ्तार रहे थे। 

यमन के मज़लूम बच्चे सऊदी और अमेरिका के बोम्ब्स का शिकार हो रहे है और क़ौम इलेक्शंस के खानो में मस्त है। पार्टियां कम्पैनिंग कर रही हैं। जिससे पूछो वो यही कहता फिर रहा है की ये जीतेगा की वो।  मालूम पढता है जैसे दुनिया इसी मुद्दे पर घूम रही हो। और इन सब के  दरमियान जुमे के ख़ुत्बे में यमन का ज़िक्र तक ना आना दिखता है की हम कहाँ जा रहे है।

हमें याद रखना चाहिए की खुदा सब का इम्तिहान लेता है। कभी माल से, कभी औलाद से, कभी फुरसत दे कर, कभी मरतबा दे कर। आज हमारे पास मौक़ा है की अपने पहले इमाम, इमाम अली (अ) की वसीयत पर अमल कर के मज़्लूमिन से अपनी हिमायत का ऐलान करे और ज़ालिम से बेज़ारी का इज़हार। 

खुदा पकड़ने में बड़ा सख्त हैं। उसने साफ़ कह दिया है कि "अल्लाह उस क़ौम की हालत उस वक़्त तक नहीं बदलता, जब तक क़ौम खुद अपनी हालत बदलने पर आमादा नहीं हो जाती।"

उसने हमें नेमतें दी, वक़्त दिया, आज़ादी दी, अपनी बात कहने की आज़ादी, भारत जैसे मुल्क में पैदा किया जहा हम एहतेजाज कर सकते है, लेकिन हमने इस नेमत के बदले में क्या दिया? सुकूत; ख़ामोशी; बेज़ारी; और ना जाने क्या?

2500 मासूम लाशें पुकार  पुकार कर आवाज़ दे रहे हैं, कहाँ है वो जो कहते है की हमारा पहला इमाम अली (अ) है? क्यों वो अपने इमाम की वसीयत पर अमल नहीं करते? क्या हमारा नाहक़ खून उन्हें दिखाई नहीं देता? क्या उन्होंने सय्यद हसन नसरल्लाह, इमाम ख़ामेनई और दीगर ओलमा के बयानात नहीं सुने, जिनमे वो पुकार पुकार कर कह रहे है की मज़्लूमिन की हिमायत में हमेशा आवाज़ बुलंद करो और ज़ालिम के मुक़ाबिल बेज़ारी का इज़हार।

हमारा आज फ़रीज़ा है की अपना सुकूत तोड़े, रोज़मर्रा कछवे की चाल वाली ज़िन्दगी से बहार आए। इलेक्शंस में लड़ने वाली पार्टियों से पूछे की अगर वे जीत कर आएगें तो क्या ज़लिमिन के खिलाफ आवाज़ उठाएगे? उलेमा से उनके सुकूत की वजह पूछे? याद रहे सवाल पूछना बेइज़्ज़ती नहीं है? अदब के दायरे का खास ख्याल रहे। आज हम उठेंगे और सवाल करेंगे तो इंशाल्लाह आने वाली नस्लो तक ये सबक़ जाएंगा की ख़ामोशी और सुकूत कभी राहे हल है ही नहीं .

आइये हम अपने आपको बदले, हमारे समाज को बदले, अपनी सोच को बदले, इलेक्शंस में लड़ने वाली पार्टियों की जेहनियत को बदले, उलेमा को ये यक़ीन दिलाए की हम तैयार है; आप आवाज़ तो बुलंद करे; आइये सब मिलकर एक क़दम बढ़ाए एक असली इमाम (अ) के मानने वाले बने।

21 Mar 2015

Ayatullah Khamenei ka Nae Shamsi Saal 1394 ka paigham

नए हिजरी शम्सी साल 1394 के उपलक्ष्य में राष्ट्र के नाम संदेश 

 بسم ‌الله ‌الرّحمن ‌الرّحيم‌

يا مقلّب القلوب و الابصار، يا مدبّر اللّيل و النّهار، يا محوّل الحول و الاحوال،حوّل حالنا الی احسن الحال.
السّلام علی فاطمة و ابيها و بعلها و بنيها.

नए साल का आरंभ, हज़रत फ़ातेमा ज़हेरा की शहादत के दिनों के अवसर पर हुआ है। पैग़म्बर के ख़ानदान और महान रसूल की सुपुत्री से हमारी जनता की गहरी श्रद्धा और प्रेम के कुछ तक़ाज़े हैं, सबको चाहिए कि इन तक़ाज़ों का ध्यान रखें और निश्चित रूप से लोग ध्यान रखेंगे। आशा है कि यह दिन और यह साल हज़रत फ़ातेमा की बरकतों से सुसज्जित और संपन्न होंगे और सन 1394 (हिजरी शम्सी बराबर 21 मार्च 2015 से 20 मार्च 2016) में इस महान हस्ती के पवित्र नाम और उनके स्मरण के गहरे और स्थायी प्रभाव हमारी जनता के जीवन पर पड़ेंगे। हमारी प्रार्थना है कि प्रकृति के बसंत की शुरुआत जो हिजरी शम्सी साल की शुरुआत भी है, ईरानी जनता और उन सभी राष्ट्रों के लिए जो नौरोज़ मनाते हैं, मंगलमय हो। मैं हज़रत इमामे ज़माना अलैहिस्सलाम की सेवा में विनम्रतापूर्वक सलाम पेश करता हूं और इस अवसर पर स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी और शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं। हम आशा करते हैं कि महान ईश्वर इन पवित्र आत्माओं की दुआओं की बरकतों से हमें लाभान्वित करेगा। हम एक संक्षिप्त जायज़ा सन 1393 (हिजरी शम्सी बराबर 21 मार्च 2014 से 20 मार्च 2015 तक) का लेंगे और इस समय शुरू हो रहे साल पर भी नज़र डालेंगे।

वर्ष 1393 (हिजरी शम्सी) हमारे देश के लिए आंतरिक स्तर पर भी और बाहरी एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी बड़े महत्वपूर्ण परिवर्तनों और घटनाओं का साल रहा। कुछ चुनौतियों का सामना रहा, कुछ प्रगति भी हुई। इन्हीं चुनौतियों के दृष्टिगत हमने वर्ष 1393 (हिजरी शम्सी) की शुरुआत में इसका नाम राष्ट्रीय संकल्प और संघर्षपूर्ण प्रबंध का साल रखा। सन 1393 (हिजरी शम्सी) में जो कुछ पेश आया उसकी समीक्षा करने पर हमें यह दिखाई देता है कि राष्ट्रीय संकल्प ईश्वर की कृपा से विदित रूस से दिखाई दिया।

ईरानी जनता ने उन कठिनाइयों को सहन करने के संबंध में जो उसे पेश आईं, सशक्त संकल्प का प्रदर्शन किया और 22 बहमन (बराबर 11 फ़रवरी को इस्लामी क्रान्ति की वर्षगांठ) के अवसर पर, क़ुद्स दिवस पर और इस साल इमाम हुसैन के चेहलुम के भव्य जुलूसों में भी इस संकल्प और साहस का प्रदर्शन किया। संघर्षपूर्ण प्रबंध भी कुछ क्षेत्रों में स्पष्ट और विदित रहा। जहां संघर्षपूर्ण प्रबंध देखा गया वहां हमें प्रगति भी दिखाई दी। अलबत्ता यह अनुशंसा केवल 1393 (हिजरी शम्सी) तक सीमित नहीं है। जारी वर्ष में भी और आने वाले सभी वर्षों में भी हमारी जनता को राष्ट्रीय संकल्प की भी ज़रूरत है और संघर्षपूर्ण प्रबंध की भी आवश्यकता है।

सन 1393 (हिजरी शम्सी बराबर 21 मार्च 2015 से 20 मार्च 2016) में प्यारे देशवासियों के लिए हमारी कुछ कामनाएं हैं और यह सारी कामनाएं पहुंच के भीतर हैं। इस साल राष्ट्र के लिए हमारी कामनाओं में आर्थिक विकास है, क्षेत्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठा और मज़बूत स्थिति है, सही अर्थों में वैज्ञानिक क्षेत्र में तेज़ विकास है, न्यायपालिका और अर्थ व्यवस्था की सतह पर बराबरी है इसी प्रकार ईमान और आध्यात्मिकता है जो सबसे महत्वपूर्ण तथा अन्य लक्ष्यों के लिए सहायक भी है। हमारी नज़र में यह सभी लक्ष्य और कामनाएं पहुंच के भीतर हैं। इनमें कोई भी चीज़ ऐसी नहीं है जो ईरानी जनता की क्षमताओं तथा इस्लामी व्यवस्था के सामर्थ्य के बाहर हो। हमारी क्षमताएं अपार हैं। इस संदर्भ में कहने के लिए कुछ बातें हैं जिनमें महत्वपूर्ण बिंदुओं का उल्लेख शनिवार की शाम के भाषण में किया जाएगा।

इस समय अपने प्रिय देशवासियों की सेवा में जो बात कहनी है वह यह है कि यह क्षमताएं हमारी पहुंच के भीतर तो हैं किंतु इसकी कुछ शर्तें हैं। एक महत्वपूर्ण शर्त, राष्ट्र और सरकार के बीच निष्ठापूर्ण सहयोग है। यदि दोनों ओर से यह निष्ठापूर्ण सहयोग हो तो निश्चित रूप से वह सभी चीज़ें जो हमारी कामनाओं में शामिल हैं, हमारी पहुंच में आ जाएंगी और उनके प्रभावों को जनता अपनी आँखों से देखेगी।

सरकार, जनता की सेवक है और जनता सरकार की मालिक है। जनता और सरकार के बीच, निष्ठा, सहयोग, सहृदयता जितनी अधिक होगी, काम उतने ही अच्छे अंदाज़ में आगे बढ़ेंगे। दोनों एक दूसरे पर विश्वास करें। सरकार भी सही अर्थों में जनता को महत्व दे, राष्ट्र की क्षमताओं और उसके महत्व एवं मूल्य को सही प्रकार से स्वीकार करे। देशवासी भी सरकार पर जो उनके कामों को अंजाम देने के लिए कार्यरत है, सही अर्थ में भरोसा करें। इस संदर्भ में भी मुझे कुछ बातें कहनी हैं और कुछ अनुशंसाएं करनी हैं।

ईश्वर की इच्छा रही तो अपने भाषण में उनकी ओर भी संकेत करुंगा। अतः मेरी नज़र में इस साल को सरकार और जनता के बीच व्यापक सहयोग का साल समझना चाहिए। मैंने इस साल के लिए इस नारे का चयन किया हैः सरकार और जनता, सहृदयता और एक आवाज़! मैं आशा करता हूं कि यह नारा व्यवहारिक होगा और इस नारे के दोनों पलड़े अर्थात हमारी प्रिय जनता, हमारी महान जनता, हमरी साहसी और बहादुर राष्ट्र, हमारी बुद्धिमान एवं समझदार जनता, इसी प्रकार सेवारत सरकार दोनों इस नारे पर सही अर्थों में अमल करेंगे और इसके प्रभाव और प्रतिफल दिखाई देंगे।

महान ईश्वर से देश के सभी मामलों में प्रगति की प्रार्थना करता हूं और पालनहार की सेवा में लोगों की सेवा में सफलता की दुआ मांगता हूं।

वस्सलाम अलैकुल व रहमतुल्लाहे व बरकातोहू

Source: Hindi.irib.ir

22 Jan 2015

Ayatullah Khamenei ka Jawano ko paigham (Hindi me)

Ayatullah Syed Ali Khamenei (DA), Islamic Republic Iran ke Rehbar, ka paigham

Shuru Allah ke naam se, jo bada Meharbaan aur Nihayat Raham karne wala hai.

Ye paigham un jawano ke liye hai jo Europe aur America me rehte hai. Aaj ki tarikh me ho rahe waqeaat, khas taur par France me aur kuch digar maghribi mulko ke hadesaat ne mujhe is baat par aamada kiya ki mai aap logo se sidhe baat karu. Aaj mai sidhe jawano se mukhatib hu, iska ye matlab nahi ki mai aapke waledain ko nazarandaaz kar raha hu, balki isliye ki aapke mulk ka mustaqbil (Future) aapke haatho me hai; aur isliye bhi ki mai aap ke dilo me sachchai ko paane ki lagan aur tadap dekhta hu.

Is paigham me mai aapke siyasi leaderan aur mulk ke bashindo ko mukhatib nahi kar raha is liye ki mujhe yaqin hai ke un logo ne jaan bujh kar siyasat ke raaste ko haq aur sachchai ki raah se alag kar rakha hai.

Mai aap se Islam ke baare me baat karna chahta hu, us islam ki jiske bigdi hui tasweer aap logo ke samne pesh ki ja rahi hai. Soviet Russia ke tutne ke baad se (1989) se abhi tak, pichle do sadiyo me, bahot si aisi koshishe ki gai hai jisme Islam ko ek khatarnaak dushman bataya gaya hai. Haala ki maghrib (West) jab khud apni shakl ki taraf nazar kare to wo haqiqi darawni aur nafrat bhari hai, aur iske saath hi un logo ki wehshiyana kartut ki fehrist kai guna lambi hai.

Yaha mai un sab khauf ka zikr nahi karna chahta jisse maghribi mulko (Western Countries) ne duniya ko dara kar rakha hai. Agar haal ki tarikh par ek sarsari nazar daali jaae to ye baat saaf zahir hoti hai ki in Maghribi Mulko ne apne munafiq andaaz (Hypocrisy) se tarikh ki kitabo ko apne zulm se paak karne ki nakaam koshishe ki hai.

America aur Europe ki tarikh sharmsaar hai apne kabhi na maaf hone wale gunaho se.. insaano ko ghulam banane se le kar, mulko par ghasibana kabze se le kar, rang aur bhasha (Zaban) ke mudde se le kar, Masihi (Christan) - Ghair Masihi (Non-Christan) tashaddud ko mudda bana kar jo zulm duniya me kiya hai uski misaal tarikh me nahi milti.

Aap ke tarikhdaan aur researchers haqiqi taur par sharminda hai ki Catholics aur Protestants ke bich ki khoon aalud mazhabi jang inhi maghribi mulko ne karai thi, kai mulko ke bich aur naslo ke bich ki jang bhi inhi Maghribi Mulko ki shamnaak kartut ka natija hai, jiski misaal hame pehli aur dusri jange azeem (First & Second World War) ki shakl me dkehne milti hai. Tarikh ka Ye nuqta qabile ghaur hai.

Is paigham me mai puri tarikh nahi bayan karna chahta, balki tarikh ki halki si jhalak dikha kar aap ke daanishwaro aur aqalmando se sawal karta hu ki itni sadiyo baad achanak maghribi awaam kaise hosh me aa gai? Kya wajah hai ke pehle ki tarikh ke aham waqeaat ko kam ahmiyat de kar jadidtarikh par itna zor diya ja raha hai? Kya wajah hai ki Islami muashre, values aur culture ko failane par rok lagai ja rahi hai?

Aap log bahot achchi tarah se waqif hai ki Beizzati karna, awaam me dushmani failana aur kisi ka beja khauf logo ke dilo me daalna, zalimeen ka pesha raha hai. Aaj mai aap se sawal karna chahta hu ke:

- kyu zalimo ki purani policy jisse wo logo ke dilo me khauf daalte the aur dushmani failate the, aaj Islam aur Muslim par aazmai ja rahi hai?
- Aisa kyu dekhne me aa raha hai ki Aaj duniya ka samraji nizaam Islami fikr ko kinarakash kar ke use khamosh bana dena chahta hai?
- Islam me aise kaun si fikr aur aqdaar hai jisse samraji nizaam ko khatra lahaq hai aur Islam ki shakl ko bigaadne me inke kaun se mafadaat chipe hue hai?

In sab sawalo ke saath meri aap se pehli guzarish hai ki: Aap khud apni padhai aur research kariye aur is baat ka pata lagaiye ki Islam ki shakl bigadne ke piche kya mansube chipe hue hai.

Meri dusri guzarish ye hai ki aaj ke galat aur afwah aamez duar me jitna ho sake utna sidhe mambe se (Source se) ilm hasil karne ki koshish kariye. Sahi tariqa yehi hai ki jis baat se wo aap ko dara rahe hai aur dur le jana chahte hai, uske baare me haqiqi ilm aapke paas aa jae.

Mai aap se aslan ye nahi keh raha hu ke aap meri kitabe padho ya Islam ki aur koi kitaab ya articles padho. Asl me mai aapse ye kehne ki koshish kar raha hu ki zamane ki is azeem haqiqat, "Islam" ko kisi aise raste ke zariye mat samjhiye jaha se galat aur afwah aamez chize aa rahi hai.

Islam ko Maghribi Mulko ke banae hue aatankwadiyo ke zariye mat samjhiye balki aap asli mambe (Sources) ki taraf ruju kare. Aap se ye guzarish hai ki aap Islam ki jaankari uske haqiqi mambe (Original Sources) se hasil kare. Aur ye mambe hai Quraan aur Rasul (s) ki zindagi.

Mai aap se khul ke ek sawal karna chahta hu ke
- kya aapne kabhi Musalmano ki kitaab Quraan ko khud padha hai?
- Kya aapne Islam ke paighambar Muhammed (s) ki zindagi, unki hiqayaat aur akhlaqi zindagi ko dekha hai?
- Kya aapne kabhi Islam ko media ko chhod kar kisi aur source se lene ki koshish ki hai?
- Kya aapne apne aap se kabhi ye sawaal kiya hai ki kis bina par Islam duniya ke sabse bade civilized muashere ko wujud me la saka?
- kya wajah hai ke itne sienci (Scientific) tajrube Islam ki den hai?
- Aur kya wajah hai ki Islam ne kitne hi science daan aur daanishwar duniya ko diye hai?

Mai ye bilkul nahi chahta ki ye failai hui galat chize aur afwaahe aap logo se aapki sochne ki taqat chin le aur aap usi chiz par bharosa kare jo media aap ko sochne par majboor kar raha hai. Iski wajah se aap ke aur duniya ki ek sabse badi haqiqat "Islam" ke bich me ek khala (gap) paida ho sakti hai.

Aaj scienci aur communication technology ne duniya ki sarhado ko lagbhag khatm kar diya hai. Isliye aaj zarurat hai ki aap apne aapko unki (West aur media ki) banai hui masnui duniya se aazad kare jo aap ke dilo dimaag ko apne kabu me rakhne ki koshish kar rahi hai.

Ye baat bhi haqiqat hai ki jo khala (gap) ijaad ho chuki hai use ek insaan akele nahi bhar sakta, ye aap sab ka kaam hai ki aap is khala (gap) ke upar ek baseerati pul banae jiski buniyaad aapke sochne ki taqat aur khula zahan ho jo aapko is khala (gap) se bahar nikal kar haqiqi roshni se mil de. Jiski bina par aap apne aap ko aur apne atraaf ko haqiqi roshani ki taraf badhta hua mehsus karege.

Ye bhi kaha ja sakta hai ki Jawano aur Islam ke bich ka ye khayali jhagda sahi nahi hai, lekin sachhai ki talash ki is justaju aur mehnat ki wajah se aapke bechain zahno ko zarur apne sawalo ke jawaab milege. In sawalo ke jawabaat ko dhundte waqt aapko zarur kai aur haqiqato ke bhi jawaabat mil jaege.

Isliye mai aap sab ko dawat deta hu ki aap is mohlat ko haath se na jaane de jisme aapko haqiqi, satik aur paak Islam ki jaankari hasil ho sakti hai. Umeed hai ki hamari sanjidgi aur haq ki talash hame us marhale par pahuchaegi jaha aage aane wali nasle, Islam aur naujawano ke bich is mulaqat ko saaf, shaffaf aur sunahare alfaaz me likhegi.

Syed Ali Khamenei

13 Jan 2015

Biography of Ayatullah Khamenei



आयतुल्लाह ख़ामेनई की सवानए हयात


आयतुल्लाह हाज सय्यद अली हुसैनी ख़ामेनई मरहूम आयतुल्लाह सय्यद जावद हुसैनी ख़ामेनई के फ़रज़न्द है। उनकी पैदाइश ईरान के मुक़द्दस शहर, मशहद में 17 जुलाई, 1939 को हुई।  सय्यद जावद ख़ामेनई  अपने ज़माने के दीगर उलेमा की मानिंद मेयानारवी की ज़िन्दगी बसर करते थे और इन्ही की बदौलत उनका  खानदान इनकेसरी और क़नाअत की ज़िन्दगी बसर करने का आदी रहा।

अपने पिदर ए बुज़ुर्गवार के घर में अपनी ज़िन्दगी को याद करते हुए आयतुल्लाह सय्यद अली ख़ामेनई फरमाते है: “मेरे वालिद एक मशहूर आलिम ए दीन थे, जो बहोत मुत्तक़ी थे और गोशनाशिनी की ज़िन्दगी जीना पसंद करते थे। हमारी ज़िन्दगी काफी मुश्किलो भरी थी।  मुझे याद है  कि हमारी कई राते बिना खाने के गुज़र जाती थी। मेरी वालिदा कोशिश करती और जो कुछ जमा कर पाती वो हमें खाने में मिलता और बहोत दफा वो सिर्फ रोटी और थोड़ी सी दाल होती थी।”

“मेरे वालिद का घर, जहा मेरी पैदाइश हुई और मैंने अपना बचपन गुज़ारा, वो एक छोटा सा मकान था, जो मशहद के गरीब इलाक़े में था। घर में सिर्फ  एक ही कमरा था और एक तहखाना था।  हमारे वालिद कहते थे की लोग आलिम के घर दीनी मशविरे और मदद के लिए आते है और उन्हें किसी क़िस्म की तकलीफ नहीं पहुचनी चाहिए। इसलिए अगर घर में कोई मेहमान हमारे वालिद से मिलने आते, तो हम तहखाने में चले जाते थे।  कुछ वक़्त बाद, हमारे वालिद के कुछ दोस्तों ने पड़ोस का एक कमरा उन्हें हदिया किया और इस तरह हमारा माकन कुछ बड़ा हुआ।

आयतुल्लाह ख़ामेनई ने एक गरीब लेकिन बहोत ही मुत्तक़ी घर में परवरिश पाई। उनके वालिद एक बा-अज़मत दीनी आलिम थे इसलिए रहबर-ए-इंक़ेलाब को भी इसी तरह की तरबियत मिली। जब उनकी उम्र 4 साल की हुई तब उन्होंने अपने बड़े भाई सय्यद मुहम्मद के साथ मकतब जाना शुरू किया और दर्स ए क़ुरआन हासिल करने लगे। दोनों भाइयो ने एक नए मदरसे में, जिसका नाम “दार अत-तालीमें दीनियात” था अपनी पढाई जारी रखी और प्राइमरी की पढाई पूरी करी। 


अपनी हाई स्कूल के पढाई के दौरान, उन्होंने "जामे मुक़द्देमात" नामी किताब सिख ली जो अरबी अदबियात की बुनियादी किताब है। उनकी हाई स्कूल की पढाई के बाद आयतुल्लाह ख़ामेनई हौज़े ए इल्मिया में इल्म हासिल करने लगे जहा वो अपने वालिद और दीगर उलेमा के ज़ेरे नज़र इल्म ए दीन हासिल किया।  

इल्म-ए-दीन की राह इख्तियार करने के बारे में जब उनसे पूछा गया तो उन्होंने कहा, “इस राह की ओर मुझे आमादा करने वाली  शख्सियत खुद मेरे वालिद-ए-बुज़ुर्गवार है।  और मेरी वालिदा ने भी मुझे बहोत मदद करी और आगे बढ़ाया।"

आयतुल्लाह ख़ामेनई ने "जामे-अल-मुक़द्देमात", "सेयुति" और "मुग़नी" जैसी किताबे "सुलेमान खान मदरसे" और "नवाब मदरसे" में पूरी करी। वहाँ वो दीगर उलेमा के साथ साथ अपने वालिद आयतुल्लाह जवाद ख़ामेनई  की खास निगरानी में अपनी पढाई पूरी कर रहे थे। वहाँ उन्होंने एक अहम किताब “मुअल्लिम” भी मुकम्मल करी। बाद में उन्होंने “शरहे इस्लाम” और “शरहे लूमा” अपने वालिद, "आयतुल्लाह जवाद ख़ामेनई" और "आगा मिर्ज़ा मुदर्रिस यज़्दी" की निगरानी में पूरी की।

अपनी बकिया पढाई जिसमे "इल्मे उसूल" और "फिक़्ह" शामिल है, आपने अपने वालिद के ज़ेरे-एहतेमाम पूरी करी। इस तरह से उन्होंने अपनी इब्तिदाई पढाई बहोत जल्द और बा-हुनर तरीके से साढ़े पांच साल में मुकम्मल कर ली। आयतुल्लाह जवाद ख़ामेनई ने अपने बेटे की दीनी तरक़्क़ी की राह में बहोत बड़ा किरदार निभाया है।   

आयतुल्लाह ख़ामेनई ने "मंतिक़ और फलसफे" की पढाई की शुरुआत "मन्जुमह-ए-सब्ज़वारी" की सूरत में "मरहूम आयतुल्लाह मिर्ज़ा जवाद आगा तेहरानी" की ज़ेरे निगरानी करी और बक़िया पढाई "मरहूम शेख रिज़ा ऐसी" के साथ पूरी करी।

अपनी उम्र के 18 वे साल में आयतुल्लाह ख़ामेनई ने आखरी दर्जे की पढाई, दरसे ख़ारिज की शुरुआत मशहूर आलिम-ए-दीन और मरजा-ए-वक़्त "आयतुल्लाह मिलनी" के ज़ेरे-एहतेमाम मशहद में शुरू की।

1957 में नजफ़-ए-अशरफ और कर्बला-ए-मोअल्ला की ज़ियारत की नियत से आयतुल्लाह ख़ामेनई इराक  तशरीफ़ ले गए, वह का दीनी माहोल और मुख्तलिफ उलेमा का दरस-ए-ख़ारिज देख कर उन्होंने नजफ़ में रहने का इरादा किया। नजफ़ में वो आयतुल्लाह मोहसिन हक़ीम, सय्यद महमूद शहरूदी, मिर्ज़ा बाक़िर ज़न्जानी, सय्यद याहया यज़्दी और मिर्ज़ा हसन बुजनुर्दी के दर्स में शिरकत करने लगे। लेकिन उनके वालिद ने उन्हें नजफ़ से वापस तलब कर लिया और फिर उन्हें कुछ वक़्त के बाद नजफ़ छोड़ना पड़ा और वह वापस ईरान आ गए।

1958 से 1964 तक आयतुल्लाह ख़ामेनई ने फिक़्ह और फलसफे की अपनी पढाई "हौज़ा-ए-इल्मिया क़ुम" में जारी रखी जहा उन्होंने बुज़ुर्ग उलेमा-ए-दीन जैसे "मरहूम आयतुल्लाह बुरुजर्दी, इमाम खोमैनी, शेख मुर्तज़ा हाइरी यज़्दी और अल्लामा तबतबाई" के क़दमों में इल्म हासिल किया।

1965 में अपने वालिद के खुतूत से उन्हें खबर मिली कि  उनके वालिद की एक आँख की रौशनी मोतिया की वजह से चली गई है। अपने वालिद की खिदमत की खातिर आयतुल्लाह खेमेनेई ने फैसला लिया कि वो मशहद में जा कर अपने वालिद की खिदमत करेंगे और वही पर इल्म-ए-दीन भी हासिल करते रहेंगे।

इस सिलसिले में वे कहते है कि आज जो कुछ इज़्ज़त और शरफ अल्लाह ने मुझे दिया है उसकी सिर्फ एक ही  वजह है और वो है मेरे वालदैन की खिदमत।

मशहद में उन्होंने अपनी दीनी पढाई "आयतुल्लाह मिलानी" की खिदमत में जारी रखी। इसी बीच वो दीगर मदरसो और यूनिवर्सिटी में दर्स भी लेते थे और दुसरो को पढ़ाते भी रहे।

रहबरे मोअज़्ज़म फ़िक़्ही मसाइल, इन्क़ेलाबी सोच और सियासती उसूल के मैदान में इमाम खोमैनी (र. अ) के खास और क़रीबी शागिर्दों में से एक थे। लेकिन उनके अंदर ज़ुल्म से नफरत और सियासत की चाहत "शहीद सय्यद मुज्तबा नवाब सफ़वी" की शख्सियत से मिली थी। 1952 में शहीद सफ़वी शहरे मशहद गए थे और वह पर एक तक़रीर को मुखातिब किया, इसी तक़रीर में आयतुल्लाह ख़ामेनई भी मौजूद थे और इस तक़रीर ने इंक़ेलाब  की चिंगारी का आग़ाज़ किया।



1962 से आयतुल्लाह ख़ामेनई इन्क़ेलाबी मुहीम  के साथ जुड़ गए जो इमाम खोमैनी के मातहत शुरू हो चुकी थी। इसी दौरान 1963 से इंक़ेलाब के तकमील तक वो इंक़ेलाब के साथ जुड़े रहे और साथ ही क़ुम और मशहद में अपने दर्स और तदरीस के सिलसिले को भी जारी रखा। इस दौरान वो 5 से 6 दफा जेल भी गए।

ख़ुसूसन 1972 से 1975 तक आगा के दर्से क़ुरआन और इस्लामी नज़रिये के दर्स में लोगो की भारी भीड़ रहती थी और ये मशहद की तीन मस्जिदो में ररखे जाते थे: मस्जिदे करामात, मस्जिदे इमाम हसन (अ) और मस्जिदे मिर्ज़ा जाफ़र। इसके साथ ही आगा के नहजुल बलाग़ाह के दर्स भी लोगो में खासे मशहूर थे और इन दर्स को जमा कर के एक किताबी शक्ल भी दी गई थी जिसे “The Glorious Nahjul Balagah" का नाम दिया गया।



 1976 के आखिर में ज़ालिम पहलवी हुकूमत ने आयतुल्लाह ख़ामेनई को  गिरफ्तार कर के तीन साल  के लिए इरानशहर जिलावतन कर दिया। लेकिन 1979 के शुरुआत में हुकूमत के खिलाफ बढ़ते गुस्से और आंदोलन के चलते वे वापस मशहद आ गए और हुकूमत के खिलाफ वापस मोर्चा संभाल लिया। आगा के मुसलसल 15 साल की जददोजहद और पूरी ईरानी अवाम और इमाम  खोमैनी की क़यादत के नतीजे में आखिरकार ज़ालिम शाह को ईरान छोड़ कर जाना पड़ा और ईरान में इस्लामी हुकूमत का क़ायम हुआ।

इंक़ेलाब के बाद भी रहबरे मोअज़्ज़म इस्लामी हुकूमत की खिदमत में लगे रहे और अपने कंधो पर ज़िम्मेदारी को अदा करते रहे। आप की ज़िन्दगी को हम इस तरह लिख सकते है:

  • 4 साल की उम्र से पढाई का आग़ाज़
  • 9 साल की उम्र में प्राइमरी की पढाई और क़ुरानी अदबियात
  • 13 साल की उम्र में मदरसे की पढाई  - क़ुरआन, अदबियात, मंतिक़ और फलसफे की पढाई
  • 18 साल की उम्र से आयतुल्लाह मिलानी के ज़ेरे एहतेमाम दर्से ख़ारिज का आग़ाज़
  • 19 साल की उम्र में नजफ़े अशरफ में बुज़ुर्ग उलेमा जैसे आयतुल्लाह मोह्सिनुल हाकिम और दीगर उलेमा के दर्स में शिरकत
  • एक साल बाद (20 साल की उम्र में) ईरान वापसी और इमाम खोमैनी, आयतुल्लाह बुरुजर्दी और दीगर उलेमा के क़यादत में 8 साल तक दर्से ख़ारिज और इज्तिहाद किया।
    •  1964 से 1979 तक मशहद में आयतुल्लाह मिलानी के मदरसे में इज्तिहाद और दर्स का सिलसिला जारी रखा
  • दीनी तालीम और तदरीस के साथ इन्क़ेलाबी मुहीम में अहम किरदार 

  • इंक़ेलाब के बाद आप की ज़िन्दगी:
    • फेब्रुअरी 1979: इस्लामी इंक़ेलाब के बुनियादी हिस्से
    • 1980 - Secretary of Defense.
    • 1980 - Supervisor of the Islamic Revolutionary Guards.
    • 1980 - Leader of the Friday Congregational Prayer.
    • 1980 - The Tehran Representative in the Consultative Assembly.
    • 1981 - Imam Khomeini’s Representative in the High Security Council.
    • 1981 - Actively presents at the war front during the imposed war between Iran and Iraq.
    • 1982 - Assassination attempt by the hypocrites on his life in the Abuthar masjid in Tehran.
    • 1982 - Elected President of the Islamic Republic of Iran after martyrdom of Shaheed Muahmmad Ali Raja’i. This was his first term in office; all together he served two terms in office, which lasted until 1990.
    • 1982 - chairman of the High Council of Revolution Culture Affairs.
    • 1988 - President of the Expedience Council.
    • 1990 - Chairman of the Constitution Revisal Comity.
    • 1990 -  इमाम खोमैनी (र. अ.)की रेहलत के बाद, मजलिसे खुबरागान के एक्जा फैसले से आयतुल्लाह ख़ामेनई ईरान के रहबरे मोअज़्ज़म के मक़ाम पर फ़ाएज़ हुए। 

       
      अल्लाह से दुआ है की वो रहबरे मोअज़्ज़म आयतुल्लाह ख़ामेनई का साया हमारे सरो पर क़ायम रखे और उनके दुश्मनो को निस्तो नाबूद करे।

5 Jan 2015

Taqleed - Ek Aqli Zarurat!

क्या आज के तालीमी दौर में भी तक़लीद एक अक़्ली ज़रूरत है?

इंसान के लिए ये ज़रूरी नहीं की हर वक़्त वह किसी दूसरे आदमी  की पैरवी करे या किसी और के नज़रिये पर हमेशा राज़ी रह कर अपनी ज़िन्दगी बसर करे। इस सिलसिले में हमारे सामने चार क़िस्म के हालात आ सकते है:

१. एक  जाहिल इंसान दूसरे जाहिल इंसान की पैरवी करे
२. एक ज़्यादा पढ़ालिखा इंसान किसी दूसरे काम पढेलिखे इंसान की पैरवी करे
३. एक पढ़ालिखा इंसान किसी जाहिल इंसान की  पैरवी करे
४. एक काम पढ़ालिखा इंसान किसी ज़्यादा पढ़े लिखे इंसान की पैरवी करे

ये बात ज़ाहिर है कि पहले तीन मरहलो को इंसानी अक़्ल पसंद नहीं करती और इनसे हमारा मक़सद हल नहीं होता। जबकि आखरी (4th) पहलु न की सिर्फ अक़्ली लिहाज़ से सही है बल्कि हम अपनी ज़िन्दगी में बहोत सी जगह इस बात को अपनी  ज़िन्दगी में बजा लाते है। जैसे किसी मसले में आलिम से राबता क़ायम करना या फिर किसी डॉक्टर से अपनी सेहत के बारे में मश्विरा लेना, वगैरह।

इसी ज़ैल में अगर किसी इंसान को अपना घर बनाना है तो वह बिल्डर के अपनी ज़रूरत बताता है और फिर बिल्डर के ताबे हो  जाता है। इसी तरह हम डॉक्टर और वकील की भी पैरवी करते है।

ऐसे बहोत सी  मिसाले है जो हम अपनी ज़िन्दगी में किसी दूसरे माहिर की पैरवी करते है। कई बार जानते हुए और बहोत  वक़्त ना जानते हुए। लेकिन कई बार क़ानून हमें यह आदेश देता है की किसी माहिर की सलाह के बग़ैर काम ना करे, मसलन, कोई खतरनाक दवाई लेने के वक़्त किसी माहिर डॉक्टर की सलाह और उसकी पर्ची होना ज़रूरी है।

इसके साथ ही अगर दो इंसानो में या  गिरोह में लड़ाई हो जाए और फैसला नहीं हो रहा हो तो कोर्ट में जज के सामने उसके फैसले की पैरवी करते है।

दिनी मसाइल में तक़लीद भी इसी तरह है: एक इंसान जो दिनी मसाइल में माहिर नहीं है, किसी ऐसे शख्स की ओर रुजू करे / पैरवी करे जो दिनी मसाइल में माहिर है, जिसे मुजतहिद कहते है। और इस सिम्त में ये वाजिब है है की हर वो शख्स जो मुजतहिद नहीं है, उसे किसी मुजतहिद के फतवो के हिसाब से ज़िन्दगी गुज़ारना ज़रूरी है।

यहाँ एक  बात बताना ज़रूरी है कि तक़लीद सिर्फ शरीअत के मसाइल में जायज़ है और हर  इंसान के लिए ज़रूरी है की वो अपने अक़ाएद में खुद अपनी रिसर्च करे और इसे कामिल बनाए। क़ुरआन ने ऐसे लोगो को फटकार लगाई है जो अक़ाएद के मामले में दुसरो की पैरवी:

" और जब उन लोगो से कहा जाता है कि उस चीज़ की ओर आओ जो अल्लाह ने नाज़िल  की है और रसूल की ओर, तो वे कहते है, "हमारे लिए तो वही काफी है, जिस पर हमने अपने बाप दादा को पाया है." क्या यद्यपि उनके बाप दादा कुछ भी न जानते रहे हो और न सीधे राह पर रहे हो?" (५: १०४)

इसका ये मतलब नहीं की इंसान  हमेशा अपने   बाप दादाओ के खिलाफ ही काम करे या अक़ीदा रखे। जबकि क़ुरआन कह रहा है की उनकी आँखे बंद कर के पैरवी न की जाए। इस्लाम सिखाता है कि अक़ाएद की दुनिया में दुसरो के नज़रियात को जांच परख कर सिर्फ उन्ही  बातो को मानना चाहिए जो अक़्ली है।

"ऐ मुहम्मद (स), बशारत दे दो मेरे उन बन्दों को जो सुनते सब की है और बेहतरीन पर अमल करते है।" (३९: १७)

बातो को समेटते हुए ये कहना सही होगा कि अगर इस्लाम की सही मानो में मानना है तो अपने अक़ाएद को खुद अपनी  तरफ से रिसर्च कर के मुहकम करे।  इसके साथ ही दिनी शरीअत पर अपना यक़ीन पक्का करे और इस पर अमल करने के लिए किसी मुजतहिद की तक़लीद करे या फिर इस हद तक दिनी इल्म हासिल करे और तक़वा परहेज़गारी बजा लाए की खुद मुजतहिद बन जाए।

Yemen ke Halaat aur Hamara Kirdaar Yemen ke Halaat aur Hamara Kirdaar

यमन के हालात और हमारा किरदार   मुस्लमान और ख़ुसूसन शिया होने के नाते यह हमारा फ़रीज़ा है की दुनिया में हो रहे हालात से बा-खबर रहे और य...

Ayatullah Khamenei ka Nae Shamsi Saal 1394 ka paigham Ayatullah Khamenei ka Nae Shamsi Saal 1394 ka paigham

नए हिजरी शम्सी साल 1394 के उपलक्ष्य में राष्ट्र के नाम संदेश    بسم ‌الله ‌الرّحمن ‌الرّحيم‌ يا مقلّب القلوب و الابصار، يا مدبّر اللّي...

Ayatullah Khamenei ka Jawano ko paigham (Hindi me) Ayatullah Khamenei ka Jawano ko paigham (Hindi me)

Ayatullah Syed Ali Khamenei (DA), Islamic Republic Iran ke Rehbar, ka paigham Shuru Allah ke naam se, jo bada Meharbaan aur Nihayat Ra...

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आयतुल्लाह ख़ामेनई की सवानए हयात आयतुल्लाह हाज सय्यद अली हुसैनी ख़ामेनई मरहूम आयतुल्लाह सय्यद जावद हुसैनी ख़ामेनई के फ़रज़न्द है। उनकी ...

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